Modi Govt Economic Policies and Public Money: भारत की अर्थव्यवस्था एक अजीब विरोधाभास से गुजर रही है। एक तरफ देश की जीडीपी बढ़ने की बात होती है, तो दूसरी तरफ कॉर्पोरेट जगत की नेटवर्थ जीडीपी की रफ्तार को भी पीछे छोड़ रही है। ऐसा लगता है कि देश की पूरी अर्थव्यवस्था अब कुछ गिने-चुने कॉर्पोरेट घरानों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है, और सरकार की आर्थिक नीतियां भी इन्हीं को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं।
एक साल पहले रिजर्व बैंक (RBI) के आंकड़ों ने एक चौंकाने वाली तस्वीर पेश की थी। देश के बैंकों में आम लोगों का करीब 200 लाख करोड़ रुपये जमा है। लेकिन अगर इसमें से सिर्फ शीर्ष 10% अमीर लोगों का पैसा निकाल दिया जाए, तो बाकी 90% जनता का पैसा घटकर महज 17-18 लाख करोड़ ही रह जाता है। यह आंकड़ा देश में बढ़ती आर्थिक असमानता की एक झलक है।
जनता के पैसे से कॉर्पोरेट का विकास?
सरकार ने अपनी आर्थिक नीतियों की दिशा बदल दी है। अब सरकार का फोकस जनता के लिए स्कूल, अस्पताल या बुनियादी ढांचा खड़ा करने पर नहीं है, बल्कि उसने नेशनल मोनेटाइजेशन प्लान और प्राइवेटाइजेशन जैसे रास्तों को चुना है। 2025 से 2030 के बीच मोनेटाइजेशन से 10 लाख करोड़ और निजीकरण से 6 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य है।
मंत्रालयों को निर्देश दिए गए हैं कि वे बड़े कॉरपोरेट्स से संपर्क करें और उन्हें स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली और संचार जैसे क्षेत्रों में निवेश के लिए तैयार करें। इन परियोजनाओं के लिए पैसा कहां से आएगा? जवाब है – सरकारी बैंकों से। बैंकों को निर्देश दिया जा रहा है कि वे इन बड़ी कंपनियों को कर्ज दें। यानी बैंकों में जमा जनता का पैसा, एलआईसी (LIC) का पैसा और अन्य वित्तीय संस्थानों का पैसा इन कॉरपोरेट्स के हाथों में सौंपा जा रहा है, ताकि वे अपना साम्राज्य और बड़ा कर सकें।
शेयर बाजार का बुलबुला और जनता का पैसा
सेंसेक्स 86,000 के पार पहुंच चुका है, लेकिन इस तेजी के पीछे विदेशी निवेशकों से ज्यादा घरेलू निवेशकों का हाथ है। और यह घरेलू निवेश भी जनता का ही पैसा है जो एसआईपी (SIP) और म्यूचुअल फंड के जरिए शेयर बाजार में आ रहा है।
आंकड़े बताते हैं कि भारतीय स्टेट बैंक (SBI) ने रिलायंस इंडस्ट्रीज में करीब 1,74,000 करोड़ रुपये का निवेश किया है, जो कुल मिलाकर 2 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है। सरकारी बैंकों का कुल निवेश रिलायंस में करीब 3.5 लाख करोड़ है। एलआईसी ने भी रिलायंस में 1.5 लाख करोड़ से ज्यादा और अडानी समूह की कंपनियों में 60-70 हजार करोड़ रुपये लगाए हैं।
कॉर्पोरेट कर्ज और एनपीए का खेल
एक तरफ जनता का पैसा शेयर बाजार में लग रहा है, तो दूसरी तरफ बैंक कॉरपोरेट्स को भारी-भरकम कर्ज दे रहे हैं। एक दौर था जब बैंकों का एनपीए (NPA) 12% तक पहुंच गया था, जिसे अब राइट-ऑफ (कर्ज माफी) के जरिए घटाकर 2.5% पर लाया गया है। करीब 10,700 कंपनियां एनसीएलटी (NCLT) के दरवाजे पर पहुंचीं, जिन पर बैंकों का ढाई से तीन लाख करोड़ का कर्ज था, लेकिन वसूली सिर्फ 30-35 हजार करोड़ की हो पाई। बाकी 2.5 लाख करोड़ का नुकसान बैंकों ने उठाया, जिसकी भरपाई अंततः जनता के पैसों से ही हुई।
यह एक खतरनाक चक्र बन चुका है। बैंकों का पैसा कॉरपोरेट्स के पास जा रहा है, उनकी नेटवर्थ भारत की जीडीपी से कई गुना तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इसका लाभ आम जनता को नहीं मिल रहा है।
आम आदमी पर बढ़ता बोझ
इस पूरी प्रक्रिया में आम आदमी पर आर्थिक बोझ बढ़ता जा रहा है। 2014 के मुकाबले 2024 में टोल टैक्स की वसूली 13-14 हजार करोड़ से बढ़कर 72-75 हजार करोड़ हो गई है। आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों की फीस में औसतन 85% की बढ़ोतरी हुई है।
किसानों की हालत यह है कि लागत तीन गुना बढ़ गई है, लेकिन उपज का सही दाम नहीं मिल रहा है। प्याज 20 पैसे किलो बेचने की नौबत आ गई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और परिवहन जैसी बुनियादी सेवाओं का निजीकरण हो रहा है, जिससे इनकी कीमतें आसमान छू रही हैं। प्राइवेट अस्पतालों, स्कूलों और यहां तक कि पानी बेचने वाली कंपनियों का मुनाफा सरकारी बजट से कई गुना ज्यादा है।
क्या है भविष्य?
सरकार अब रेलवे और न्यूक्लियर पावर जैसे रणनीतिक क्षेत्रों को भी निजी हाथों में सौंपने की तैयारी में है। अमरावती जैसी नई राजधानियां बसाने के लिए बैंकों से हजारों करोड़ का कर्ज लिया जा रहा है। यह सब एक ऐसे आर्थिक मॉडल की ओर इशारा करता है जहां विकास का मतलब सिर्फ कुछ कॉरपोरेट्स का विकास है, और बाकी 90% जनता सिर्फ एक ‘लाभार्थी’ या ‘वोटर’ बनकर रह गई है।
यह एक बड़ा आर्थिक बुलबुला हो सकता है, जो जनता के पैसों पर टिका है। अगर यह फूटा, तो इसका खामियाजा भी उसी जनता को भुगतना होगा जिसका पैसा बैंकों और एलआईसी में जमा है।
मुख्य बातें (Key Points)
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भारत में कॉर्पोरेट की नेटवर्थ जीडीपी से तेज रफ्तार से बढ़ रही है।
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बैंकों में जमा 90% जनता का पैसा कुल जमा का सिर्फ 10-15% है।
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सरकार मोनेटाइजेशन और प्राइवेटाइजेशन के जरिए कॉरपोरेट्स को बढ़ावा दे रही है।
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बैंकों और एलआईसी का लाखों करोड़ रुपये रिलायंस और अडानी जैसे बड़े समूहों में लगा है।
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कॉर्पोरेट कर्ज माफी (राइट-ऑफ) के कारण बैंकों का एनपीए कम दिख रहा है।
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आम आदमी पर टोल टैक्स, फीस और महंगाई का बोझ लगातार बढ़ रहा है।






