Colonial Mindset : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2035 तक देश को ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ (Colonial Mindset) से पूरी तरह मुक्त करने का एक नया और बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया है। एक हालिया संबोधन में उन्होंने आहवान किया कि अगले 10 साल में, जब लॉर्ड मैकाले की नीतियों के 100 साल पूरे होंगे, भारत को इस पुरानी सोच से मुक्ति पानी होगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या महज शपथ लेने और तारीखें तय करने से सदियों पुरानी व्यवस्था का चरित्र बदल सकता है, या यह जनता को उलझाए रखने का एक नया ‘प्रोजेक्ट’ मात्र है?
‘मैकाले की सोच’ और 10 साल का अल्टीमेटम
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जोर देकर कहा कि मैकाले ने जिस गुलामी की मानसिकता को भारत में भरा था, उसे अगले एक दशक में जड़ से उखाड़ फेंकना है। 2022 में लाल किले से ‘पंच प्रण’ की बात करते हुए भी उन्होंने औपनिवेशिक सोच से मुक्ति का जिक्र किया था, लेकिन तब कोई समय सीमा नहीं थी। अब 2035 की डेडलाइन तय की गई है।
हालांकि, इस घोषणा पर सवाल यह है कि क्या किसी मानसिकता को खत्म करने के लिए ‘टाइमर’ लगाया जा सकता है? जिस सभा में प्रधानमंत्री ने यह बात कही, वहां मौजूद लोगों को ही अगर एक ‘सैंपल’ मान लिया जाए, तो क्या अगले साल तक उनके पहनावे, खान-पान या विचारों में कोई बुनियादी बदलाव दिखेगा? यह एक ऐसा प्रयोग है जिसके परिणाम 2035 में ही सामने आएंगे, लेकिन वर्तमान में यह केवल एक राजनीतिक नारा अधिक जान पड़ता है।
नाम भारतीय, लेकिन कानून वही पुराना?
औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण कानूनों में बदलाव को बताया जा रहा है। आईपीसी (IPC) की जगह ‘भारतीय न्याय संहिता’ (BNS) ने ले ली है। सरकार का दावा है कि यह गुलामी की निशानी को मिटाने वाला कदम है। लेकिन कानूनी विशेषज्ञों की राय इससे उलट है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों और पूर्व जजों के विश्लेषण के मुताबिक, नई संहिता में 90 से 95 प्रतिशत प्रावधान पुराने आईपीसी वाले ही हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि राजद्रोह (Sedition) जैसा अंग्रेजों के जमाने का कानून, जिसे खत्म करने की बात थी, वह नए रूप में और अधिक कठोर होकर वापस आ गया है। इसके अलावा, पुलिस हिरासत की अवधि को 15 दिन तक बढ़ाने का प्रावधान भी संदेह के घेरे में है। क्या शक के आधार पर किसी को लंबे समय तक हिरासत में रखना ‘भारतीय न्याय’ की अवधारणा है या यह उसी ब्रिटिश पुलिसिया राज का विस्तार है जिसका मकसद जनता को डराना था?
पुलिस और सत्ता का ‘औपनिवेशिक’ चरित्र
गुलामी की मानसिकता केवल किताबों या कानूनों में नहीं, बल्कि व्यवहार में होती है। आज भी देश में पुलिस का मॉडल वही है जो अंग्रेजों के समय था—जिसका काम सत्ता के प्रति वफादारी और आम जनता में खौफ पैदा करना है। क्या आज का चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री की जांच करने का साहस रखता है? क्या पुलिस गलत पाए जाने पर प्रधानमंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर सकती है?
अगर एक सिपाही से लेकर उच्च अधिकारी तक, सब सत्ता के आगे नतमस्तक हैं और न्याय व्यवस्था झुकी हुई नजर आती है, तो इसे ‘औपनिवेशिक मॉडल’ ही कहा जाएगा। जब किसान, छात्र या सोनम वांगचुक जैसे लोग अपने अधिकारों के लिए सड़क पर उतरते हैं, तो उन्हें ‘सरकार विरोधी’ बताकर जेल में डाल दिया जाता है। यह ठीक वही तरीका है जो अंग्रेज आजादी के दीवानों के खिलाफ अपनाते थे।
शिक्षा नीति: भारतीय जड़ों की बात या विदेशी नकल?
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को भी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का बड़ा हथियार बताया गया है। दावा है कि यह भारत की मिट्टी से जुड़ी शिक्षा नीति है। लेकिन दस्तावेज के पन्नों को पलटने पर वहां ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ जैसे शब्द मिलते हैं, जो वास्तव में ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ (WEF) की शब्दावली है।
शिक्षा में भारतीयता लाने की बात करने वाली सरकार के अपने ही मंत्री और नेता अपने बच्चों को पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज या येल भेजते हैं। पिछले 20 सालों में गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां बीजेपी की सरकार रही है, एक भी ऐसी यूनिवर्सिटी नहीं बनी जिसे ‘भारतीयता’ का आदर्श मॉडल कहा जा सके। उलटे, यूनिवर्सिटीज की स्वायत्तता (Autonomy) खत्म की जा रही है और वहां डर का माहौल है।
क्या है असली मकसद?
कुल मिलाकर, ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से मुक्ति का यह पूरा अभियान विरोधाभासों से भरा है। एक तरफ अंग्रेजी हटाने की बात होती है, तो दूसरी तरफ बच्चे विदेशों में पढ़ाए जाते हैं। एक तरफ कानूनों के भारतीय नाम रखे जाते हैं, तो दूसरी तरफ उनका चरित्र और ज्यादा दमनकारी बना दिया जाता है।
आशंका यह जताई जा रही है कि औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के नाम पर दरअसल एक नई तरह की मानसिकता थोपी जा रही है, जिसमें सवाल पूछने की आजादी न हो और सत्ता का डर सर्वोपरि हो। इसे गुलामी से मुक्ति नहीं, बल्कि गुलामी का ‘नया संस्करण’ कहना ज्यादा सही होगा।
मुख्य बातें (Key Points)
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डेडलाइन 2035: पीएम मोदी ने मैकाले की शिक्षा नीति के 100 साल पूरे होने पर औपनिवेशिक मानसिकता खत्म करने का लक्ष्य रखा है।
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कानूनों में केवल नाम का बदलाव: भारतीय न्याय संहिता में 90-95% हिस्से पुराने ब्रिटिश कानूनों (IPC) के ही हैं; राजद्रोह कानून और सख्त हुआ है।
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पुलिसिया राज: पुलिस और प्रशासन का रवैया आज भी अंग्रेजों जैसा ही दमनकारी है, जो सत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाता है।
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शिक्षा नीति में विरोधाभास: नई शिक्षा नीति में ‘भारतीयता’ के दावे के बावजूद शब्दावली विदेशी (WEF) है और यूनिवर्सिटीज की आजादी खत्म हो रही है।
‘जानें पूरा मामला’
मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक हालिया भाषण से जुड़ा है जिसमें उन्होंने देशवासियों को 2035 तक ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से मुक्त होने का संकल्प लेने को कहा है। यह 2022 में घोषित उनके ‘पंच प्रण’ का ही विस्तार है। हालांकि, आलोचकों और वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि सरकार जिन कदमों (जैसे कानूनों के नाम बदलना या हिंदी को बढ़ावा देना) को ‘मुक्ति’ बता रही है, वे सतही हैं। असल में, पुलिस, न्याय व्यवस्था और प्रशासन का ढांचा आज भी वही है जो अंग्रेजों ने भारतीयों को नियंत्रित करने के लिए बनाया था, और अब उसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए किया जा रहा है।






