नई दिल्ली, 01 अक्टूबर,(The News Air): धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के को भारतीय फिल्मों का पितामह कहा जाता है. केंद्र सरकार ने बॉलीवुड अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार निर्णायक मंडल ने भारतीय सिनेमा में विशिष्ट योगदान के लिए उनके नाम का फैसला लिया है. बॉलीवुड के पहले डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती को आठ अक्बतूर को होने वाले 70वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में यह सम्मान प्रदान किया जाएगा.
आइए, इसी बहाने जानते हैं कि कैसे एक फोटोग्राफर ने भारतीय सिनेमा की नींव रखी और उनकी लाइफ बदल गई?
बॉलीवुड का सबसे बड़ा सम्मान उन्हीं के नाम पर
धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के को भारतीय फिल्मों का पितामह कहा जाता है. उनके नाम पर ही आज बॉलीवुड का सबसे बड़ा सम्मान प्रदान किया जाता है. भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के के फिल्म जगत से जुड़ने का किस्सा काफी रोचक है. उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक के निकट त्रयम्बकेश्वर तीर्थ स्थल के पास हुआ था. दादा साहेब फाल्के के पिता का नाम था गोविंद सदाशिव फाल्के था, जो संस्कृत के विद्वान और एक मंदिर में पुजारी थे.
मराठी ब्राह्मण परिवार से संबंध रखने वाले दादा साहेब के पिता के बारे में कहा जाता है कि वह मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में अध्यापक भी थे. इसी के चलते दादा साहेब फाल्के की बचपन से ही कला में काफी रुचि थी. दादा साहेब फाल्के ने 15 वर्ष की उम्र में मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया था, जो उस दौर का कला का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था. वहां चित्रकला सीखने के बाद साल 1890 में उन्होंने वड़ोदा की जानी-मानी महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी के कलाम भवन में प्रवेश लेकर चित्रकला के साथ-साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला की पढ़ाई की थी.
जाने-माने फोटोग्राफर थे दादा साहेब फाल्के
मीडिया रिपोर्ट की मानें तो दादा साहेब फाल्के अपने जमाने के जाने-माने फोटोग्राफर थे, जिनको फिल्में देखने का काफी शौक था. एक बार वह फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देख रहे थे. तभी विचार आया कि क्यों न खुद फिल्में बनाएं. बस क्या था, वह फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने को एक-एक दिन में चार-पांच घंटे विदेशी फिल्में देखने लगे. वह अंग्रेजों का शासनकाल था और भारत में फिल्म बनाने की कोई भी सुविधा नहीं थी. फिल्में बनाने के लिए सभी जरूरी उपकरण तक इंग्लैंड में ही मिलते थे. अपने विचार को मूर्तरूप देने के लिए वह इंग्लैंड गए और फिल्म निर्माण की तकनीक सीखी. इसके बाद फोटोग्राफी के जरिए कमाई गई जिंदगी की सारी जमा-पूंजी लगाकर उपकरण इंग्लैंड से भारत ले आए.
पत्नी के जेवर गिरवी रखकर जुटाया धन
देश लौटने के बाद उन्होंने फिल्म बनाने के तैयारी शुरू की. यह उनके लिए बड़ा संघर्ष बन गया. उन्होंने अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने के लिए अपनी पत्नी सरस्वती बाई के जेवर गिरवी रखकर धन जुटाया. राजा हरिश्चंद्र नाम की यह फिल्म राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित थी. धन इकट्ठा होने के बाद उन्होंने इसमें काम करने के लिए अभिनेताओं का तलाश शुरू की.
रेड लाइट एरिया से निराश होकर लौटे
राजा हरिश्चंद्र के रूप में अभिनय करने और दूसरे अन्य पुरुष पात्रों के लिए तो अभिनेता मिलते गए पर समस्या खड़ी हुई राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती की भूमिका अदा करने के लिए कलाकार ढूंढ़ने में. इसके लिए कोई महिला कलाकार मिल ही नहीं रही थी. बताया जाता है कि रानी तारामती की भूमिका के लिए कलाकार ढूंढ़ने के लिए दादा साहेब फाल्के मुंबई के रेड लाइट एरिया में चले गए. उन्होंने रेड राइट एरिया की औरतों को अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया. उन औरतों ने दादा साहेब से पूछा कि कितने पैसे मिलेंगे? इस पर दादा साहेब फाल्के ने पैसे को लेकर जो जवाब दिया, उसे सुनकर औरतों ने कहा कि काम इतना ज्यादा है और जितने पैसे आप दे रहे हैं, उतने पैसे तो हम एक रात में कमा लेते हैं. इस पर उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा.
होटल में काम करने वाले लड़के ने निभाई रानी तारामती की भूमिका
रेड लाइट एरिया से लौटने के बाद भी दादा साहेब ने अपनी फिल्म के लिए महिला कलाकार की तलाश जारी रखी. एक दिन की बात है, दादा साहेब एक होटल में चाय पी रहे थे. तभी उनकी नजर वहां काम करने वाले एक लड़के पर पड़ी. वह लड़का बेहद गोरा और दुबला-पतला था. उसको देखकर दादा साहेब फाल्के ने सोचा कि क्यों न इसी से रानी तारामती का किरदार कराया जाए. फिर उन्होंने उस लड़के से बात की, जिसका नाम सालुंके था. वह तैयार भी हो गया और फिल्म राजा हरिश्चंद्र में तारामती की भूमिका निभाई. इस तरह से साल 1913 में सामन आई भारतीय सिनेमा की अपनी पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र. बताया गया है कि तब इस फिल्म को बनाने पर कुल 15 हजार रुपये खर्च हुए थे और इसमें छह महीने का वक्त लगा था.
बोलती फिल्मों के कारण छोड़ा सिनेमा
इसके बाद दादा साहेब के फिल्म निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ तो कालिया मर्दन और लंका दहन जैसी उस दौर की काफी सफल फिल्में सामने आईं. इससे दादा साहेब ने पैसे भी कमाए. उनकी इन सभी शुरुआती फिल्मों में आवाज नहीं थी. दादा साहेब की आखिरी मूक फिल्म थी सेतुबंधन. भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म आलमआरा रिलीज हुई तो अभिनय के साथ फिल्मों में आवाज का समावेश भी शुरू हो गया. इससे दादा साहेब फाल्के को दिक्कत होने लगी और पहले जैसी सफलता उनको नहीं मिली. इससे धीरे-धीरे वह फिल्म निर्माण से दूर होते चले गए.
इतनी फिल्मों का किया निर्माण
दादा साहेब का फिल्मी करियर लगभग 19 साल का रहा और उन्होंने 95 फीचर फिल्में बनाईं. साथ ही 27 शॉर्ट फिल्मों का निर्माण भी किया. दादा साहेब एक अच्छे निर्देशक के साथ ही बेहतरीन निर्माता और स्क्रीन प्ले राइटर भी थे. उन्होंने 16 फरवरी 1944 को हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कहा था. उनके सम्मान में साल 1969 में भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहेब फाल्के अवार्ड की शुरुआत की गई. सबसे पहला दादा साहेब फाल्के अवार्ड अभिनेत्री देविका रानी को मिला था.