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तब सोनिया, अब केजरीवाल: खूब पढ़ीं फिर भी ‘राबड़ी-मनमोहन’ से ज्यादा क्या बन पाएंगी आतिशी?

The News Air Team by The News Air Team
मंगलवार, 17 सितम्बर 2024
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मंगलवार, 30 दिसम्बर 2025
नई दिल्ली, 17 सितंबर,(The News Air): दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है- अरविंद केजरीवाल। आम आदमी पार्टी (आप) की बैठक में दिल्ली की नई मुख्यमंत्री चुनी गईं आतिशी का कहना है कि वो इस जिम्मेदारी से खुश तो हैं, लेकिन उन्हें इसका भारी गम भी है कि अरविंद केजरीवाल सीएम नहीं रहेंगे। सोचिए, जो दिल्ली जैसे अहम प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं, वो खुलकर यह नहीं कह सकतीं कि हां, अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अब वो यह कमान संभालने जा रही हैं। वो कह रही हैं कि दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है और उसका नाम है- अरविंद केजरीवाल।

आतिशी ने खुद कहा- सिर्फ एक सीएम केजरीवाल

आतिशी ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, ‘मैं आज ये जरूर कहना चाहती हूं- आम आदमी पार्टी के सभी विधायकों की तरफ से, दिल्ली की दो करोड़ जनता की तरफ से कि दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है, और उस मुख्यमंत्री का नाम अरविंद केजरीवाल है।’ आतिशी के इस बयान के बाद क्या विरोधियों का यह आरोप साबित नहीं होता है कि दिल्ली के असली मुख्यमंत्री तो इस्तीफे के बाद भी अरविंद केजरीवाल ही रहेंगे, आतिशी तो बस रबर स्टांप रहेंगी? ध्यान रहे कि यही छवि देश के लगातार दो बार प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह की रही। तथ्यों, तर्कों और सबूतों के आधार पर एक बड़ा वर्ग मानता है कि 2004 से 2014 तक भारत की असली प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी थीं, मनमोहन सिंह तो बस यस मैन की भूमिका में फाइलों पर दस्तखत करने तक सीमित थे।

जब सोनिया नहीं बन पाई थीं पीएम

2004 के लोकसभा चुनावों में 145 सीटों के साथ कांग्रेस पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। बीजेपी 138 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर खिसक गई। कांग्रेस पार्टी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के साथी दलों के साथ केंद्र में सरकार बना ली। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री की स्वाभाविक दावेदार थीं, लेकिन विदेशी मूल का मुद्दा उछला और सोनिया को कदम वापस खींचने पड़े। बीजेपी की धाकड़ नेता सुषमा स्वराज ने तब खुला ऐलान किया था कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं, तो वह राजनीतिक संन्यास ले लेंगी और अपना सिर मुंडवाकर जमीन पर सोएंगी।

मैं आज ये जरूर कहना चाहती हूं- आम आदमी पार्टी के सभी विधायकों की तरफ से, दिल्ली की दो करोड़ जनता की तरफ से कि दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है, और उस मुख्यमंत्री का नाम अरविंद केजरीवाल है।

आतिशी, दिल्ली की भावी मुख्यमंत्री

सोनिया झुकीं, लेकिन हथियार नहीं डाला

विपक्ष के कड़े विरोध के आगे सोनिया को झुकना पड़ा। वो झुकीं, लेकिन हार मानने के बजाय बाजी अपने हाथों में रखी। सोनिया ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री चुना। मनमोहन सिंह हमेशा से ब्यूरोक्रैट रहे, राजनेता नहीं। उनका ट्रैक रिकॉर्ड गारंटी दे रहा था कि वो कभी सोनिया की खिंची लक्ष्मण रेखा पार नहीं करेंगे। सोनिया को और क्या चाहिए था? दायरा क्रॉस करने की आशंका जिनसे थी, उन प्रणब मुखर्जी को सोनिया ने दरकिनार कर दिया था। बाद में प्रणब दा को राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया।

पीएम मनमोहन और एनएसी

22 मई, 2004, दिन मंगलवार। मनमोहन सिंह सरकार ने शपथ ले ली। इसके 13वें दिन ही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) का गठन हो गया। सोनिया गांधी इसकी चेयरपर्सन बन गईं। एनएसी के गठन के पीछे दलील यह दी गई कि यूपीए के कई साथी दल हैं, जिनके साझा घोषणापत्र को लागू करने के लिए एक ऐसी संस्था की दरकार है जो सरकार को वक्त-वक्त पर सही सुझाव दे सके। लेकिन यह तो कहने की बात थी। सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एनएसी के फैसले और सरकार में उसकी दखल के सबूत सामने आने लगे तो पता चल गया कि दरअसल असली पीएम सोनिया ही हैं, मनमोहन सिंह तो बस मुखौटा हैं।

मनमोहन के मुखौटे से राज करती रहीं सोनिया

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधीन सरकार का संचालन भले ही संवैधानिक रूप से स्वतंत्र था, लेकिन एनएसी के जरिए सोनिया गांधी की सीधी या परोक्ष भागीदारी ने इसे ‘समानांतर सत्ता केंद्र’ की शक्ति दे दी। बीजेपी और अन्य विपक्षी दलों ने एनएसी को ‘सुपर कैबिनेट’ कहकर इसकी आलोचना की और कहा कि मनमोहन सिंह की सरकार पर सोनिया गांधी की छाया बनी हुई है। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे ‘दो सत्ता केंद्रों’ वाली सरकार कहा, जिसमें मनमोहन सिंह एक निर्वाचित और संवैधानिक प्रधानमंत्री थे, लेकिन निर्णय लेने में उनका योगदान सीमित था।

सोनिया को छोड़ना पड़ा था लाभ का पद

फिर जब उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम का अध्यक्ष होने के कारण समाजवादी पार्टी (सपा) नेता जया बच्चन को राज्यसभा सांसद के पद से अयोग्य ठहराया गया तो एनएसी चेयरपर्सन को लाभ का पद बताकर विपक्ष ने सोनिया के सामने नैतिकता का प्रश्न खड़ा कर दिया। आखिरकार सोनिया गांधी ने 23 मार्च, 2006 को एनएसी के अध्यक्ष पद से और साथ ही रायबरेली से सांसद पद से भी इस्तीफा दे दिया। मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में एनएसी ने 2004 से 2008 तक और फिर दूसरे कार्यकाल में 2010 से 2014 तक काम करती रही।

कभी फ्री हैंड नहीं रह पाए थे मनमोहन

इन दोनों कार्यकाल में सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार को कभी फ्री हैंड नहीं छोड़ा और उस पर साया बनकर मंडराती रहीं। 2014 में बीजेपी सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो सरकार ने एनएसी से जुड़ी सैकड़ों फाइलें सार्वजनिक कर दीं। वो फाइलें बताती हैं कि किस तरह देश को सूचना का अधिकार (आरटीआई) देने वाली एनएसी ने अपने ही कामकाज को गुप्त रखने का पक्का इतंजाम किया था। एनएसी ने 2005 में तय किया था कि उसके रिकॉर्ड सिर्फ एनएसी के सदस्य ही देख सकते हैं, वो भी तब जब सदस्य इसकी मांग करें।

चेयरपर्सन सोनिया और एनएसी का जलवा

एनएसी की बैठकों में मंत्रियों और नौकरशाहों को बुलाया जाता था। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की फाइलें सोनिया गांधी के पास जाती थीं और वहां से पास होकर पीएमओ आती थीं। कई बार उलटा होता था। सोनिया गांधी की तरफ से ही फाइलें तैयार होकर पीएमओ आती थीं जिन्हें लागू करवाना मनमोहन सिंह सरकार के लिए अनिवार्य होता था। नो इफ, नो बट, सोनिया गांधी का निर्देश सर माथों पर। यही थी बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी जिम्मेदारी।मोदी सरकार तरफ से सार्वजनिक कई गई कई एनएसी फाइलें चीख-चीखकर यह सत्य बताती हैं। इन फाइलों से साफ झलकता है कि कैसे सोनिया गांधी के निर्देशों को मनमोहन सिंह को मानना ही पड़ता था।

बिहार में राबड़ी काल

केंद्र से अब रुख करते हैं बिहार का। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पशुपालन घोटाले में फंसे तो पटना के स्पेशल कोर्ट ने 25 जुलाई, 1997 को उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। इस कारण लालू ने उसी दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और कमान अपनी पत्नी राबड़ी देवी के हाथों सौंप दी। लालू ने सुप्रीम कोर्ट में पटना स्पेशल कोर्ट को चुनौती दी लेकिन 29 जुलाई को याचिका खारिज हो गई और अगले ही दिन 30 जुलाई, 1997 को लालू ने स्पेशल कोर्ट के सामने सरेंडर कर दिया। लालू प्रसाद यादव को कोर्ट से जेल भेज दिया गया।

दिल्ली को मिलीं राबड़ी?

अब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कह रहे हैं कि आतिशी के रूप में दिल्ली को राबड़ी देवी मिल गई हैं। इशारा साफ है- मुख्यमंत्री की कुर्सी भले ही आतिशी के पास हो, लेकिन ताकत तो केजरीवाल के पास ही रहेगी, निर्णय तो वही लेंगे। इसे आतिशी भी मान ही चुकी हैं। राबड़ी देवी अशिक्षित थीं और आतिशी उच्च शिक्षित, दशा एक जैसी। राजनीति में खड़ाऊं पूजन की व्यवस्था से पद पाए लोगों की महत्वाकांक्षा भी जग सकती है, जीतन राम मांझी ने ही यह साबित किया है। आतिशी को ‘शीशमहल’ अपने मोहपाश में बांधा पाता है कि नहीं, ये आने वाला वक्त ही बताएगा।

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