नई दिल्ली, 1 मार्च (The News Air) सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि सिविल और क्रिमिनल मामलों में निचली अदालत या हाईकोर्ट की ओर से लगाई गई रोक (स्टे ऑर्डर) खुद-ब-खुद रद्द नहीं हो सकती। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली वाली पांच जजों की बेंच सुप्रीम कोर्ट के 2018 के उस फैसले से सहमत नहीं हुई, जिसमें कहा गया था कि निचली अदालत और हाईकोर्ट के स्टे ऑर्डर छह महीने बाद अपने आप ही रद्द हो जाने चाहिए, बशर्ते उन्हें विशेष तौर पर आगे न बढ़ाया गया हो।
हमें समयसीमा तय नहीं करना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को बदलते हुए कहा कि सामान्य तौर पर संवैधानिक अदालतों को किसी भी अदालत में लंबित मामलों के निपटारे के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधानिक अदालतों को किसी निचली अदालत में लंबित किसी एक मामले के लिए एक निश्चित समयसीमा तय नहीं करना चाहिए। इस तरह के मामले की स्थिति वही जज जानते हैं जो इसकी सुनवाई कर रहे होते हैं। एक हाईकोर्ट संविधानिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट से स्वतंत्र होता है और वो सर्वोच्च अदालत के नीचे नहीं है। इसलिए हाईकोर्ट के जजों को तार्किक आधार पर प्राथमिकता तय करने का अधिकार है।
हम हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकते : कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली शक्ति का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के अंतरिम राहत देने के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकता। यह दखल इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि 142 के तहत दी गई शक्ति का इस्तेमाल करके वह हाईकोर्ट के अंतरिम आदेशों को केवल छह महीने के लिए वैध बनाने वाली सीमा तय कर रहा है। इस तरह की पाबंदियां लगाना, संविधान के मूल ढांचे का एक अनिवार्य हिस्सा माने जाने वाले अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र को कमजोर करने जैसा होगा। शीर्ष अदालत ने 2018 के तीन न्यायाधीशों के फैसले को पलट दिया। 2018 के फैसले में कहा गया था कि अगर हाईकोर्ट किसी मामले में कार्यवाही पर रोक लगाने का आदेश देता है, और छह महीने के अंदर उस आदेश को दोबारा जारी नहीं किया जाता है, तो रोक अपने आप समाप्त हो जाएगी।
2018 में आया था स्टे वाला फैसला
नए फैसले में, चीफ जस्टजिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस पंकज मिश्रा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के अधीनस्थ नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत अपनी व्यापक शक्ति का इस्तेमाल करके अलग-अलग तरह के मामलों के निपटारे के लिए समय सीमा तय नहीं कर सकता है। 2018 का फैसला जस्टिस ए के गोयल, आर एफ नरिमन और नवीन सिन्हा ने दिया था।