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Parliament Disruption का खूनी इतिहास: जब सदन में माइक बने हथियार, 33 विधायक हुए थे घायल

लोकतंत्र के मंदिर में हंगामे की हकीकत, 1993 की हिंसा से लेकर आज तक जनता के पैसों की बर्बादी का पूरा विश्लेषण।

The News Air by The News Air
शनिवार, 6 दिसम्बर 2025
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Parliamentary Disruption India
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Parliamentary Disruption in India : 16 दिसंबर 1993 का वो दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय बनकर दर्ज हो गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में माननीय सदस्य एक-दूसरे पर माइक से हमला कर रहे थे, पूरा सदन रेसलिंग के अखाड़े में तब्दील हो गया था और इस हाथापाई में अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी समेत 33 विधायक घायल हो गए थे। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र चर्चा से चलता है या हंगामे से?


‘वो खौफनाक दिन जब सदन बना अखाड़ा’

मुलायम सिंह यादव ने 4 दिसंबर 1993 को दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और कल्याण सिंह लीडर ऑफ अपोजिशन बने थे। इसके पीछे सपा और भाजपा के बीच एक झगड़ा था जो साल भर पहले बाबरी मस्जिद विध्वंस से चलता आ रहा था। 16 दिसंबर को जैसे ही राज्यपाल मोतीलाल बोरा ने सदन में अपना अभिभाषण शुरू किया, भाजपा के सदस्य कल्याण सिंह की गिरफ्तारी का मामला उठाने लगे जबकि सपा इसका विरोध कर रही थी।

अध्यक्ष ने जब इसकी अनुमति नहीं दी तो भाजपा सदस्य “कल्याण नहीं तो सदन नहीं” का नारा लगाते हुए वेल में आ गए। कागज के गोले अध्यक्ष की तरफ फेंके जाने लगे और राज्यपाल मोतीलाल बोरा अपना अभिभाषण पूरा नहीं कर सके। हंगामा और तेज हुआ और उत्तर प्रदेश विधानसभा के माननीय सदस्य एक-दूसरे को माइक मारने लगे। जो कुछ उसके बाद हुआ वो इतिहास तो बन ही गया।


‘संविधान निर्माता की चेतावनी जो अनसुनी रह गई’

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में एक बात कही थी कि संविधान की सफलता सिर्फ उसके नेचर पर निर्भर नहीं करती बल्कि जो लोग और राजनीतिक दल उसे चला रहे हैं उन पर भी निर्भर करती है। मतलब साफ था कि संविधान तभी बढ़िया ऑपरेट करेगा जब संसद में बैठे माननीय पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठेंगे और संसदीय मूल्यों के तहत काम करेंगे। लेकिन क्या ऐसा होता है? नजर तो कुछ और ही आता है।

73 सालों के संसदीय इतिहास में क्या संसद अपनी पूरी एफिशिएंसी से काम कर रही है? क्या प्रश्नकाल में प्रश्न हो रहे हैं? क्या देश को उत्तर मिल रहे हैं? जो कानून देश के लोगों पर हर रोज असर डालते हैं क्या उन पर जमकर सही बहस हो रही है? क्या सभी पार्टियों और सभी सांसदों को हर वर्ग की बात रखने का बराबर मौका मिल रहा है? सांसद कितने दिन काम कर रही है और सांसद कितने दिन आ रहे हैं? चर्चा में कितना इनवॉल्व हो रहे हैं? इन सवालों के जवाब चौंकाने वाले हैं।


‘135 दिन से घटकर सिर्फ 55 दिन — गिरते आंकड़े’

पहली लोकसभा साल में औसतन 135 दिन बैठी थी जबकि पिछली यानी 17वीं लोकसभा केवल 55 दिन बैठी। पार्लियामेंट डिसरप्शन की बात करें तो 1963 में पहली बार ऐसा देखा गया जब कुछ सदस्यों ने मिलकर लोकसभा की कार्यवाही में हंगामा मचाया। उस समय कुछ सांसदों ने राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जॉइंट सेशन में चल रहे भाषण को बीच में रोका क्योंकि वे चाहते थे कि राष्ट्रपति अंग्रेजी की बजाय हिंदी में अपना भाषण दें। विरोध के बाद सांसद वॉकआउट कर गए और पूरे मामले को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने “फर्स्ट ऑफ इट्स काइंड” और “मोस्ट रिग्रेटेबल” घटना बताया।

जुलाई से अगस्त 2025 के बीच हुए मानसून सत्र में संसद केवल 21 दिन सुचारू रूप से चल पाई और बाकी का दो-तिहाई सत्र स्थगित कर दिया गया। 17वीं लोकसभा जो 2019 से 2024 तक चली इसमें केवल 16% बिल स्टैंडिंग कमेटी को स्क्रूटनी के लिए भेजे गए जबकि 15वीं लोकसभा जो 2009 से 2014 तक चली थी उसमें 71% से ज्यादा बिल स्क्रूटनी के लिए भेजे गए थे।


‘भारतीय संसदीय व्यवस्था कैसे काम करती है?’

संविधान के आर्टिकल 79 ने तय किया कि भारतीय संघ की एक संसद होगी जिसमें एक राष्ट्रपति होंगे और दो सदन होंगे जिनको कहा गया काउंसिल ऑफ स्टेट्स यानी राज्यसभा और हाउस ऑफ पीपल यानी लोकसभा। ऐसे ही राज्यों के लिए आर्टिकल 168 है जहां होते हैं गवर्नर और सदन होता है विधानमंडल। यह होता है दो तरह का — विधान परिषद और विधानसभा।

यहां एक कैच है कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश — ये छह राज्य ऐसे हैं जहां विधानसभा और विधान परिषद दोनों हैं माने द्विसदनीय विधायिका है। एमएलसी के बेटे ने तोड़ा ट्रैफिक रूल — इस तरह की जो खबरें आती हैं वह सिर्फ इन्हीं छह राज्यों से आएंगी क्योंकि बाकी राज्यों में होती है केवल विधानसभा जहां विधायक होते हैं।


‘संसद के तीन सत्र और रोजाना का कामकाज’

देश में संसद समेत विधानमंडल के साल भर में मोटे तौर पर तीन सत्र होते हैं। बजट सत्र जो जनवरी से अप्रैल के बीच होता है, मानसून सत्र जो जुलाई से अगस्त के बीच होता है और तीसरा शीतकालीन सत्र जो नवंबर से दिसंबर तक चलता है। ये कम या ज्यादा हो सकते हैं लेकिन भारतीय संविधान के आर्टिकल 85 के मुताबिक किन्हीं भी दो सत्रों के बीच 6 महीने से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए।

आमतौर पर हर दिन संसद की शुरुआत होती है क्वेश्चन आवर से जिसमें सदस्य मंत्रियों से जरूरी मुद्दों पर सवाल पूछ सकते हैं। उसके बाद आता है जीरो आवर जिसमें बिना नोटिस के जरूरी विषयों पर चर्चा होती है और फिर शुरू होता है एजेंडा ऑफ द डे। लेकिन होता क्या है? “हंगामा, कार्यवाही पहले 2:00 बजे तक के लिए फिर पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई” — ऐसे अपडेट दिखते हैं और दिखता है वॉकआउट या वेल में कूदने जैसे दृश्य।


‘राज्य विधानसभाओं का भी बुरा हाल’

पहला सवाल यह उठता है कि इस सब से क्या सिर्फ संसद के कामकाज में कमी आती है या फिर राज्यों के विधानमंडल भी संसद को ही कंपटीशन दे रहे हैं। 2018 में छपी पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि 2011 से 2017 के बीच स्टेट लेजिस्लेचर हर साल औसतन सिर्फ 26 दिन बैठी।

सबसे ज्यादा विधायकों वाले राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो 1950 से 2017 तक एवरेज सिटिंग डेज गिरते चले गए। 1950 से 60 के बीच हर साल 83 बैठकें हुई थीं जो फिर 2011 से 17 में गिरकर सिर्फ 24 रह गई। 1 जून 2023 को द हिंदू में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 में विधानसभाएं औसतन सिर्फ 21 दिन ही बैठीं और 2016 से राज्यों में बैठकों की संख्या लगातार कम हो रही है। कर्नाटक ने सबसे ज्यादा 45 दिन बैठक की, पश्चिम बंगाल 42 दिन और केरल की विधानसभा 41 दिन बैठी।


‘बिना चर्चा के पास हो जाते हैं बिल’

बिल कानून बनते हैं और कानून तय करते हैं कि सालों साल आपका जीवन कैसे चलेगा। लेकिन जब बैठकों में समय की कमी हो तो सदस्यों को बिलों पर ठीक से तैयारी करने का समय नहीं मिलता। यही नहीं, कई मौकों पर विपक्षी सांसद आरोप लगाते हैं कि उन्हें लिस्ट ऑफ बिजनेस देर से मिलती है। यह वो लिस्ट है जिसमें लिखा होता है कि संसद अगले दिन कौन-कौन से काम करेगी और यह विपक्षी सांसदों को एक दिन पहले शाम को दिया जाता है। वहीं कई मौकों पर बैठक वाले दिन ही दिया जाता है जिससे उन्हें तैयारी का मौका नहीं मिलता।

इसलिए कई बिल बिना जरूरी चर्चा के ही पास हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा के मामले में 2014 से 17 में करीब 60% बिल उसी दिन पास कर दिए गए जिस दिन बिल पेश किए गए थे। जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि लोकतंत्र इस विश्वास पर आधारित है कि खुली चर्चा और आलोचना ही प्रगति के लिए जरूरी है।


‘इतिहास में पहली बार 141 सांसदों का निलंबन’

2023 में संविधान दिवस के मौके पर तब के उपराष्ट्रपति जगदीश धनकड़ ने संसद को लोकतंत्र की आत्मा बताया। लेकिन यह तब हुआ जब चंद दिनों पहले 2023 के ही शीतकालीन सत्र में राज्यसभा से 46 सांसदों को सस्पेंड किया गया था जबकि लोकसभा से 95 सांसद सस्पेंड हुए थे। यह वो मामला है जब 2023 में पार्लियामेंट में हुए सिक्योरिटी ब्रीच के मुद्दे पर विपक्षी सांसद सदन में हंगामा काट रहे थे। इतिहास में पहली बार इस बड़ी संख्या में सांसदों का निलंबन हुआ था।

अब देखिए यहां सवाल यह उठता है कि क्या सदन चलाने की जिम्मेदारी केवल सत्ता पक्ष की है? जवाब है नहीं क्योंकि विपक्ष भी बराबर का जिम्मेदार है। लेकिन बीते कई दशकों में देखा गया है कि विपक्ष में कोई भी पार्टी हो चर्चा कम और हंगामा ज्यादा होता है। अब चाहे अपनी सीट से ही चीखना-चिल्लाना हो, वेल में जाकर हंगामा मचाना हो या फिर स्पीकर की तरफ पेपर उछाल देना।


’15वीं लोकसभा में सबसे ज्यादा डिसरप्शन’

30 दिसंबर 2023 को हिंदू में छपी रिपोर्ट के मुताबिक साल 2004 से 9 के बीच अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे और उन्होंने कहा था कि संसद में बाधा डालने से बचना चाहिए लेकिन अगर संसदीय जवाबदेही को कमजोर किया जा रहा हो तब अपनी आवाज उठाना एक जायज रणनीति है। इसी मौके पर लोकसभा में विपक्ष की नेता रहते हुए सुषमा स्वराज ने कहा था कि संसद को चलने ना देना भी लोकतंत्र का एक तरीका है जैसे बाकी के तरीके।

पिछले 25 साल के आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज्यादा डिसरप्शन 15वीं लोकसभा में हुआ जो 2009 से 2014 के बीच चली। उस समय कांग्रेस सत्ता में थी यानी बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी थी अपने गठबंधनों के साथ। इस दौरान लोकसभा के कुल कामकाज का 50% से ज्यादा हिस्सा डिसरप्शन में चला गया जबकि राज्यसभा में 40% से ज्यादा टाइम डिसरप्ट हुआ जो 2004 से 23 के चार लोकसभा में सबसे ज्यादा है। 15वीं लोकसभा के छठवें सेशन में तो 90% से ज्यादा टाइम डिसरप्शन में चला गया क्योंकि विपक्ष कॉमनवेल्थ गेम्स, 2G स्पेक्ट्रम आवंटन और आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटालों की जांच के लिए जेपीसी यानी जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी की मांग कर रहा था जबकि सत्ता में बैठी यूपीए-2 हर बार की तरह “चीजें सामान्य हैं” कहती रही।


‘2025 मानसून सत्र: 120 घंटे का वादा, 37 घंटे का काम’

2014 के बाद से कांग्रेस विपक्ष की मुख्य पार्टी बनी हुई है लेकिन अपने तजुर्बों से सबक नहीं ले पाई। इसी साल 2025 के मानसून सत्र का हाल देखिए। सेशन की शुरुआत में बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की मीटिंग के दौरान सभी पार्टियों में 120 घंटे संसद को चलाने की बात पर सहमति हुई और बड़ी सारी खबरें बनी थीं। लेकिन सत्र खत्म होने तक लोकसभा में डिबेट और डिस्कशन हुआ सिर्फ 37 घंटे और राज्यसभा में 41 घंटे यानी दो-तिहाई समय डिसरप्शन में गया।


‘टैक्सपेयर्स के करोड़ों का नुकसान’

संसद के कामकाज ठप होने से लोकतांत्रिक सिद्धांत तो कमजोर होते ही हैं लेकिन इसका आर्थिक असर भी पड़ता है। एनडीटीवी की रिपोर्ट बताती है कि संसद चलाने में हर मिनट में लगभग ढाई लाख रुपये का खर्च आता है। 2025 के मानसून सत्र की बात करें तो राज्यसभा के ठप रहने से करीब 10.2 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ जबकि लोकसभा को लगभग 12 करोड़ 83 लाख का नुकसान हुआ। यह जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह सब पैसा टैक्सपेयर्स की ही जेब से जाता है।

लेकिन सिर्फ पैसे का ही अकेला नुकसान नहीं होता बल्कि लोकतंत्र को भी नुकसान होता है। संवैधानिक रूप से जरूरी बजट और नीतियों पर चर्चा रुक जाती है जिसका मतलब होता है कि जनता के सामने उठाए गए मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही नहीं तय हो पाती। पीआरएस की रिपोर्ट बताती है कि अगर संसद का यही हाल रहा तो आम लोगों का इससे मोहभंग हो सकता है क्योंकि संसद उनकी आवाज होती है। संसद जब चलती रहती है तब लोकतंत्र मजबूत रहता है और समय की बर्बादी से लोगों का पूरे सिस्टम पर भरोसा टूटता है।


‘स्टैंडिंग कमेटी को भेजे बिलों में भारी गिरावट’

पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी वो स्थाई समिति होती है जो संसद के सदस्यों से बनती है। इनका काम है सरकार के विभागों में हो रहे कामकाज की निगरानी रखना, उनसे जुड़ी गड़बड़ियों की जांच करना, नए सुझाव देना और नए नियम-कानून का मसौदा यानी ड्राफ्ट तैयार करना। इसके मुख्य काम है बिलों और बजट के मसलों की गंभीरता से समीक्षा करना।

17वीं लोकसभा में सरकार के केवल 16% बिल जांच के लिए इन कमेटियों को भेजे गए जो बीते कई सालों में सबसे कम रहे। 16वीं लोकसभा 2014 से 19 के बीच 27% बिल भेजे गए, 15वीं लोकसभा 2009 से 14 में 71% और 14वीं लोकसभा 2004 से नौ में 60% बिल समितियों को भेजे गए थे। ऐसे में यह दिखता है कि सरकार संसद की प्रक्रिया को मजबूती से अपने हाथ में पकड़े रखना चाहती है जो विपक्ष को कमजोर दिखाता है।


‘संसद में हाथापाई के कुछ और किस्से’

अलग-अलग मौकों पर देश की विपक्षी पार्टियों का सदन को शांति से चलाने का प्रयास देखने को मिला है। 24 नवंबर 2009 को राज्यसभा में सपा नेता अमर सिंह और भाजपा के एसएस अहलूवालिया में हाथापाई हो गई। सदन में बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पेश की जानी थी और जैसे ही गृह मंत्री पी चिदंबरम रिपोर्ट पेश करने उठे, भाजपा सदस्यों ने नारे लगाने शुरू कर दिए। इससे सपा सांसद अमर सिंह भड़क गए और अपने सहयोगियों को लेकर भाजपा के वरिष्ठ सदस्य एसएस अहलूवालिया के पास पहुंचे और कॉलर पकड़ते हुए नजर आए। मामला हाथ से निकलता इसके पहले सहयोगियों ने दोनों को अलग-अलग कर दिया।

5 सितंबर 2012 को राज्यसभा में एससी-एसटी कोटा बिल पेश किए जाने के दौरान बीएसपी सांसद अवतार सिंह और एसपी सांसद नरेश अग्रवाल के बीच हाथापाई हुई। एक मामला गुजरात विधानसभा का भी देखिए जहां 14 मार्च 2018 को क्वेश्चन आवर के बाद कांग्रेस और भाजपा विधायकों ने एक-दूसरे पर थप्पड़ और लात-घूंसे बरसाए। अपशब्द भी बोले गए और एक विधायक ने माइक भी तोड़कर सदस्यों की ओर फेंक दिया।

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ऐसे में ब्रिटेन की संसद जैसा मॉडल अपनाया जा सकता है जहां विपक्ष के लिए खास दिन मनाए जाते हैं जब विपक्ष तय करता है कि उस दिन का एजेंडा क्या होगा। ब्रिटिश पार्लियामेंट साल में करीब 150 दिन काम करती है जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में साल में लगभग 70 दिन ही संसद चलती है। दुनिया भर की संसदों में अपनाई जा रही अच्छी प्रथाओं को हमें भी अपनाना चाहिए। मसलन अमेरिका समेत कई डेवलप्ड डेमोक्रेसीज में सांसदों को अपनी रिसर्च टीम रखने की सुविधा दी जाती है। इसके लिए सरकारें सांसदों को अलग से फंड भी उपलब्ध कराती हैं ताकि उनकी टीम संसद में चल रही बहसों के लिए उनको बेहतर तरीके से तैयार कर सके जिससे बहस की गुणवत्ता बढ़ती है।


‘जानें पूरा मामला’

भारतीय लोकतंत्र की असल ताकत संसद में बसती है लेकिन हाल के सालों में संसद का कामकाज लगातार डिसरप्शन और राजनीतिक टकराव का शिकार हो रहा है। कई दशकों से देश की संसद समेत विधानसभाओं में ऐसे कई मौके आए जिसने कई सवाल खड़े किए। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि “सरकारें आएंगी जाएंगी मगर यह देश रहना चाहिए, उसका लोकतंत्र रहना चाहिए।” यह बताता है कि संसद तभी मजबूत होगी जब सभी राजनीतिक दल यह समझेंगे कि वह जनता के प्रतिनिधि हैं न कि केवल पार्टी पॉलिटिक्स के खिलाड़ी।


‘मुख्य बातें (Key Points)’
  • पहली लोकसभा साल में 135 दिन बैठती थी जबकि 17वीं लोकसभा सिर्फ 55 दिन बैठी। राज्य विधानसभाएं तो और भी बुरे हाल में हैं जहां 2022 में औसतन सिर्फ 21 दिन की बैठक हुई।
  • 17वीं लोकसभा में सिर्फ 16% बिल स्टैंडिंग कमेटी को भेजे गए जबकि 15वीं लोकसभा में 71% बिल भेजे गए थे। यह दिखाता है कि बिना जांच-पड़ताल के कानून बन रहे हैं।
  • संसद चलाने में हर मिनट ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं। 2025 मानसून सत्र में ठप रहने से लोकसभा को 12.83 करोड़ और राज्यसभा को 10.2 करोड़ का नुकसान हुआ।
  • 16 दिसंबर 1993 को यूपी विधानसभा में 33 विधायक घायल हुए थे और 2023 में इतिहास में पहली बार 141 सांसदों का एक साथ निलंबन हुआ।
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