रांची, 9 जनवरी (The News Air) भारतीय इतिहास के अध्येता और विद्यार्थी जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंग्रेजी हुकूमत के सबसे क्रूर नरसंहार के रूप में जानते हैं, लेकिन, सच तो यह है कि झारखंड की डोंबारी बुरू पहाड़ी पर अंग्रेजी सेना ने जलियांवाला बाग से भी बड़ा कत्लेआम किया था। आज उसी डोंबारी बुरू नरसंहार की 124वीं बरसी है और इस मौके पर पहाड़ी पर बने शहीद स्तंभ पर सैकड़ों लोगों ने शीश नवाए।
महान आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की अगुवाई में झारखंड के एक बड़े इलाके ने अंग्रेजी राज के खात्मे और ‘अबुआ राज’ यानी अपना शासन का ऐलान कर दिया था। बिरसा मुंडा की यह क्रांति उलगुलान के नाम से जानी जाती है। इससे घबराई सरकार ने 9 जनवरी 1900 को झारखंड के खूंटी स्थित डोंबारी बुरू पहाड़ी पर भीषण कत्लेआम को अंजाम दिया था।
झारखंड में जनजातीय इतिहास के अध्येताओं और शोधकर्ताओं का कहना है कि इस नरसंहार में चार सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे। झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “झारखंड में जलियांवाला बाग जैसी कई वीभत्स घटनाएं इतिहास के पन्नों में खोयी हुई हैं। अमर वीर शहीदों और महान आंदोलनकारियों के संघर्ष और बलिदान से यहां की मिट्टी सनी हुई है। ब्रिटिश शोषकों की ऐसी ही क्रूरता और अत्याचार का गवाह है डोंबारी बुरू, जहां कई लोगों ने अपना अमर बलिदान दिया था। डोंबारी बुरू हत्याकांड के अमर वीर शहीदों की शहादत को शत-शत नमन।”
रांची स्थित ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधार्थी विवेक आर्यन ने भगवान बिरसा मुंडा और अन्य जनजातीय नायकों की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका पर शोध किया है। वह बताते हैं, “बिरसा मुंडा जब स्कूल के छात्र थे, तभी उन्हें यह बात समझ आ गयी थी कि ब्रिटिश शासन के चलते आदिवासियों की परंपरागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है। उन्होंने विरोध की आवाज बुलंद की तो 1890 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्होंने गांव-गांव घूमकर आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना शुरू किया। आदिवासी सरदार उनके नेतृत्व में एकजुट हुए तो अंग्रेजों की पुलिस ने 24 अगस्त 1895 को चलकद गांव से उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इतिहास के दस्तावेजों के अनुसार 19 नवंबर 1895 को भारतीय दंड विधान की धारा 505 के तहत उन्हें दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी।”
30 नवंबर 1897 को जब वे जेल से बाहर आये तो खूंटी और आस-पास के इलाकों में एक बार फिर मुंडा आदिवासी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एकजुट हो गये। बिरसा मुंडा ने 24 दिसंबर, 1899 को उलगुलान का ऐलान कर दिया। घोषणा कर दी गयी कि जल, जंगल, जमीन पर हमारा हक है, क्योंकि यह हमारा राज है। जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में क्रांति यानी उलगुलान की चिंगारियां फैल गईं।
9 जनवरी, 1900 को हजारों मुंडा तीर-धनुष और परंपरागत हथियारों के साथ डोंबारी बुरू पहाड़ी पर इकट्ठा हुए। इधर, गुप्तचरों ने अंग्रेजी पुलिस तक मुंडाओं के इकट्ठा होने की खबर पहले ही पहुंचा दी थी। अंग्रेजों की पुलिस और सेना ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। अंग्रेज बंदूकें और तोप चला रहे थे और बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे।
डोंबारी बुरू के इस युद्ध में हजारों आदिवासी बेरहमी से मार दिये गये। स्टेट्समैन के 25 जनवरी, 1900 के अंक में छपी खबर के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गये थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गयी थी। लाशें बिछ गयी थीं और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ी के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गये, लेकिन, विद्रोही बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए।
इसके बाद 3 फरवरी 1900 को रात्रि में चाईबासा के घने जंगलों से बिरसा मुंडा को पुलिस ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे गहरी नींद में थे। उन्हें खूंटी के रास्ते रांची ले आया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गयी। उन पर मजिस्ट्रेट डब्ल्यू एस कुटुस की अदालत में मुकदमा चला। कहने को बैरिस्टर जैकन ने बिरसा मुंडा की वकालत की, लेकिन, यह दिखावा था। उन्हें रांची जेल में बंद कर भयंकर यातनाएं दी गयीं। एक जून को अंग्रेजों ने उन्हें हैजा होने की खबर फैलाई और 9 जून की सुबह जेल में ही उन्होंने आखिरी सांस ली थी।