बहुत जल्दी सीख लेता हूं जिंदगी के सबक……गरीब बच्चा हूं बात बात पर जिद्द नहीं करता।
गुरबत से बिखरे सपनों को जोड़ एक ही ख्वाब आंखों में बसाये जो बचपन स्कूल की ओर बढ़ता है, उसे स्कूल का हर सबक नौकरी का सांचा ही नजर आता है। इन्हीं सांचो में ढलता, पढता, पढता कब बचपन नौकरी की दरकार में स्कूल से सड़क पर आ खड़ा होता है,समझ नहीं आता। यह समझ बच्चे की नासमझी नहीं है, यह तो नीति निर्धारकों का अपराध है जिन्होंने शिक्षा के मंदिर को नौकरी पाने का सस्थान बना दीया। बचपन के ख्वाब किताब के बोझ में टूटते, बिखरते,सिमटते,सिसकते दम तोड़ देते हैं। उम्मीद की खिड़की से झांक बच्चों को नौकरी देने का साहस न दे पाने वाली क्लास रूम की लाचारी बेरोजगारों की फौज बना रही है। सपनो को बू साधना को जोड़ संकल्प ले स्वरोजगार सृजित करने की सोच का सबक देने में असफल “विद्यालय” जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। शायर मुनव्वर राना जी ने खूब लिखा है
“बच्चों की फीस उनकी किताबे कलम दवात
मेरी गरीब आंखों में स्कूल चुभ गया है”।।
शिक्षा का व्यवसायीकरण तो हो गया, किंतु शिक्षा से व्यवसाय लायक विद्यार्थी बनाना अभी शेष है। विद्यालय में सजे किताब, कॉपी,टाई, बेल्ट, पेंट कमीज के काउंटर तो है पर शिक्षा कहां जो शिक्षित कर छात्र को नौकर से सृजक बना दे। बेरोजगार से स्वरोजगार का यह पाठ किताबों के कवर में अभी छपा ही नहीं शायद। जब नीति ही नहीं बना पाए आजाद भारत के निर्धारक तो दीवारें सुंदर, कमरे हवादार, इमारतें ऊंची करके भी क्या बदलाव आएगा सोचना लाजमी हो गया है?
खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए
सवाल यह है किताबों ने क्या दिया मुझको?।।
शिक्षार्थ आइए, सेवार्थ जाइए हर विद्यालय के कपाट के दाएं बाएं अंकित कर जहन में बिठा दिया गया है, जिससे बाल मन बस इतना ही बोध कर पाता है कि स्कूल की पढ़ाई पूरा होने का मतलब नौकरी की काबिलियत का पूरा हो जाना है। नवाचार का अभाव इतिहास, भूगोल, विज्ञान, अंग्रेजी की किताबों से अटे पड़े बस्तो में “जिंदगी” की किताब हमने रखी कहां है? जिंदगी भर जिंदगी के सबक से मेहरूम जिंदगी “नौकरी का छाता खुशियों का आसमान ढक लेती है”। नौकरी तले ही खुशियों का बसेरा है,नौकरी ही मंजिल, मकसद, मंतव्य ही जब पन्नो पर छापा गया,सिखाया पढ़ाया बताया जा रहा है तो बचपन नौकरी का बोझ उठाने को आतुर न हो तो करे क्या? वजह साफ है गूंगी किटबो में अवसर उम्मीद भरोसा सृजन संभावना सपनो की ज़बान डालनी होगी।
हुनर की पहचान, हुनर का निखार जब विद्यालय के प्रांगण का पहचान बन जाएंगे तो पुस्तकों के मेले से नौकरी पाने वालों का रेला नहीं नौकरी बांटने वालों का हुजूम निकलेगा। खूबसूरत अंजाम को नया मोड़ देने की जरूरत है…. जिंदगी का महत्व, जीने की कला, मानव होने के मतलब, रिश्तो का मोल, कृतज्ञता का भाव,राष्ट्रप्रेम के बीज बचपन की क्यारियों में बोना, रोपना, सीचना होगा। नवाचार के झरोखे खोलने होंगे, ख्वाबों को लकीरें उकेरनी
होगी। “ब्लैक बोर्ड पर जिंदगी का उजाला लिखना होगा”।
शुरुआत हुई है,खिड़की खुली है, दिल्ली के विद्यालय बदल रहे हैं,नीतियों की खामियां पहचानी जा रही है खुशियों को हिस्सा बनाया जा रहा है। भागीदारी, जिम्मेदारी, हिस्सेदारी के धागों में विद्यालय, विद्यार्थी, अभिभावक को जोड़ा जा रहा है। अध्यापकों की कुशलता को निखारा जा रहा है, निखरे अध्यापक का निखार विद्यार्थी के आचार, विचार, आचरण के बदलाव का प्रेरक बने, संवाद की कला को बढ़ाया जा रहा है, सुनने की क्षमता की दक्षता पर काम हो रहा है दिल्ली के बदलते विद्यालय इस बीमारी की दवाई बन सामने आ रहे हैं। यह भगीरथी प्रयास सिक्षा की गंगा को नए स्वरूप दे रही है जिससे सच मायने शिक्षा शेरनी का वह दूध बन जायेगी जिसे पीकर शिक्षार्थी दहाड़ने लगेगा। यही तो बाबा साहेब का सपना था जो साकार करने में दिल्ली सरकार परिश्रम की परकष्ठा का प्राक्रम गढ़ रही है। दिल्ली के विद्यालय की यही खिड़की शिक्षा का नया सूरज दुनिया को दिखाएगी।
देश की राजधानी में शिक्षा के सांचे का को नया आकार दिया जा रहा है। जिसमें संवाद, साधन, साधना, सहयोग, संकल्प, विकल्प, हंसी खुशी, कला और जिंदगी के मायने के साथ साथ संविधान की पढ़ाई को शुमार करना ऐसी सफल शुरुआत है जिस सूरज के निकलने की चाह में बरसो गुजर गए। शिक्षकों की कुशलता को बढ़ाने के लिए दिल्ली ने दुनिया के दरवाजे खोले हैं । साधनों को जोड़, सहयोग को बढ़ावा, सपनों की उड़ान, शिक्षक, शिक्षा, शिक्षार्थी का सम्मान अब नई पहचान है। यह सीख अध्यापकों से विद्यार्थियों में बढ बदलाव कर रही है। इस बदलाव की बयार में चाहत राहत के साथ-साथ स्वयं पर भरोसा बढ़ाने का जोर है। समय की जरूरत अनुरूप बेहतर नागरिक बनाना विद्यालय की ही जिम्मेदारी है, इस जिम्मेदारी के लिए दिल्ली का शिक्षक तैयार तत्पर है। छात्र अवसर को तलाश, साधन को तराश समाधान की प्रवृत्ति को सृजित करने वाले बने ना कि सर्टिफिकेट हाथ में थामें नौकरी मांगने वालों की कतार में शुमार हो कहीं गुम हो जाएं । दिल्ली ने यह अभूतपूर्व शुरुआत की है, बदलाव नीति नीयत निश्चय का है कि “बस्ता बोझ बन नौकर बनाएगा या फिर उम्मीद की राह बन कामयाब बनाएगा।