PMO in Crisis: भारत की राजनीति में इन दिनों एक अजीब अफरा-तफरी का माहौल है। सरकार एक के बाद एक फैसले ले रही है और फिर उतनी ही तेजी से उन पर यू-टर्न भी ले रही है। चाहे वह संसद में विपक्ष के साथ टकराव हो या मोबाइल में अनिवार्य ऐप का मुद्दा, हर मोर्चे पर सरकार को कदम पीछे खींचने पड़ रहे हैं। इस असमंजस के बीच, एक बड़ी खबर यह आ रही है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) का नाम बदलकर ‘सेवा तीर्थ’ (Seva Teerth) किया जा सकता है। यह बदलाव ठीक उसी तर्ज पर हो सकता है जैसे रेस कोर्स रोड का नाम बदलकर लोक कल्याण मार्ग किया गया था।
लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ नाम बदलने से सरकार की साख बच पाएगी? पिछले 10 सालों में पहली बार ऐसा देखा जा रहा है कि सरकार अपने ही निर्णयों को लेकर इतनी रक्षात्मक मुद्रा में है।
फैसलों पर यू-टर्न: कमजोरी या रणनीति?
हाल के दिनों में सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए जिन्हें बाद में बदलना पड़ा। संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत में प्रधानमंत्री ने विपक्ष के रवैये को ‘ड्रामा’ करार दिया था, लेकिन अगले ही दिन सरकार विपक्ष की मांग पर चर्चा के लिए तैयार हो गई। इसी तरह, ‘संचार साथी’ (Sanchar Saathi) ऐप को लेकर पहले कहा गया कि इसे हर मोबाइल में प्री-इंस्टॉल करना अनिवार्य होगा और इसे डिलीट नहीं किया जा सकेगा। विपक्ष ने इसे जासूसी और निजता पर हमला बताया। विवाद बढ़ता देख सरकार ने यू-टर्न लिया और कहा कि उपभोक्ता चाहे तो इसे डिलीट कर सकता है।
चुनाव आयोग के फैसलों पर भी सवाल
सरकार के लिए संकट सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता। चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। एक प्रमुख अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के फैसलों से उनके ही साथी चुनाव आयुक्त सहमत नहीं थे। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दूसरे चुनाव आयुक्त ने एसआईआर (वोटर लिस्ट रिविजन) प्रक्रिया का विरोध किया था, क्योंकि इससे बुजुर्गों, गरीबों और दिव्यांगों को परेशानी हो रही थी। लेकिन उनकी असहमति को दरकिनार कर दिया गया। यह खुलासा सरकार और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
पीएमओ का ‘सेवा तीर्थ’ बनना: छवि सुधारने की कवायद?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पीएमओ का नाम बदलकर ‘सेवा तीर्थ’ और राजभवनों का नाम ‘लोक भवन’ करने की तैयारी सरकार की छवि सुधारने की एक कोशिश है। सरकार यह संदेश देना चाहती है कि वह जनता की सेवक है और उसके द्वार सभी के लिए खुले हैं। यह कदम उस समय उठाया जा रहा है जब सरकार को अपनी साख बचाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
राहुल गांधी की खामोशी और सरकार की बेचैनी
इस पूरे घटनाक्रम में एक और दिलचस्प पहलू है विपक्ष के नेता राहुल गांधी की खामोशी। सरकार के फैसलों पर राहुल गांधी की साधी हुई चुप्पी ने सत्ता पक्ष को बेचैन कर दिया है। सरकार चाहती है कि राहुल गांधी कुछ बोलें ताकि उस पर राजनीति की जा सके, लेकिन राहुल गांधी ने संसद में ही बोलने की बात कहकर सरकार की रणनीति पर पानी फेर दिया है।
जानें पूरा मामला
सरकार के लिए मौजूदा समय चुनौतीपूर्ण है। एक तरफ पेगासस जासूसी कांड की यादें ताजा हो रही हैं, तो दूसरी तरफ नए नियमों को लेकर जनता में भ्रम की स्थिति है। सरकार को यह साबित करना होगा कि उसके फैसले जनता के हित में हैं, न कि किसी विशेष एजेंडे के तहत। पीएमओ का नाम बदलना एक प्रतीकात्मक कदम हो सकता है, लेकिन असली परीक्षा गवर्नेंस और पारदर्शिता की होगी।
मुख्य बातें (Key Points)
-
प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) का नाम ‘सेवा तीर्थ’ करने की चर्चा।
-
सरकार ने ‘संचार साथी’ ऐप को अनिवार्य करने के फैसले पर यू-टर्न लिया।
-
चुनाव आयोग के भीतर फैसलों पर असहमति की खबरें सामने आईं।
-
राहुल गांधी की चुप्पी सरकार के लिए नई मुसीबत बन गई है।
-
सरकार अपनी साख और विश्वसनीयता बचाने की कोशिश में जुटी है।






