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Vande Mataram History: गांधी ने क्यों कहा था किसी पर मत थोपो?

आनंदमठ का वो प्लॉट जो आज तक छुपाया गया, रवींद्रनाथ टैगोर ने क्यों चुनी सिर्फ कुछ पंक्तियां और 150 साल पुराने विवाद की पूरी कहानी

The News Air Team by The News Air Team
सोमवार, 8 दिसम्बर 2025
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Vande Mataram History
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Vande Mataram Controversy: वंदे मातरम को लेकर जो बहस आज चल रही है, वह 150 साल पुरानी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने पूरा गाना कभी स्वीकार नहीं किया था? उन्होंने सिर्फ कुछ चुनी हुई पंक्तियां ली थीं और वही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार हुआ। सवाल यह है कि आखिर वो कौन सी ताकत थी जिसकी इच्छा पूज्य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई?


वंदे मातरम का असली इतिहास क्या है?

जब बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम लिखा और उसमें मातृभूमि की आराधना की, तो उनके लिए राष्ट्र का मतलब बंगाल था। उनके सामने जो परिदृश्य था वह बंगाल का था। उस समय दुर्गा की पूजा भी बंगाल की पहचान का हिस्सा थी।

जब श्री अरविंदो ने वंदे मातरम का अंग्रेजी में अनुवाद किया तो उसका टाइटल दिया “नेशनल एंथम ऑफ बंगाल” यानी बंगाल का राष्ट्रगान। वंदे मातरम में बंकिम मातृभूमि की पूजा करने वाले जिन 7 करोड़ लोगों की बात करते हैं, वे बंगाल प्रांत के रहने वाले थे। उस समय बंगाल काफी बड़ा प्रांत था जिसमें आज का बिहार, उड़ीसा और बांग्लादेश भी शामिल था।


7 करोड़ से 30 करोड़ कैसे हुआ?

जैसे-जैसे यह गीत पूरे देश में फैलता गया, 7 करोड़ की संख्या बदलती गई। 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले ने टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी से वंदे मातरम गाने का निवेदन किया। सरला देवी ने गाते समय 7 करोड़ की जगह संख्या को 30 करोड़ कर दिया।

यह संख्या आई कहां से? क्योंकि उस वक्त 1905 में जनगणना हो चुकी थी और भारत की आबादी 30 करोड़ थी। जिस 30 करोड़ की आबादी की बात की जा रही थी, उसमें आज का पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल था। आगे चलकर यह संख्या भी हट गई और केवल “कोटि-कोटि” रह गया जो पूरे भारत की सारी आबादी का प्रतीक बन गया।


आनंदमठ का प्लॉट और विवाद की शुरुआत

आनंदमठ की कहानी को समझना बहुत जरूरी है क्योंकि वंदे मातरम को लेकर मुसलमानों की आपत्ति आनंदमठ के कारण भी रही। इस उपन्यास में मुसलमानों के गांवों को, उनकी रिहाइशी बाजारों को मिटा देने के लिए ललकारा गया। उन्हें बाहरी, विदेशी कहा गया।

आनंदमठ का प्लॉट 1770 के दशक का है जब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था। तब तक पलासी और बक्सर का युद्ध हो चुका था। बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज स्थापित हो चुका था और नवाबों का दौर मिट गया था।

1770 के दशक में बंगाल के उस अकाल में 1 करोड़ लोग मरे थे। ऐसा तो हो नहीं सकता कि केवल हिंदू किसान मरे होंगे। मुसलमान भी उसी तरह से प्रभावित हुए होंगे। मगर आनंदमठ में पीड़ित केवल हिंदू हैं और खलनायक मुसलमान।


सन्यासी-फकीर विद्रोह का सच

इतिहासकार तनिका सरकार बताती हैं कि 1770 के आसपास ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सन्यासी और फकीर दोनों विद्रोह कर रहे थे। फकीर मुसलमान थे लेकिन आनंदमठ में मुसलमान विलेन बन जाते हैं और बंकिम केवल सन्यासी विद्रोह का चुनाव करते हैं।

इतिहासकार अतीश दास गुप्ता लिखते हैं कि अकाल के दौर में जो विद्रोह हो रहा था उसका नेतृत्व मुस्लिम फकीर और हिंदू सन्यासी दोनों कर रहे थे। मजनू शाह, भवानी पाठक, मूसा शाह, गणेश गिरी, चिराग अली और देवी चौधरानी सभी इसमें शामिल थे।

1773 में मजनू शाह के नेतृत्व में फकीरों ने दिनाजपुर के हिंदू सन्यासियों से हाथ मिला लिया। दिसंबर 1782 में रंगपुर के कलेक्टर राजस्व विभाग को लिखते हैं कि हिंदू सन्यासियों और मुसलमान फकीरों का दल मिल गया है और इनकी संख्या 700 के करीब रही होगी।


आनंदमठ में विलेन कैसे बदल गया?

आनंदमठ में जिस सन्यासी विद्रोह का प्लॉट है, वह केवल हिंदू सन्यासी के विद्रोह का है जबकि मुसलमान फकीर भी इसमें शामिल थे। उनके विद्रोह का नाम ही “सन्यासी-फकीर आंदोलन” कहा जाता है। यह विद्रोह किसके खिलाफ था? ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ।

लेकिन बंकिम के आनंदमठ में प्लॉट बदल जाता है। विलेन बदल जाता है। विलेन मुसलमान हो जाते हैं। आनंदमठ में सन्यासी विद्रोह कर रहे हैं लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ नहीं, मुसलमानों के खिलाफ जिन्हें वे अत्याचारी, विदेशी, बाहरी आक्रांता बताते हैं।


उपन्यास में क्या लिखा था?

ज्ञानानंद आनंदमठ का एक किरदार है। वह जेल में बंद सत्यानंद को छुड़ाने के लिए साथी सन्यासियों का आह्वान करता है कि “मुस्लिम विदेशियों के शहर को ढहा दो, उन्हें नदी में फेंक दो और इनके सूअर के बाड़ों जैसे घरों को जला दो। धरती मां को फिर से पवित्र करो।”

इन्हीं बातों से आनंदमठ का टोन मुस्लिम विरोध का हो जाता है क्योंकि मुसलमानों के गांव को जलाने का आह्वान है। उपन्यास में मुसलमानों के घर-संपत्ति को टारगेट किया जाता है और लूटा हुआ माल हिंदुओं में बांटा जा रहा है।

उपन्यास में एक मौके पर सत्यानंद महेंद्र के किरदार से कहते हैं कि “संतान का लक्ष्य राजा की सत्ता हासिल करना नहीं है। मुसलमान ईश्वर के दुश्मन हैं। हम उन्हें पूरी तरह से नष्ट करना चाहते हैं। ईश्वर ने संतानों को मुसलमानों के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा है।”


मूर्ति पूजा का विरोध सिर्फ मुसलमानों ने नहीं किया

अक्सर केवल यही बताया जाता है कि मुसलमान वंदे मातरम से इसलिए ऐतराज करने लगे कि इसमें देवी-देवता का आह्वान है क्योंकि मुसलमान किसी साकार रूप में यकीन नहीं करते और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते।

लेकिन मूर्ति पूजा का विरोध क्या केवल मुसलमानों ने किया? राधावल्लभ त्रिपाठी बताते हैं कि दयानंद सरस्वती ने काशी के पंडितों को चैलेंज कर दिया था कि मूर्ति पूजा का प्रावधान वेदों में नहीं है। 23 अक्टूबर 1872 को काशी के आनंद बाग में दयानंद सरस्वती और काशी के पंडितों के बीच मूर्ति पूजा को लेकर शास्त्रार्थ होता है।

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दयानंद सनातनियों को चैलेंज करते थे कि मूर्ति पूजा सही नहीं है, वो भी उस शहर में जाकर जो देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा के लिए आज भी विख्यात है। तो दयानंद सरस्वती को अपना लेते हैं लेकिन मुसलमान जब आपत्ति करते हैं तो उसे सांप्रदायिक चश्मे से देखते हैं।


1905 में विवाद कैसे बढ़ा?

1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल को बांटा था। उसके खिलाफ बंगाल की जनता भड़क उठी थी। इसमें हिंदू भी थे और मुसलमान भी। एक ऐसे नारे की जरूरत थी जो लोगों में आक्रोश और जोश पैदा करे।

1905 के स्वदेशी आंदोलन के समय आनंदमठ को लेकर आपत्तियां जताई जाने लगी थीं। आनंदमठ के प्लॉट के कारण भी वंदे मातरम को लेकर आशंका पैदा होने लगी क्योंकि वंदे मातरम उसी का तो हिस्सा था।


क्रांतिकारी संगठनों में हिंदू कर्मकांड

उन सालों के दौरान बहुत सारे क्रांतिकारी संगठन हिंदू कर्मकांडों का सहारा लेने लगे। हेमचंद्र कानूनगो स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक गुप्त समिति के सदस्य थे। उन्होंने 1928 में “बांग्लाय विप्लव प्रतिष्ठा” यानी “बंगाल की क्रांति” नाम से किताब लिखी।

इसमें बताते हैं कि हाथ में तलवार देकर शपथ दिलाई जाती थी, काली मां के नाम पर शपथ दिलाई जाती थी। कहा जाता है कि इस तरह की शपथ की प्रेरणा आनंदमठ से मिली थी।

इसके लिए कानूनगो अरविंदो घोष की आलोचना करते हैं और लिखते हैं कि ऐसा करने से आप राष्ट्रवाद को एक ही संप्रदाय से जोड़ देते हैं, दूसरे को बाहर कर देते हैं। यह आलोचना आज की नहीं है, 1928 में ही क्रांतिकारी सदस्य इसकी आलोचना करने लगे थे।

मां काली की शपथ में आपत्ति नहीं, लेकिन जो अल्लाह की कसम खाना चाहे उसके लिए जगह भी होनी चाहिए। वो जगह कहां है?


1906 में मस्जिदों के सामने नारे

1906 में हिंदुओं का एक जुलूस मस्जिदों के सामने से जा रहा था और वंदे मातरम के नारे लगाने लग गया, जिससे कानून व्यवस्था बिगड़ गई। यह काम आज के भारत में भी होता है। मस्जिदों के सामने धार्मिक जुलूस निकाले जाते हैं और डीजे बजाए जाते हैं।

इतिहासकार सुमित सरकार लिखते हैं कि 1906 में “मुसलमान” नाम के एक अखबार ने बंकिम की मुस्लिम विरोधी धर्मांधता की कड़ी आलोचना की। कहा कि आनंदमठ में मुसलमानों को गालियां दी गई हैं, उन्हें “यमन” या विदेशी कहा गया है।


1908 में मुस्लिम लीग का अधिवेशन

1908 में अमृतसर में मुस्लिम लीग का दूसरा अधिवेशन होता है। उस समय तक मुस्लिम लीग अलग राष्ट्र की मांग नहीं कर रही थी। अमृतसर में सैयद अली इमाम अपने अध्यक्षीय भाषण में कहते हैं कि जिस तरह से वंदे मातरम और रक्षाबंधन को राष्ट्रवाद का प्रतीक बनाया जा रहा है, उससे निराशा और बेचैनी हो रही है।

सैयद अली सुझाव देते हुए कहते हैं कि आज इसकी जरूरत ज्यादा है कि हिंदुओं और मुसलमानों की संवेदनशीलताएं आपस में जुड़ी हों। यदि दोनों के बीच मेल नहीं होगा तो राष्ट्र की प्रगति का पहिया रुकने लगेगा।


गांधी के विचार कैसे बदलते रहे?

गांधी को वंदे मातरम बहुत आकर्षित कर रहा था लेकिन उनका भी मत बार-बार बदल रहा था। 1920 और 30 के दशक में वंदे मातरम का विरोध बड़ा होने लग जाता है।

1 जुलाई 1939 को गांधी हरिजन में लिखते हैं – “इसका कोई मतलब नहीं कि गाने का सोर्स क्या था, इसकी रचना कैसे और क्यों की गई। जब मैं आनंदमठ और बंकिम के बारे में कुछ नहीं जानता था, वंदे मातरम ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब पहली बार इसे सुना तो जोश से भर गया। मैं इसमें राष्ट्रीय भावना का पवित्रतम रूप देखता हूं।”

गांधी आगे लिखते हैं – “मुझे कभी नहीं लगा कि यह हिंदू गाना है और इसे हिंदुओं को ही गाना चाहिए। दुर्भाग्य से अब यह होने लगा है। जो खरा सोना था वह अब खोटा सोना बन चुका है। ऐसे समय में विवेक तो यही कहता है कि खरे सोने को मत चलाओ, खराब धातु को चलने दो। ऐसी जगह जहां सभी समुदाय के लोग हों, वहां मैं वंदे मातरम गाने का जोखिम नहीं उठाऊंगा।”


1937 की कांग्रेस कार्य समिति का फैसला

1937 में जिस कांग्रेस की कार्य समिति ने वंदे मातरम का कुछ हिस्सा अलग किया, उस समिति में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी थे। अकेले नेहरू नहीं थे।

1937 के कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सेशन में यह निर्णय लिया गया कि जहां पर भी नेशनल गैदरिंग होगी, वहां पर शुरुआत में वंदे मातरम की पहली दो पंक्तियों को गाया जाएगा।

इस फैसले की आलोचना मुस्लिम लीग ने भी की और हिंदू महासभा ने भी। कभी-कभी हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के राजनीतिक उद्देश्य एक हो जाते थे।


पटना में गांधी का भाषण

6 मार्च 1947 को गांधी पटना में थे। वहां प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा – “मैंने सुना है कि यहां हिंदू मुसलमानों को देखते हैं तो चीखते हैं और उन्हें डराते हैं। उनके सामने जय हिंद और वंदे मातरम के नारे लगाते हैं। नारे लगाना अच्छी बात है लेकिन हमको पहले यह सोचना चाहिए कि हम दूसरे को डराने, धमकाने या उसे तकलीफ पहुंचाने के लिए नारे तो नहीं लगा रहे।”

गांधी आगे कहते हैं – “नवाखली के हिंदू भी इसी तरह मुसलमानों के अल्लाहू अकबर के नारे से डरते थे। अगरचे अल्लाहू अकबर का मतलब है ईश्वर महान है और इससे डरना नहीं चाहिए। लेकिन जब नारों का इस्तेमाल गलत किया जाता है तो उसका मतलब भी गलत समझा जाता है।”

गांधी कहते हैं – “जय हिंद का यह मतलब नहीं कि हिंदुओं की जय और मुसलमानों की हार। लेकिन आज वे ऐसा ही समझते हैं क्योंकि हमने उनको इस नारे का गलत इस्तेमाल करके डरा दिया है।”


तीन राष्ट्रीय नारों की बात

1920 के दशक में जब खिलाफत और असहयोग आंदोलन चल रहा था, तब उसी सभा में मुस्लिम जनता अल्लाहू अकबर का नारा लगाती थी और हिंदू जनता वंदे मातरम का। मकसद दोनों का एक ही था मगर नारे अलग थे।

इस तरह के मनमुटाव और टकराव को देखते हुए यंग इंडिया में गांधी तीन राष्ट्रीय नारों की बात करते हैं – अल्लाहू अकबर, वंदे मातरम, भारत माता की जय और हिंदू मुसलमान की जय।

गांधी कहते हैं – “बिना हिंदू-मुसलमान की जय के भारत माता की जय नहीं हो सकती।”

1943 में गांधी ने सामाजिक उत्थान की परिकल्पना के साथ 18 रचनात्मक कार्यक्रमों की एक रूपरेखा बनाई। इसमें कहते हैं कि वंदे मातरम या राष्ट्रध्वज किसी पर नहीं थोपना चाहिए।


आज के भारत में क्या हो रहा है?

सांप्रदायिकता के चैप्टर में कुछ बदल नहीं रहा। 150 साल से एक देश नफरत के एक ही सिलेबस को, एक ही चैप्टर को दोहराए जा रहा है।

2021 में मुजफ्फरनगर में किसानों की महापंचायत बुलाई गई। इसके मंच से किसान नेता राकेश टिकैत ने एक ही साथ अल्लाहू अकबर और हर-हर महादेव का नारा लगवाया। उस समय क्लिप का आधा हिस्सा काटकर वायरल किया गया कि टिकैत ने केवल अल्लाहू अकबर के नारे लगाए, लेकिन टिकैत ने हर-हर महादेव का नारा भी लगाया।

पश्चिम यूपी में 2013 के बाद से जाटों और मुसलमानों के बीच खाई पैदा की गई थी। किसान आंदोलन के समय उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा था। टिकैत ने इसे रोकने के लिए दोनों नारे एक साथ लगाए।


इतिहासकारों की राय

आरसी मजूमदार ने लिखा है कि आनंदमठ मुस्लिम शासन के ही खिलाफ था। इसके जरिए भारतीय राष्ट्रवाद की नहीं, हिंदू राष्ट्रवाद की बात की गई। बंकिम चंद्र ने राष्ट्रभक्ति को धर्म में बदल दिया और धर्म को राष्ट्रभक्ति में।

1973 में एजी नूरानी लिखते हैं कि कभी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया कि मुसलमान क्यों आपत्ति कर रहे हैं। आनंदमठ का प्लॉट ही मुसलमानों को मिटाने का है। इसके बाद भी अगर इन कारणों को ठीक से समझा गया होता, जनता के बीच रखा गया होता, तो वंदे मातरम को लेकर राजनीति यहां तक नहीं पहुंचती।


क्या है पृष्ठभूमि?

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय प्रेसिडेंसी कॉलेज के छात्र थे और कोलकाता यूनिवर्सिटी के शुरुआती ग्रेजुएट में से एक। उनके पास कानून की भी डिग्री थी। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करने लगे और डिप्टी कलेक्टर बने।

आनंदमठ के तीसरे संस्करण में बंकिम अपने कंधे से इतिहास का बोझ उतारने की कोशिश करते हैं और लिखते हैं कि “उपन्यास उपन्यास होता है, इतिहास नहीं होता।” हर रचनाकार इसकी छूट लेता है और बंकिम की यह बात सही भी है। लेकिन सवाल यह है कि उसी इतिहास से एक रचनाकार कौन सा हिस्सा चुनता है और किस हिस्से को छोड़ देता है।


मुख्य बातें (Key Points)
  • रवींद्रनाथ टैगोर ने चुनी सिर्फ कुछ पंक्तियां: पूरा वंदे मातरम कभी राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार नहीं हुआ, सिर्फ टैगोर द्वारा चुनी हुई पंक्तियां ही मंजूर हुईं।
  • आनंदमठ का प्लॉट: उपन्यास में मुसलमानों के गांव जलाने का आह्वान था जबकि असली सन्यासी-फकीर विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों साथ थे।
  • 1937 की कांग्रेस समिति: गांधी, पटेल, बोस, राजेंद्र प्रसाद सभी ने मिलकर वंदे मातरम का कुछ हिस्सा अलग किया था।
  • गांधी का मत: किसी पर कुछ थोपना सही नहीं, नारों का इस्तेमाल डराने-धमकाने के लिए नहीं होना चाहिए।

 

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