द्वारा अमरजीत झा
बीजेपी की मजबूती और इतने सारे राज्यों में चुनाव जीतने का एक बड़ा कारण है कि वह कांग्रेस के चेहरे को अपना बना लेती है और कांग्रेसी को कांग्रेस के खिलाफ ही खड़ा कर चुनाव जीत जाती है। बहुत सारे राज्यों में ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे, जहां कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए नेता की बदौलत बीजेपी की सरकार बनी और कांग्रेस की सरकार का पतन हुआ।
पंजाब में अभी कांग्रेस की स्थिति ऐसी ही बनी हुई है। जहां सिद्धू के पार्टी में बने रहने को लेकर सशय अभी तक बरकरार है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच पिछले दो साल से खींचतान जारी है, लेकिन अभी तक विवाद सुलझ नहीं पाया है है। अगर यह विवाद और ज्यादा दिन चला तो 2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की राह मुश्किल हो जाएगी। पंजाब की स्थिति देखकर लगता है कि कांग्रेस ने मध्यप्रदेश और राजस्थान में हुए पिछले साल की घटना से कुछ सबक नहीं लिया। मध्यप्रदेश में जहां पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ज्योतिरादित्य सिंधिया को ठिकाना लगाने के चक्कर में अपनी कुर्सी गवां बैठे। भले ही सिंधिया को बीजेपी में कोई बड़ा ओहदा न मिल पाए लेकिन उन्होंने कांग्रेस का काम तमाम कर दिया। कारण था,पहले सिंधिया मुख्यमंत्री के दावेदार थे। फिर उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष पद की मांग की, नहीं मिला। अंत में राज्यसभा की सीट मांगी, तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने उसमें भी पंगा खड़ा कर दिया।
उस सीट पर प्रियंका गांधी का नाम उछाल दिया गया। उसके बाद कांग्रेस के 22 विधायकों के साथ सिंधिया ने बीजेपी का दामन थाम लिया और प्रदेश में 15 साल बाद बनी कांग्रेस की सरकार की लुटिया डुबो दिया। राजस्थान में भी सचिन पायलट को साइडलाइन करने के चक्कर में पिछले साल गहलोत सरकार बाल-बाल बच गई। वहां भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच शीत युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई थी। उपमुख्यमंत्री होने के बावजूद पायलट की बात अधिकारी नहीं सुनते थे और सरकार में भी उन्हें खास तवज्जो नहीं दी जा रही थी। उन्होंने आलाकमान से भी इसकी शिकायत की लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। फिर भयंकर ड्रामेबाजी हुई, होटलबाजी हुई। लेकिन उन्होंने समझदारी का परिचय देते हुए फिर से कांग्रेस में वापस होने का फैसला किया।
कांग्रेस शायद आजतक इस बात को नहीं समझ सकी कि उसका संगठन नेताओं के साथ जुड़ा है। कांग्रेस का संगठन कभी से मजबूत नहीं रहा है और न ही उसने आज तक इस समस्या से निजात पाने के लिए कोई ठोस प्रयास किया। नेता के पाला बदलने के बाद उसके ढ़ेर सारे कार्यकर्ता भी पाला बदल लेते हैं और पार्टी छोड़ने वाले नेता के साथ चले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि पार्टी उस जगह पर काफी कमजोर हो जाती है और चुनाव हार जाती है। दो-चार उदाहरण से आप इसे समझ सकते है।
मध्यप्रदेश में सिंधिया के बीजेपी में जाने के बाद हुए उपचुनाव में 19 में से 13 सिंधिया समर्थक उम्मीदवार दोबारा जीत गए। 2019 में कर्नाटक में कांग्रेस के 13 विधायक और जेडीएस के 5 विधायक टूट कर बीजेपी में शामिल हो गए, जिसके कारण कुमारस्वामी के नेतृत्व में बनी कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिर गई। उसके बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में गए 13 में से 11 विधायक दोबारा चुनाव जीत गए और येदुरप्पा की सरकार बनी रह गई।
इसी तरह का हाल असम और उत्तराखंड में भी कांग्रेस के साथ हुआ। उत्तराखंड में कांग्रेस ने 2014 में विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटाकर हरीश रावत को बना दिया। जिससे नाराज होकर बहुगुणा ने पार्टी छोड़ दी। उत्तराखंड में दो जाति की प्रमुखता है। पहले क्षत्रिय फिर ब्राह्मण। बहुगुणा ब्राह्मण हैं और रावत राजपूत। विजय बहुगुणा खानदानी कांग्रेसी थे। उनके पिता हेमवत नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मुख्यमंत्री रह चुके थे। ब्राह्मण समुदाय के बीच बहुगुणा परिवार की काफी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता है।
बहुगुणा के पार्टी छोड़ने के बाद ब्राह्मण वोट बीजेपी की तरफ चला गया और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तराखंड के 70 सीटों में से 57 सीटें जीत ली। यही नहीं, बहुगुणा के कारण उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी को फायदा हुआ। विजय बहुगुणा की बहन रीता बहुगुणा जोशी भी कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गई, जिससे बीजेपी को यूपी में ब्राह्मण वोटों को एकजुट रखने में मदद मिली।
इसी तरह असम में हेमंत विश्व शर्मा के कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जाने के बाद कांग्रेस की तरुण गोगोई सरकार 2016 में सत्ता से बाहर हो गयी। 2011 के असम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत में हेमंत विश्व शर्मा ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इसके बावजूद कांग्रेस में उन्हें खास तवज्जो नहीं मिली। राजस्थान, मध्य प्रदेश और पंजाब की तरह ही वहां उनका विवाद उस समय के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के साथ चल रहा था और पार्टी नेतृत्व ने विवाद सुलझाने के लिए कुछ नहीं किया। पार्टी छोड़ने के लिए उन्होंने राहुल गांधी को जिम्मेदार बताया। शर्मा ने राहुल गांधी पर आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने राहुल गांधी से 8 बार मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें समय नहीं दिया गया।
राहुल गांधी अपने कुत्ते के साथ खेलते रहे लेकिन हमसे नहीं मिले। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कांग्रेस का इतना दयनीय हाल कैसे हुआ। इस समस्या का दो ही उपाय है। पहला, कांग्रेस अपना संगठन मजबूत करे। दूसरा, अपने नेताओं को संभाल कर रखे और गुटबाजी को रोके।
पंजाब कांग्रेस का हाल बिल्कुल मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसा ही है। यहां भी एक तरफ कमलनाथ और गहलोत की तरह अनुभवी और राजनीति के माहिर खिलाड़ी अमरिंदर सिंह हैं, तो दूसरी तरफ कम अनुभवी लेकिन लोगों के बीच काभी लोकप्रय नेता नवजोत सिंह सिद्धू है। जिस तरह सिंधिया मध्यप्रदेश में और पायलट राजस्थान में युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं। उसी तरह नवजोत सिद्धू पंजाब के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं और लोग उन्हें काफी पसंद करते हैं। लेकिन यहां भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिंधिया और पायलट वाला हाल ही सिद्धू का किया है। पहले उन्होंने सिद्धू को ठिकाना लगाने की नीयत से उनका विभाग बदल दिया।
जिससे नाराज होकर सिद्धू ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। फिर 2019 लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पत्नी नवजोत कौर के लिए टिकट मांगा, लेकिन नहीं मिला। उसके बाद से वे राजनीतिक रूप लगभग खामोश है। भले ही सिद्धू अभी यह बोल रहे हैं कि वे पार्टी के प्रति वफादार हैं। लेकिन हकीकत ये है कि बंगाल चुनाव में स्टार प्रचारक बनाए जाने के बावजूद वो अभी तक बंगाल नहीं गए हैं। और वैसे भी अब राजनीति में नेताओं की बातों का कोई भरोसा नहीं है।
कैप्टन अमरिंदर सिंह, सिद्धू की अहमियत को नजरअंदाज कर रहे हैं। वे पंजाब में कांग्रेस पर अपना एकतरफा प्रभुत्व जमाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। लेकिन सच्चाई ये है कि अगर 2017 के चुनाव में सिद्धू आम आदमी पार्टी का मुख्यमंत्री पद का चेहरा होते तो शायद पंजाब में आज ‘आप’ की सरकार होती। सिद्धू के कांग्रेस में आने के बाद ही चुनाव का समीकरण बदला था और कांग्रेस को बहुमत मिला था। नवजोत सिद्धू को अभी भी पंजाब के लोग एक अच्छा मुख्यमंत्री का चेहरा मानते हैं। इसीलिए सिद्धू की राजनितिक छवि वर्तमान में भी बरकरार है, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह की छवि अपने चुनावी वादे पूरा न करने के कारण काफी कमजोर हुई है। इसके अलावा उनपर राजसी ठाठ-बाट और आलसी होने का भी आरोप लगता रहता है। इसका अंदाजा शायद कैप्टन अमरिंदर सिंह को नहीं है।
2022 में कांग्रेस को पंजाब विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सिद्धू क साथ रहना बहुत जरूरी है। लेकिन सिद्धू तभी साथ रह सकते हैं जब शीर्ष नेतृत्व कैप्टन के साथ उनकी सुलह कराए और उन्हें भविष्य का कोई ठोस आश्वासन दे। लेकिन अगर दोनों में सुलह नहीं हो पाया और आने वाले दो-चार महीने में कहीं सिद्धू आम आदमी पार्टी में चले गए, जहां अरविंद केजरीवाल गिद्ध दृष्टि से एक अच्छे मुख्यमंत्री चेहरे की तलाश में है, तो दोबारा सत्ता में आने की प्रबल संभावना के बावजूद कांग्रेस को बाकी राज्यों की तरह सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है।