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पंजाब सरकार द्वारा सूचना अधिकार क़ानून लागू कर सरकारी विभागों में पारदर्शिता लाने और अफसरों की जवाबदेही तय करने के लिए कायम किया सूचना कमीशन अपने मकसद को हासिल करता दिखाई नहीं दे रहा है। कमिशन के गठन को डेढ़ दशक का समय हो गया है। इस दौरान सरकारों का मकसद सरकारी फाइलों में दबी सूचना को जनतक करने की जगह कमीशन में ‘अपने आदमियों’ को ‘एडजस्ट’ करने की ओर ही केंद्रित है। कमिशन का गठन 11 अक्तूबर 2005 को हुआ था। सूचना का अधिकार (Right to Information-RTI) अधिनियम, 2005 भारत सरकार का एक अधिनियम है, जिसे नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध कराने के लिये लागू किया गया है। तब से लेकर कमिशन की ओर से क़ानून को लागू करने के लिए जिस तरह के दांव-पेच अपनाए हैं, उससे सिद्ध होता है कि कमिशन ने सूचना मांगने वालों का रास्ता कठिन ही किया है। अकाली-भाजपा सरकार की तरफ से नियुक्त किए मुख्य सूचना कमिश्नर रामेशइन्दर सिंह के समय कमिशन की तरफ से पहली बारी नियम लागू किए गए थे। इन नियमों के साथ सूचना मांगने वालों के लिए प्रक्रिया मुश्किल हो गई। क़ानून ने इस को इतना सरल विधि से बनाया है कि यदि कोई अनपढ़ व्यक्ति किसी भी दफ़्तर में जा कर ज़ुबानी तौर पर सूचना मांगे तो भी दफ़्तर के बाबू को उसकी सूचना लिख कर सम्बन्धित अधिकारी को देनी पड़ती है। उसके लिए कमिशन के पास जाने के लिए वकील की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। नियमों के मुताबिक़ सम्बन्धित व्यक्ति को पहली अर्ज़ी, फिर अपील अधिकारी को दी अर्ज़ी, उस की तरफ से दिया जवाब और पूरा खतो-ख़िताबत के साथ लगाना ज़रूरी कर दिया है। क़ानून के अनुसार सूचना लेने के बारे में पेशेवाराना वकीलों के दख़ल को उत्साहित करने से गुरेज़ किया जा रहा है, परन्तु सूचना न देने वाले विभाग या संस्थाएं पेशेवाराना वकीलों के द्वारा साधारण व्यक्ति को चुनौती देती हैं।
सूचना अधिकार क़ानून लागू होने के बाद कुछ सालों तक तो मंत्रियों में भी दहशत का माहौल रहा। मंत्री या अधिकारी फाइल पर दस्तख़त करने से पहले सोचते थे। समय निकलने के साथ जैसे-जैसे कमिशन पर राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों और समय की सरकारों के ख़ास व्यक्तियों की नियुक्तियां होने लगीं तो अफसरों और राजनीतिज्ञों में दहशत का माहौल भी उठाया गया। सरकारी दफ़्तरों में अब जनहित की जानकारी लेने के लिए अर्ज़ियां ज़्यादा नहीं आतीं। पंजाब पुलिस के सूचना दफ़्तर से सम्बन्धित आधिकारियों का बताना है कि अब तक निजी मामले ख़ास कर सेवा (सर्विस) के साथ जुड़े मुद्दों पर ही जानकारी लेने के लिए अर्ज़ियां दीं जातीं हैं। पंजाब पुलिस की ओर से विशेष कोटे या तरस के आधार पर नौकरी हासिल करने वाले व्यक्तियों की जानकारी देने से भी इन्कार कर दिया गया है। मंत्रिमंडल शाखा की तरफ से अक्सर मुख्यमंत्री या कुछ विशेष मंत्रियों के साथ सम्बन्धित विदेश दौरों की जानकारी देने से भी यह कह कर इन्कार कर दिया जाता है कि माँगी गई जानकारी सुरक्षा के दायरे के अधीन आती है।
आरटीआई कानकुन परविंदर सिंह कितणा ने आरोप लगाया कि सूचना कमिश्नरों की गतिविधियां अक्सर संदिग्ध देखी गई हैं। कई कमिश्नर अपनी भूमिका सूचना दिलाने की जगह दबाने के लिए ज़्यादा निभाता हैं। परविंदर ने कहा कि अकाली-भाजपा सरकार के समय जब शिरोमणि अकाली दल के नेताओं और विधायकों के गोआ मंथन की सूचना अधिकार क़ानून के अंतर्गत पार्टी या सरकार ने जानकारी न दी तो कमिशन तक पहुंच की गई। जब अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी दोनों पार्टियों के नुमाइंदे सूचना कमिशन के समक्ष पेश हुए तो एक कमिश्नर ने उनके सामने ही कह दिया ‘‘कोई जवाब बना तो देंगे नहीं तो फिर आपके साहेब ने कहने कि हमारा ख्याल नहीं रखते।’’ परविंदर ने बताया कि पंजाब में 1978 से 1993 तक मारे गए आम लोग, आतंकवादियों और सुरक्षा दस्ता और पुलिस कर्मचारी के मरने सम्बन्धित मांग गई जानकारी कुछ जिलों ने दे भी दी परन्तु जब कमिशन तक पहुंच की तो 4 अलग अलग सूचना कमिश्नर के पास इस सम्बन्धित शिकायत की सुनवाई हुई। एक सूचना कमिश्नर ने तो जानकारी देने से इन्कार कर दिया, परन्तु जब आगे वाली सुनवाई के दौरान कमिश्नर को बताया गया कि कुछ ज़िले माँगी गई उक्त सूचना दे चुके हैं तो इस कमिश्नर ने सूचना देने के लिए पुलिस विभाग को ज़ुबानी हुक्म कर दिए। कमीशन के दफ़्तर में कई सुनवाई होने के बाद पुलिस अधिकारी सूचना न देने पर अड़ गए।