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Home Breaking News

मुसलमानों को है बेरुखी का डर…

पढ़िए CSDS के प्रोफेसर और लेखक हिलाल अहमद का इंटरव्यू

The News Air Team by The News Air Team
शनिवार, 20 जुलाई 2024
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मुसलमानों को है बेरुखी का डर…
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20 जुलाई (The News Air): सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का हक है। इसे लेकर लोगों में बहस हो रही है। लेकिन मुस्लिम समाज यहीं तक नहीं है। CSDS के प्रो. हिलाल अहमद की इसी महीने मुस्लिम समाज के वर्तमान पर ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ प्रेजेंट: मुस्लिम्स इन न्यू इंडिया’ किताब आई है। इस किताब और मुस्लिम समाज के हालात पर उनसे बात की राहुल पाण्डेय ने। पेश हैं बातचीत के अहम अंश :

सवाल: मुस्लिम महिलाओं के गुजारा-भत्ता पाने के अधिकार को लेकर हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में आपकी क्या राय है?
जवाब: मैं निजी रूप से इस फैसले का स्वागत करता हूं। मेरा मत है कि लैंगिक समानता का कानूनी तौर पर सार्वभौमिक होना सामाजिक न्याय की स्थापना की पहली शर्त है। मेरी यह निजी राय है, जिसकी अपनी सीमा है। इस विषय पर अभी काफी शोध होना बाकी है, तभी हम इस फैसले के सामाजिक प्रभावों पर विधिवत टिप्पणी करने की स्थिति में होंगे।

सवाल: आपने इस विषय पर काम भी तो किया है। क्या उससे कोई रोशनी नहीं निकलती?
जवाब:
मैंने इस विषय पर 2021 में एक पुस्तक का संपादन किया था। तब से अब तक काफी चीजें बदल गई हैं। मेरी नई पुस्तक इस विषय को सीधे संबोधित नहीं करती है। वह मुस्लिम सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को देखने का नजरिया देने की कोशिश करती है।

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सवाल: किताब का पहला अध्याय एक रिसर्चर की मुस्लिम पहचान के सवाल को लेकर शुरू होता है..
जवाब:
मेरा मानना है कि व्यक्ति की केवल एक पहचान नहीं होती। एक ही समय में अपनी कई सारी पहचानों के साथ हम जिंदा रहते हैं। इसलिए जरूरी है कि इन सभी पहचानों के बीच तारतम्य देखा जाए। एक समुदाय विशेष पर रिसर्च कर रहे शोधार्थी के लिए जरूरी है कि वह उस समाज से एक उसूली दूरी बना कर रखे, उस समाज के प्रति बौद्धिक आलोचनात्मक रवैया रखे और अपनी रिसर्च प्रक्रिया को अपने पाठकों के सामने ईमानदारी से प्रस्तुत करे।

सवाल: किताब में मुस्लिम राजनीति की एक जटिल तस्वीर पेश की गई है। ऐसा क्यों?
जवाब:
मुस्लिम राजनीति का संबंध सिर्फ मुसलमानों से नहीं है। हिंदुत्व की राजनीति भी एक तरह से मुस्लिम राजनीति का ही एक स्वरूप है। दुर्भाग्यवश हमारा सार्वजनिक विमर्श इतना विभाजित है कि इसमें रोजमर्रा की राजनीति की बात निकल सी गई है। मुस्लिम राजनीति अपने आप में बहुआयामी है। मुसलमानों में लोकतंत्र और संविधान के लिए जबरदस्त उत्साह है, वे राज्य से मिलने वाली कल्याणकारी योजनाओं के प्रति सकारात्मक रवैया रखते हैं। लेकिन वे इस बात से आशंकित है कि राजनीतिक वर्ग उन्हें लेकर पूरी तरह से उदासीन हो गया है। एक ओर BJP है जो सबका साथ सबका विकास की बात करके मुस्लिम पहचान पर सीधे बात करने से परहेज करती है। दूसरी ओर अन्य दल मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी बनाए रखना चाहते हैं ताकि उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण का इल्जाम न लगे। इस उदासीनता के बावजूद मुस्लिम समुदायों में राजनीतिक विश्वास बना हुआ है। भारतीय लोकतंत्र की इसी ताकत को मैंने उजागर करने की कोशिश की है। यहां मैं यह बात साफ कर देना चाहता हूं कि मुस्लिम राजनीति की यह जटिल तस्वीर मेरी अपनी कल्पना से नहीं निकली है, यह मेरे पिछले पांच वर्षों के शोध और सर्वेक्षणों का परिणाम है।

सवाल: आपकी किताब हिंदुत्व संविधानवाद की बात करती है। इसे जरा समझाएंगे?
जवाब:
जहां तक हिंदुत्व संविधानवाद का सवाल है, यह एक राजनीतिक अवधारणा है। इसका इस्तेमाल मैंने हिंदुत्ववादी राजनीति और उसके संविधान के प्रति रुझान को समझने के लिए किया है। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि संविधानवाद के मूल रूप से दो अर्थ होते हैं। अपने पहले अर्थ में संविधानवाद राज्य और नागरिकों के आपसी रिश्तों को तय करने वाली अवधारणा है। लेकिन संविधानवाद का एक राजनीतिक अर्थ भी है। सभी राजनीतिक दल भारत के संविधान को अपने नजरिए से परिभाषित करते हैं। BJP ने भी लगभग ऐसा ही किया है। BJP का संविधानवाद इस बात पर जोर देता है कि हम संविधान के उसूलों और उसमें वर्णित नियमों, कानूनों और उपनियमों में फर्क करें। यह संविधानवाद स्वतंत्रता समानता और सामाजिक न्याय जैसे उसूलों पर बात नहीं करता, बल्कि संविधान को कानून की पवित्र किताब बता कर नागरिकों को उसके प्रति कर्त्तव्य परायण होने के लिए प्रेरित करता है। संविधान की यह व्याख्या ‘नए भारत’ के विचार से निकलती है। मेरी किताब हिंदुत्व संविधानवाद के विशेष संदर्भ में मुस्लिम राजनीति को समझने की कोशिश है।

सवाल: आपकी किताब का अंत फिल्म ‘गर्म हवा’ के एक दृश्य से होता है। इसके पीछे क्या तर्क है?
जवाब:
मेरा मानना है कि राजनीतिक वर्ग और बौद्धिक वर्ग ने अच्छे भविष्य का सपना देखना छोड़ दिया है। हम कहीं ना कहीं वर्तमाननिष्ठ हो गए हैं। भविष्य की बात करने वाले लोगों को महज लफ्फाजी करने वाला माना जाने लगा है। योगेंद्र यादव ने पिछले कुछ वर्षों में एक नई अवधारणा का प्रतिपादन किया है जिसे वह भारत का स्वधर्म कहते हैं। उनका मत है कि पश्चिमी राजनीतिक विचार जैसे लोकतंत्र, विविधता और विकास भारतीय संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित हुए हैं। भारत के इस विशिष्ट स्वधर्म को राजनीति में एक अवधारणा के रूप में लाने की सख्त जरूरत है। यह विचार हमें प्रेरित करता है कि हम विविधता, विकास और लोकतंत्र तीनों को जोड़कर देखें और इस बात का विश्लेषण करें कि भारत के मुस्लिम समुदाय के लिए भारत का स्वधर्म क्या है। इसी संदर्भ को लेते हुए मैंने अपनी किताब का अंत गर्म हवा फिल्म के उस दृश्य से किया है जब सिकंदर मिर्जा (जिसकी भूमिका फारुख शेख ने निभाई है), पाकिस्तान जाने के बजाय बेरोजगारी के लिए संघर्ष कर रहे नौजवानों की रैली में शामिल हो जाता है। प्रतीकात्मक रूप से यह दृश्य हमें बताता है कि मुसलमान के सवाल देश के सवाल हैं और देश के सवाल मुसलमान के सवाल हैं। भारत में सामाजिक न्याय का अर्थ मुसलमान को न्याय मिलना है और मुसलमान को न्याय मिलने का अर्थ भारत के स्वधर्म की राजनीतिक अभिव्यक्ति है।

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