Bihar Tea Farming का नाम सुनते ही अक्सर लोगों के जेहन में दार्जिलिंग या असम की पहाड़ियों की तस्वीर आती है, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बिहार के किशनगंज में भी अब बड़े पैमाने पर चाय की खेती हो रही है। यहां के किसान Labor की कमी, मशीनों से होने वाले नुकसान और ‘लूपर’ जैसे खतरनाक कीड़ों की चुनौतियों के बीच आपके सुबह की चाय का इंतजाम कर रहे हैं।
3 साल का इंतजार और 45 दिन का चक्र
चाय की खेती कोई आसान काम नहीं है। किशनगंज के एक चाय बागान के Owner आकाश भगत बताते हैं कि एक चाय के पौधे को छोटा से बड़ा करने में और उससे पत्तियां तोड़ने लायक बनाने में पूरे 3 साल का Waiting Period लगता है। जैसे एक बच्चे को बड़ा किया जाता है, वैसे ही इन पौधों की देखभाल करनी पड़ती है।
एक बार पौधा तैयार हो जाने पर, सबसे बेहतरीन Quality की चाय ‘थ्री लीफ’ (तीन पत्तियां) मानी जाती है। मौसम के हिसाब से अप्रैल, मई और जून का महीना चाय की खेती के लिए सबसे Best Season होता है, जब उत्पादन अपने Peak पर रहता है। एक सीजन में करीब 7 बार पत्तियां तोड़ी जाती हैं और हर Round लगभग 45 दिनों का होता है।
मजदूरों की कमी ने बढ़ाई मशीनों पर निर्भरता
बागानों में काम करने वाले हजूर आलम बताते हैं कि अब पत्तियों की Plucking (तोड़ाई) हाथ से नहीं, बल्कि मशीनों से हो रही है। इसका मुख्य कारण Labor की भारी कमी है। जो काम हाथ से करने में दो दिन लगते थे, मशीन उसे मात्र 2 से 3 घंटे में पूरा कर देती है।
हालांकि, मशीन के इस्तेमाल का एक काला सच भी है। मशीन का वजन करीब 30 से 40 किलो होता है, जो पौधों के ऊपर से गुजरता है। इस वजन से पौधे हिल जाते हैं और उनमें Fungus लगने का डर रहता है। कई बार मशीन के दबाव से पौधे एक-दो साल में सूखकर मर भी जाते हैं।
किसानों की कमाई और ‘लूपर’ का आतंक
कमाई की बात करें तो 5 मजदूरों की एक टीम दिन भर में मशीन से करीब 2000 से 3000 किलो पत्तियां तोड़ लेती है। तेल का खर्च निकालकर एक टीम दिन में लगभग 4500 रुपये कमाती है, यानी एक मजदूर के हिस्से में औसतन 800 रुपये प्रतिदिन आते हैं। कच्ची पत्ती का भाव करीब 2.5 रुपये प्रति किलो मिलता है।
लेकिन इन बागानों में एक बड़ा दुश्मन भी है—’लूपर’ (Looper)। यह एक ऐसा कीड़ा है जो पत्तियों को पूरी तरह खा जाता है। अगर सही समय पर Pesticide नहीं डाला गया, तो यह कीड़ा 40 दिनों की मेहनत को महज दो दिनों में चट कर सकता है, जिससे बागान मालिकों को भारी नुकसान होता है।
बिहार चाय उत्पादन में 5वें नंबर पर
भारत दुनिया में चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जहां हर साल 64 करोड़ किलोग्राम से ज्यादा चाय का उत्पादन होता है। इसमें से 81% चाय देश के भीतर ही खप जाती है। असम, दार्जिलिंग, नीलगिरी और केरल के बाद अब बिहार चाय उत्पादन में 5वें नंबर पर आ गया है। अकेले किशनगंज में करीब 10,000 हेक्टेयर जमीन पर चाय की खेती हो रही है।
जानें पूरा मामला
बिहार के किशनगंज जिले में चाय की खेती तेजी से फैल रही है। वैज्ञानिक रूप से ‘कैमेलिया साइनेंसिस’ (Camellia sinensis) कहे जाने वाले चाय के पौधों से पत्तियां तोड़कर फैक्ट्री में भेजी जाती हैं, जहां उनकी Weathering और Cutting होती है। हालांकि, आधुनिक मशीनों के इस्तेमाल और कीटों के प्रकोप ने यहां के किसानों के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।
मुख्य बातें (Key Points)
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बिहार का किशनगंज चाय उत्पादन का नया गढ़ बन गया है, राज्य उत्पादन में 5वें स्थान पर है।
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चाय के पौधे को तैयार होने में 3 साल लगते हैं, अप्रैल-जून सबसे अच्छा सीजन है।
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लेबर की कमी के कारण मशीनों का उपयोग बढ़ा है, जिससे पौधों को नुकसान हो रहा है।
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‘लूपर’ नामक कीड़ा चाय बागानों के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है।






