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Supreme Court on Governor Powers: क्या अब ‘बेलगाम’ होंगे राज्यपाल? मोदी सरकार की जीत या विपक्ष का भ्रम?

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के लिए बिल पास करने की समय सीमा तय करने से किया इनकार, लेकिन अनिश्चितकाल तक रोकने पर दी चेतावनी

The News Air by The News Air
शुक्रवार, 21 नवम्बर 2025
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Supreme Court Governor Powers Verdict : सुप्रीम कोर्ट ने देश के संघीय ढांचे और राज्यपालों की शक्तियों को लेकर एक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसने मोदी सरकार और विपक्षी राज्यों के बीच चल रही खींचतान को एक नया मोड़ दे दिया है। 20 नवंबर 2025 को दिए गए अपनी राय में, देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह साफ कर दिया है कि वह राज्यपालों पर किसी विधेयक (Bill) को मंजूरी देने के लिए कोई समय सीमा (Time Limit) नहीं थोप सकती। यह राय 8 अप्रैल के उस आदेश से बिल्कुल अलग है, जिसमें 3 महीने की समय सीमा की बात कही गई थी।

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 10 दिनों की लंबी सुनवाई के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा मांगी गई राय (Article 143) पर अपना जवाब दिया। कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, और न्यायपालिका, कार्यपालिका (Executive) के काम में दखल देकर कोई डेडलाइन तय नहीं कर सकती। इसे केंद्र सरकार की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी थी कि राज्यपाल को महज एक ‘पोस्टमैन’ या ‘शोपीस’ नहीं बनाया जा सकता।

विपक्ष का दावा: ‘हार में भी जीत’

भले ही कोर्ट ने समय सीमा तय करने से इनकार कर दिया हो, लेकिन वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और विपक्षी दलों का मानना है कि यह उनकी नैतिक जीत है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि समय सीमा न होने का मतलब यह नहीं है कि राज्यपाल किसी बिल पर ‘अनंत काल’ (Indefinite period) तक कुंडली मारकर बैठ जाएं। अगर राज्यपाल बिना किसी ठोस कारण के लंबे समय तक विधेयक को रोकते हैं, तो यह संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ होगा और ऐसे मामलों में कोर्ट ‘सीमित दखल’ दे सकता है। सिब्बल का तर्क है कि अब राज्यपालों को विधानसभा की सर्वोच्चता का सम्मान करना ही होगा।

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संवैधानिक पेंच और राष्ट्रपति का हस्तक्षेप

यह पूरा मामला तब पलटा जब 8 अप्रैल 2025 को जस्टिस पारदीवाला की बेंच ने राज्यपालों के लिए 3 महीने की समय सीमा तय कर दी थी। इसके बाद, मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर राय मांगी। यह इतिहास में केवल 15वीं बार हुआ है जब इस अनुच्छेद का प्रयोग किया गया। आलोचकों का कहना है कि यह सरकार की एक चाल थी ताकि अप्रैल के फैसले को कमजोर किया जा सके, और अब कोर्ट की नई राय ने उस समय सीमा की बाध्यता को खत्म कर दिया है।

तमिलनाडु से पंजाब तक: ‘पेंडिंग’ राजनीति

इस कानूनी लड़ाई की जड़ में तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे विपक्षी शासित राज्य हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने 10 विधेयकों को लटकाए रखा था, जिन्हें विधानसभा ने दोबारा पास किया, फिर भी उन्होंने मंजूरी नहीं दी। इसी तरह, केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने 7 बिल राष्ट्रपति को भेज दिए और 4 को रोक लिया। पंजाब और पश्चिम बंगाल का भी यही हाल रहा। इन राज्यों का आरोप है कि राज्यपाल केंद्र के इशारे पर चुनी हुई सरकारों के कामकाज को ठप कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या नई राय के बाद राज्यपाल फिर से विधेयकों को सालों-साल लटकाएंगे?

‘जानें पूरा मामला’

गैर-बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि राज्यपाल उनके द्वारा पास किए गए कानूनों को मंजूरी देने में जानबूझकर देरी कर रहे हैं, जिससे राज्य का विकास और कामकाज ठप हो रहा है। अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के पक्ष में फैसला देते हुए समय सीमा तय की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि राज्यपाल के पास विवेकाधीन शक्तियां होनी चाहिए ताकि वह बहुमत वाली सरकारों के मनमानेपन पर नजर रख सकें। इसी संवैधानिक द्वंद्व को सुलझाने के लिए राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी, जिस पर अब कोर्ट ने कहा है कि “समय सीमा नहीं, लेकिन अनिश्चितकाल तक देरी भी नहीं।”

मुख्य बातें (Key Points)
  • समय सीमा नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों पर बिल पास करने के लिए कोई फिक्स टाइमलाइन नहीं थोपी जा सकती।

  • अनंत देरी अवैध: कोर्ट ने चेताया कि राज्यपाल बिना कारण बताए विधेयकों को अनिश्चितकाल तक नहीं रोक सकते।

  • राष्ट्रपति का संदर्भ: यह राय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा आर्टिकल 143 के तहत पूछे गए सवालों के जवाब में दी गई है।

  • विपक्ष बनाम केंद्र: केंद्र इसे राज्यपाल की शक्तियों की रक्षा मान रहा है, जबकि विपक्ष इसे विधानसभा की गरिमा की जीत बता रहा है।

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