Vande Mataram Lok Sabha Debate: लोकसभा में वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने पर जो बहस हुई, वह इस महान गीत को समृद्ध करने वाली कहीं से नहीं थी। हर भाषण एक दूसरे को टारगेट कर रहा था जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री मोदी कर रहे थे। लेकिन जब प्रियंका गांधी ने तथ्यों के साथ जवाब दिया तो पता चला कि कांग्रेस को घेरने के क्रम में वंदे मातरम के इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश हो रही है।
प्रधानमंत्री मोदी ने क्या आरोप लगाया?
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में वंदे मातरम के अंतरों को काटने को भारत के विभाजन से जोड़ा। उन्होंने कहा कि वो कौन सी ताकत थी जिसकी इच्छा खुद पूज्य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई। उन्होंने 1937 की कांग्रेस कार्य समिति के फैसले पर निशाना साधा और कहा कि कांग्रेस मुस्लिम लीग के आगे झुक गई।
प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू के उस पत्र का जिक्र किया जो उन्होंने नेताजी बोस को लिखा था। उन्होंने कहा कि 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी को चिट्ठी लिखी कि वंदे मातरम पर चर्चा होनी चाहिए।
प्रियंका गांधी ने कैसे किया जवाब?
प्रियंका गांधी ने एक तथ्य सामने रखा। उन्होंने कहा कि जन गण मन भी एक लंबी कविता का हिस्सा है। मूल कविता में पांच अंतरे हैं लेकिन पहला अंतरा ही गाया जाता है जो 52 सेकंड का होता है। तो ऐसा नहीं कि केवल वंदे मातरम का ही अंतरा छोटा किया गया है। हमारा राष्ट्रगान भी एक कविता का एक अंश ही है।
प्रियंका ने पूछा कि अगर वंदे मातरम के अंतरे काटने से अपमान हुआ तो क्या किसी दिन बीजेपी यह भी मुद्दा बनाएगी कि जन गण मन की पूरी कविता स्वीकार नहीं की गई?
वो चिट्ठी जो प्रधानमंत्री ने नहीं पढ़ी
प्रियंका गांधी ने याद दिलाया कि जो पत्र प्रधानमंत्री मोदी ने पढ़ा, उससे 3 दिन पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू को पत्र लिखा था। 17 अक्टूबर 1937 को नेताजी ने लिखा था कि “माय डियर जवाहर, रेफरेंस वंदे मातरम, वी शैल हैव अ टॉक इन एंड आल्सो डिस्कस द क्वेश्चन इन द वर्किंग कमेटी इफ यू ब्रिंग इट अप देयर। आई हैव रिटन टू डॉ. टैगोर टू डिस्कस दिस मैटर विद यू व्हेन यू विजिट शांतिनिकेतन।”
यानी नेताजी खुद चाहते थे कि इस पर कार्य समिति में चर्चा हो। प्रधानमंत्री ने इस चिट्ठी का जिक्र क्यों नहीं किया?
नेहरू की चिट्ठी में और क्या लिखा था?
प्रियंका ने बताया कि 20 अक्टूबर की जिस चिट्ठी की एक पंक्ति प्रधानमंत्री ने सुनाई, उसकी बाकी पंक्तियां क्यों नहीं सुनाईं? नेहरू ने लिखा था कि “देयर इज नो डाउट दैट द प्रेजेंट आउटक्राई अगेंस्ट वंदे मातरम इज टू अ लार्ज एक्सटेंट अ मैन्युफैक्चर्ड वन बाय द कम्युनलिस्ट्स।”
नेहरू ने आगे लिखा था कि “व्हाटएवर वी डू, वी कैन नॉट पैंडर टू कम्युनलिस्ट फीलिंग्स। बट टू मीट रियल ग्रीवेंसेस वेयर दे एग्जिस्ट।” यानी नेहरू सांप्रदायिक भावनाओं के आगे झुकने की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि असली शिकायतों को समझने की बात कर रहे थे।
टैगोर ने क्या राय दी थी?
नेहरू कोलकाता गए और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से मिले। उसके अगले दिन गुरुदेव ने एक चिट्ठी लिखी जिसमें उन्होंने कहा कि जो दो अंतरे हमेशा गाए जाते थे, उनका महत्व इतना गहरा था कि उस हिस्से को कविता के शेष हिस्से तथा पुस्तक के उन अंशों से अलग करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं थी।
टैगोर ने यह भी कहा कि स्वतंत्रता संग्राम में हमेशा से वही दो अंतरे ही गाए जाते थे और उनको गाते हुए कुर्बानी देने वाले सैकड़ों शहीदों के सम्मान के लिए उन्हें ऐसे ही गाना उचित रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि बाद में जोड़े गए अंतरों का सांप्रदायिक मायना निकाला जा सकता है और उस समय के माहौल में उनका इस्तेमाल अनुचित होगा।
1937 की कार्य समिति में कौन-कौन थे?
28 अक्टूबर 1937 में कांग्रेस की कार्य समिति ने अपने प्रस्ताव में वंदे मातरम को राष्ट्रगीत घोषित किया, उन्हीं दो अंतरों को। कार्य समिति की बैठक में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पंडित नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, सरदार पटेल, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर सब मौजूद थे। ये सभी महापुरुष इस प्रस्ताव से सहमत थे।
प्रियंका ने पूछा कि क्या सत्ता पक्ष के साथी इतने अहंकारी हो गए हैं कि अपने आप को महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, राजेंद्र प्रसाद, बाबा साहब अंबेडकर, मौलाना आजाद, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस से बड़ा समझने लग गए हैं?
संविधान सभा ने भी वही दो अंतरे चुने
भारत की आजादी के बाद जब इसी गीत के इन्हीं दो अंतरों को 1950 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में भारत का राष्ट्रगीत घोषित किया, तब लगभग यही महापुरुष मौजूद थे। इनके साथ-साथ बी.आर. अंबेडकर भी सभा में थे और सत्ता पक्ष के नेता श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी मौजूद थे।
वही दो अंतरे राष्ट्रगीत घोषित किए गए। किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई।
वंदे मातरम की असली क्रोनोलॉजी क्या है?
प्रियंका गांधी ने वंदे मातरम की पूरी क्रोनोलॉजी बताई। 1875 में महाकवि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत के पहले दो अंतरे लिखे जो आज हमारा राष्ट्रगीत है। 1882 में सात साल बाद उनका उपन्यास आनंदमठ प्रकाशित हुआ और उसमें यही कविता प्रकाशित हुई, लेकिन इसमें चार अंतरे जोड़ दिए गए।
1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने पहली बार यह गीत गाया। प्रियंका ने टोका कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह नहीं बताया कि यह कौन सा अधिवेशन था, क्योंकि वह कांग्रेस का अधिवेशन था।
1905 में बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन के समय वंदे मातरम जनता की एकता की गुहार बनकर गली-गली से उठा।
आरएसएस पर उठे सवाल
बहस में आरएसएस और हिंदू संगठनों की आजादी की लड़ाई में भूमिका पर भी सवाल उठे। पूछा गया कि आरएसएस ने कई दशकों तक तिरंगा क्यों नहीं फहराया? जन गण मन क्यों नहीं गाया? आरएसएस और हिंदू संगठनों का आजादी की लड़ाई में क्या योगदान था? आरएसएस ने संविधान का विरोध क्यों किया?
विपक्ष की तरफ से कहा गया कि जिन्होंने आजादी के आंदोलन में भाग ही नहीं लिया है, वो वंदे मातरम का महत्व क्या जानेंगे? सच तो यह है कि सरफरोश लोग वंदे मातरम दिल से बोलते थे। उन आजादी के दीवानों के खिलाफ कुछ लोग अंग्रेजों के लिए जासूसी और मुखबरी का भी काम करते थे।
अखिलेश यादव ने भाव की बात कही
अखिलेश यादव ने कहा कि कोई सही गा सकता है, कोई गलत भी गा सकता है, कोई पढ़ तक नहीं सकता, कोई वंदे मातरम का अर्थ तक नहीं जान सकता। मगर जो भाव है उसे कोई नहीं रोक सका वंदे मातरम को लोकप्रिय होने से।
उन्होंने कहा कि वंदे मातरम एक भाव के रूप में हमारे अंदर बसा है। चाहे उसके शब्द ना याद हों, चाहे अर्थ ना मालूम हो, चाहे पूरा याद ना हो, उस सच्चे भारतीय के अंदर देश प्रेम की भावना जगाने के लिए इसके दो शब्द ही काफी हैं।
12 साल में पूरा वंदे मातरम क्यों नहीं गवाया?
एक अहम सवाल यह भी उठा कि 2014 से प्रधानमंत्री मोदी ने कई गाने बनवाए अपनी योजनाओं के प्रचार के लिए। 12 साल में क्या उन्हें याद नहीं आया कि एक बार वंदे मातरम को पूरा गा दें, पूरा पढ़ दें या अच्छे गायक से पूरा गवाकर उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास करें?
कम से कम बताते कि उन्होंने क्या करने का प्रयास किया।
नेहरू ने क्या कहा था?
नेहरू ने तब यही कहा था कि यह बात जाहिर है कि महान गीत और गान आदेश के बूते हासिल नहीं किए जा सकते हैं। यह गीत तभी मिलते हैं जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति उसका सृजन कर पाता है और ऐसे गीत मिल जाने के बाद भी उन्हें जनता की सहमति मांगनी होती है।
कुछ गाने बीच में दम तोड़ जाते हैं। कुछ गाने अपना रूप बदल-बदल कर जी जाते हैं। हर दौर में लौट आते हैं।
क्या है पृष्ठभूमि?
वंदे मातरम को लेकर यह विवाद बार-बार लौटकर आता है। 150 साल में इस गीत की जो यात्रा रही है, उसे समझना जरूरी है। 1937 में जो दो अंतरे कांग्रेस कार्य समिति ने चुने, वही अंतरे संविधान सभा ने भी 1950 में राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किए। इस चुनाव में रवींद्रनाथ टैगोर की सबसे बड़ी भूमिका थी।
अफसोस इस बात का है कि जनता के तमाम मुद्दों को छोड़कर वंदे मातरम पर बहस हुई, लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण ऐतिहासिक तथ्यों के मामले में समावेशी नहीं था।
मुख्य बातें (Key Points)
- टैगोर ने चुने दो अंतरे: रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद कहा था कि बाद में जोड़े गए अंतरों का सांप्रदायिक मायना निकाला जा सकता है।
- संविधान सभा में सहमति: 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अंबेडकर समेत सभी ने उन्हीं दो अंतरों को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया।
- जन गण मन भी एक अंश: राष्ट्रगान भी एक लंबी कविता का हिस्सा है, पूरी कविता में पांच अंतरे हैं।
- नेताजी ने मांगी थी चर्चा: 17 अक्टूबर 1937 को नेताजी ने खुद नेहरू को लिखा था कि वंदे मातरम पर कार्य समिति में चर्चा होनी चाहिए।






