अखंड भारत शब्द के प्रथम प्रणेता आचार्य चाणक्य के नाम की उपाधि ले लेने मात्र से कोई भी चाणक्य की उपलब्धि में बदल देगा यह संभावना ही संभव प्रतीत नहीं होती। नंद वंश का अंत कर शिखा को बांध देने की चाणक्य प्रतिज्ञा से भला कौन परिचित नहीं होगा? चंद्रगुप्त को सिंहासन सौंप स्वयं कुटिया में रहने वाले आचार्य चाणक्य का तप, साधना, समर्पण, संयम, सदाचार शब्द मात्र नहीं चाणक्य होने का, चाणक्य के बनने का चाणक्य के जीवन जीवांत होने का आधार है।
आज दौरे चुनाव में मैं भी चाणक्य तू भी चाणक्य… खबरिया चैनलों पर चाणक्य की भरमार है हर ऐरे गैरे आंकड़ेबाजों की जमात के मुखिया को चाणक्य शब्द से सुशोभित कर महिमामंडित करने की होड़ मची है। चुनाव के नारों को गढ़ने वाले, आंकड़ों का जोड़ घटा कर नए समीकरण सजा मन मोहने वाले, आंकड़ों के उलट फेर से सत्ता संघर्ष का खेल खेलने वालों, सियासी रण में ऐसे सस्ते चाणक्य आज हर बाजार हर दल के दरबार में हाथ बांधे बिकने को तैयार खड़े हैं। ऐसे आज के तथाकथित चाणक्य जिनमें कुछ की दुकानें हैं तो कुछ दल दल, नेता नेता खुद को मैं भी चाणक्य बता चुनावी बिसात में रणनीति का माहिर बता सत्ता सुंदरी को मोहने का पासा फेंकते दिखाई देंगे। इन सस्ते चाणक्यो के चक्कर में छोटे दलों के क्षत्रप फंस भी रहे हैं । जिससे उस दल के जमीनी कार्यकर्ताओं, अनुभवी नेताओं, पार्टी की दीवार बन अडिग खड़े बुद्धिजीवियों को उस भाड़े के चाणक्य के सम्मुख दरबारी बन हाजिरी लगाने की मजबूरी बन जाती है।
चुनाव चेहरे, मुद्दे, कार्यकर्ता, ईमानदारी और उम्मीद इन पाँच सूत्र पर लड़े और जीते जाते रहे हैं और आगे भी यही पाँच आधार भूत तथ्य किसी दल को शीर्ष में पहुंचाने की राह बनाएंगे। चुनाव 2014 का हो तो “चेहरा” मोदी बन सामने थे, “काला धन” उम्मीद, “बहुत हुई महंगाई” की मार मुद्दा, “भ्रष्टाचार से मुक्त” ईमानदारी और कार्यकर्ताओं का हुजूम सुनामी बन कमल दल को दिल्ली दरबार में स्थापित करने का कारण बनी। उसी दिल्ली में केजरीवाल ने जनता से कहा काम किया तो वोट देना नहीं तो किसी और को चुन लेना। केजरीवाल दिल्ली में मोदी से बड़ा चेहरा बन गए, उनका काम चुनावी मुद्दा, उनकी शैली ईमानदारी का प्रतीक, उनके बनाए स्कूल, अस्पताल, बिजली उम्मीद की किरण बन जनता के दिलों में थी, नतीजा देश जीतने वाला दल केजरीवाल से हार गया अमित शाह की मंत्रियों मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायको, बुद्धिजीवियों, धनपतियों की सेना झाड़ू वालों के सामने रणछोड़ बन परास्त चित्त हो सिमट गई। 70 में से आठ बस इतने ही जीते कमल प्रेमी दिल्ली के दंगल में। कांग्रेस का तो खाता ही नहीं खुला शून्य पर सिमटी शीला की कांग्रेस माकन के दौर में भी जीरो पर ही अडिग, अविचलित खड़ी रही।
दीदी ओ दीदी बोल बंगाल में ललकारने वाले मोदी से ममता का चेहरा भिड़ गया। खेला होवे का नारा तराना बन दंभ, धर्म, अहंकार, नफरत की राजनीति का बीज बोने वालों को लपेट समेट गया। दीदी चुनाव तक चतुराई से पैर में प्लास्टर सजाए पहिएदार कुर्सी पर विराजमान हो सहानुभूति की फसल काट बंगाल में ऐतिहासिक जीत का अध्याय लिखा। पूरे हिंदुस्तान ने देखा दीदी का दम, शाह की बिसात, मोदी की ललकार और बंगाल का फैसला।
तीन चुनाव, तीन चेहरे, तीन जीत, तीन नायक देश के सामने हैं। ऐसे में सस्ते बाजारू चाणक्यो की चतुराई क्या काम आई? आंकड़ेबाजों की पैंतरेबाजी क्या रंग लाई? यह जीत कार्यकर्ताओं के कौशल, समर्पण दिल से जुड़े नेताओं के आत्मविश्वास का पैगाम है या फिर दल दल, दफ्तर दफतर घूम रहे मैं भी चाणक्य कहने वाले किसी सस्ते बाजारू चाणक्य का जादू… आंकड़े बताए गिनाए जा सकते हैं आंकड़ों से जाति, धर्म, अमीर, गरीब, पढ़े, अनपढ़, किसान, मजदूर, रोजगार, बेरोजगार चिन्हित किए जा सकते हैं पर चेहरे के बिना चुनावी समर में यह आंकड़ों का जाल किसी काम का नहीं बेमानी साबित होता है। नेता की नियति लोकप्रियता आंकड़ों से नहीं बढ़ती बल्कि आंकड़ों का उपयोग ही नेता के वजूद के जादू से सत्यापित होता है। किसी भी दल को दिल जीतने की जुगत बनानी होगी, कार्यकर्ता प्रथम, दल को जीवन देने वाले सर्वोपरि, नेता का चेहरा बेदाग सेवा ही मुद्दा, समर्पण ही नारा होगा तो जनता राजतिलक करेगी वरना इन बाजारू चाणक्यों का सौदा पटा तो ठीक नहीं तो डील कैंसिल होते ही विरोधी के मंगल के गीत गाने शुरू कर देते हैं। नोट छाप वोट बटोर वाले मीडिया के बनाए बेचारे चाणक्य को क्या खबर चाणक्य बाजारू नहीं जुझारू होते हैं।
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