कलकत्ता हाई कोर्ट के जज पद पर रहते हुए ममता सरकार के भ्रष्टचार के मामलों में सख्त फैसले देने वाले जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय इस्तीफा दे चुके हैं। वो अब बीजेपी में शामिल होने वाले हैं। उन्होंने इसका ऐलान कर दिया है। सवाल है कि क्या उनके बीजेपी में जाने से ममता की पार्टी टीएमसी को लोकसभा चुनावों में झटका लग सकता है?
गंगोपाध्याय ने कहा है कि अपनी नई पारी के लिए भाजपा को चुनने का आधार साझी आस्था थी। उन्होंने अपने विकल्पों से माकपा को बाहर कर दिया क्योंकि वह धर्म को महत्व नहीं देता। अगर पूर्व जज इस बात पर अड़े रहते कि भाजपा वह पार्टी है जो लोगों के लिए काम करती है या वह भारत के विकास के उस दृष्टिकोण को साझा करते हैं जिसे मोदी लागू कर रहे हैं, तो उनकी राजनीति और चुनावी राजनीति में प्रवेश को समझना आसान होता।चुनाव का मकसद यह तय करना है कि कौन सी राजनीतिक पार्टी मतदाताओं की आकांक्षाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकती है।
संभवतः धार्मिक संबद्धता को विजन और गवर्नेंस के बराबर रखकर फैसला करना परेशान करने वाला है जैसा कि जस्टिस गंगोपाध्याय ने किया है। अगर वो अपनी धार्मिक निष्ठा पर मौन रहकर उसे अपनी राजनीति में नहीं मिलाते तो संवैधानिक मूल्यों की प्रतिष्ठा बढ़ा सकते थे। यह ऐसी प्रतिबद्धता है जिसके प्रति उन्होंने जज बनने के समय आस्था प्रकट की होगी। अगर वो संसद के लिए चुने जाते हैं तो उन्हें यही दोहराना चाहिए।भाजपा नेतृत्व निश्चित रूप से उनकी भूमिका को स्पष्ट करेगा। हालांकि आगामी लोकसभा चुनाव में उन्हें उम्मीदवार बनाए जाने की भररपूर उम्मीद है। वो न्यायपालिका के उच्च पदों से चुनाव प्रचार की गहमागहमी वाले माहौल में कैसे स्विच करते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि उनके पिछले और नए पेशे के नियम बहुत अलग हैं। चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक व्यवस्था की मांगें लगातार बनी रहती हैं। नए राजनेता खुद को चुनावी मांगों के अनुरूप तुरंत ढाल लें, ऐसा कम ही हो पाता है। कुछ ने ऐसा जरूर कर दिखाया है, जैसे पूर्व राजनयिक शशि थरूर। लेकिन कई गुमनामी के अंधेरे में खो गए।उनकी पसंद की पार्टी जब तक पुष्टि नहीं करेगी कि गंगोपाध्याय को कहां-कैसे तैनात किया जाएगा, तब तक अटकलों का बाजार गर्म रहेगा। हालांकि, पश्चिम बंगाल की राजनीति और खासकर ममता बनर्जी और टीएमसी नेतृत्व की विश्वसनीयता पर उनके फैसले के प्रभाव के बारे में कोई संदेह नहीं है। संदेशखाली की घटनाओं के ठीक बाद गंगोपाध्याय के इस्तीफे से ममता सरकार सबसे खराब स्थिति में आ गई है। यह इस धारणा को मजबूत करता है कि सीएम ममता बनर्जी के वादों से उनकी सरकार की कारगुजारियां बिल्कुल अलग हैं ।
ममता मां, माटी, मानुष के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने के वादे के साथ जीत हासिल करके सत्ता में आईं। उन्होंने परिवर्तन का वादा किया था, लेकिन संदेशखाली कांड और शिक्षक भर्ती घोटाले ने उनकी सरकार की पोल खोल दी। जस्टिस गंगोपाध्याय की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही भ्रष्टाचार का जाल उजागर करने का आदेश दिया था। वो बड़े पैमाने का घोटाला था, जिसने लोगों का खून चूसकर टीएमसी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को लाभ पहुंचाया। इसने राजनीतिक व्यवस्था और उसके सपोर्ट सिस्टम पर गंभीर प्रश्न चिह्न लगा दिया।
शिक्षक भर्ती घोटाले के जरिए सामने आई सत्ता के दुरुपयोग और इससे उपजे कैश कलेक्शन रैकेट से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कलेक्टर और उसका नेटवर्क राजनीतिक संगठन को चलाने के लिए जरूरी हैं। राजनीतिक दलों को अपना संगठन चलाने के लिए अकूत धन की जरूरत होती है, इस घोटाले ने यह भी उजागर किया है। प. बंगाल का शिक्षक भर्ती घोटाला राजनीतिक दलों की इसी जरूरत की पूर्ति का एक रास्ता दिखता है। जब तक खातों को सार्वजनिक रूप से साझा नहीं किया जाता है, तब तक चुनावी बॉन्ड को भी दूसरा रास्ता ही माना जाएगा। दोनों समान रूप से अपारदर्शी हैं।जनता की राय गंगोपाध्याय के जज के रूप में किए गए कार्यों और तुरंत राजनीति में शामिल होने को लेकर कैसी होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह तो तय है कि आगामी चुनाव में वो भाजपा के लिए एक शुभंकर होंगे, जब पार्टी प. बंगाल की कुल 42 में से कम से कम 17 लोकसभा सीटें जरूर जीतने के लिए कमर कस रही है ताकि प्रदेश के पार्टी सांसदों का मौजूदा संख्या बल कायम रहे।उम्मीद के मुताबिक यदि गंगोपाध्याय चुनाव में उम्मीदवार के रूप में खड़े किए जाते हैं तो निश्चित रूप से सबकी निगाहें उन पर होंगी। जिन लाखों लोगों ने पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती परीक्षा दी लेकिन घुसखोरी के कारण शॉर्टलिस्ट नहीं हो पाए थे, उनके लिए तो जस्टिस गंगोपाध्याय सत्यनिष्ठा र न्याय के प्रतीक हैं।