The News Air- जम्मू में दो प्रमुख दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों को ही अपने नेताओं को पार्टी में बनाए रखने के लिए इन दिनों संघर्ष करना पड़ रहा है। 2002 से 2014 तक इन दोनों दलों के साथ सरकार में शामिल रही कांग्रेस का भी यही हाल है। दरअसल कांग्रेस को पार्टी के अंदर से ही चुनौती मिल रही है।
नए दल बनाकर कुछ नए नेता उभरने की कोशिश कर रहे हैं। इनमें पीडीपी के पूर्व मंत्री सैयद अल्ताफ बुखारी हैं। उन्होंने जम्मू-कश्मीर एपीएनआई पार्टी बनाई है। तो अंकुर शर्मा की ‘एकजुट जम्मू’ भी सामने आई है। हालांकि इन दलों की चुनावी मैदान में असली परीक्षा बाक़ी है।
चुनाव को ध्यान में रखकर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के शीर्ष नेताओं को जम्मू में भाजपा की सीटें छीनने के लिए नई चुनावी रणनीति अपनानी पड़ सकती है। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की कुल 37 में से 25 सीटें जीती थीं।
राज्य में चुनाव कराने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है। जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू क्षेत्र सत्ता का केंद्र बनकर उभर रहा है। पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को तब तीन-तीन सीटें मिली थी, जबकि कांग्रेस ने 5 सीटों पर कब्ज़ा किया था। सिर्फ़ उधमपुर में भाजपा की ओर झुकाव वाले निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत हासिल की थी। जम्मू- कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी भी ख़ुद को पुनर्जीवित करने के लिए संघर्ष कर रही है। 2002 में 3 सीटें जीती थीं, पर उसके बाद खाता नहीं खुला।
भाजपा को रोकने के लिए बने गुपकार अलायंस (पीएजीडी) में पीडीपी भी शामिल है। पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती कह चुकी हैं कि वह गुपकार के ऐसे उम्मीदवाराें को समर्थन देने को राज़ी हैं, जो भाजपा को हरा सकें। हालांकि ज़मीन इसके उलट है। दोनों दलों के पास ऐसे चेहरे ही नहीं हैं, जो भाजपा का मुक़ाबला कर सकें। इन दोनों दलों के कई वरिष्ठ नेता सियासी करियर बचाए रखने के लिए पार्टी छोड़ चुके हैं।
इनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस काे बड़ा झटका देने वाले देवेंदर सिंह राणा भी शामिल हैं। वह पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला के क़रीबी सहयोगी रहे हैं। मौक़ा देख वह भाजपा में चले गए। उनके साथ पूर्व मंत्री सुरजीत सिंह सलाथिया भी नेशनल कॉन्फ्रेंस छोड़ गए। एक अन्य पूर्व मंत्री सैयद मुश्ताक अहमद बुखारी भी भेदभाव का आरोप लगाकर पार्टी को अलविदा कह चुके हैं।
हर बड़ा दल हो रहा परेशान
दो बार विधायक, प्रमुख गुज्जर नेता ज़ुल्फ़िक़ार चौधरी, पूर्व सिख नेता मंजीत सिंह ने ‘अपनी पार्टी’ के लिए डीपीपी को अलविदा कहा। कई अन्य नेता जिन्होंने मुफ्ती सईद के साथ काम किया, उन्होंने अनदेखी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ी। 2009 विधानसभा चुनावों से पहले इन दोनों दलों ने सीमावर्ती राजौरी और पुंछ ज़िलों में ख़ासी बढ़त ली थी