Supreme Court Social Media Regulation को लेकर अब एक नई बहस छिड़ गई है। सोशल मीडिया पर रील बनाना या वीडियो शेयर करना अब शायद पहले जैसा ‘फ्री’ और आसान नहीं रहने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर तेजी से फैल रहे अभद्र, भ्रामक और संवेदनहीन कंटेंट को लेकर कड़े सवाल पूछे हैं। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अराजकता नहीं फैलाई जा सकती।
‘हर कोई चैनल बनाकर कुछ भी नहीं बोल सकता’
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि यह ठीक नहीं है कि कोई भी अपना चैनल बना ले और जो मन में आए बोल दे। कोर्ट ने कंटेंट क्रिएटर्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, दोनों की जवाबदेही तय करने की वकालत की है। सबसे बड़ी चिंता ‘यूजर जनरेटेड कंटेंट’ को लेकर है, यानी वो वीडियो और पोस्ट जो हम और आप शेयर करते हैं। कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि क्या बच्चों, दिव्यांगों और समाज को नुकसान पहुंचाने वाले कंटेंट को रोकने के लिए कोई ठोस तंत्र बनाया जा सकता है?
आधार-पैन से वेरिफिकेशन और प्री-स्क्रीनिंग
इस मामले पर टीवी9 भारतवर्ष से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट आशीष कुमार पांडे ने बताया कि अभी तक ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर तो सेल्फ-रेगुलेशन है, लेकिन यूट्यूब या एक्स (ट्विटर) पर आम यूजर द्वारा डाले गए कंटेंट की कोई ‘प्री-स्क्रीनिंग’ नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर भी चर्चा हुई है कि क्या कंटेंट अपलोड करने से पहले आधार या पैन कार्ड के जरिए ‘एज वेरिफिकेशन’ होना चाहिए? हालांकि, इससे निजता (Privacy) के हनन का सवाल भी खड़ा होता है, लेकिन कोर्ट एक ऐसा बैलेंस बनाना चाहता है जिससे समाज में जहर फैलाने वाले कंटेंट को रोका जा सके।
वायरल होने के बाद कार्रवाई का क्या फायदा?
समस्या यह है कि जब तक किसी भ्रामक या एंटी-नेशनल वीडियो पर सरकार एक्शन लेती है या उसे हटाने का आदेश देती है, तब तक वह लाखों लोगों तक पहुंच चुका होता है। एडवोकेट पांडे ने बताया कि इंटरनेट की दुनिया में नुकसान कुछ ही सेकंड में हो जाता है। बाद में एफआईआर या कंटेंट हटाने से उस नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती। इसलिए कोर्ट एक ऐसे ‘इंडिपेंडेंट रेगुलेटरी बॉडी’ बनाने पर विचार कर रहा है जो सरकार से अलग हो और निष्पक्ष तरीके से काम करे।
AI और डीपफेक: टाइगर भी पानी पिला रहा है!
सुनवाई के दौरान एआई (AI) और डीपफेक के खतरों पर भी गंभीर चर्चा हुई। एडवोकेट आशीष ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि हाल ही में एक एआई जनरेटेड वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक टाइगर जंगल में बैठे व्यक्ति को उठा ले जाता है। यह इतना असली लग रहा था कि फर्क करना मुश्किल था। बाद में एक और वीडियो आया जिसमें वही टाइगर उस व्यक्ति को वापस छोड़ता है और पानी की बोतल भी देता है। यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह तकनीक की उस खतरनाक ताकत को दिखाता है जिसका इस्तेमाल दंगे भड़काने या किसी की छवि खराब करने के लिए किया जा सकता है।
आम आदमी पर क्या होगा असर?
अगर ये नए नियम लागू होते हैं, तो इसका सीधा असर आम इंटरनेट यूजर पर पड़ेगा। हो सकता है कि आने वाले समय में आपको सोशल मीडिया पर कोई भी वीडियो या पोस्ट डालने से पहले अपनी पहचान वेरिफाई करवानी पड़े। जैसे आज जीमेल अकाउंट बनाने के लिए उम्र पूछी जाती है, वैसे ही सोशल मीडिया पर भी कड़े नियम आ सकते हैं। हालांकि, कोर्ट ने यह भी सुनिश्चित करने को कहा है कि इसमें ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ यानी बोलने की आजादी का गला न घोंटा जाए।
जानें पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट में ऑनलाइन कंटेंट रेगुलेशन को लेकर सुनवाई चल रही है। कोर्ट ने नोट किया कि सोशल मीडिया पर अभद्र और समाज को बांटने वाले वीडियो की बाढ़ आ गई है। कोर्ट ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय (Ministry of Information and Broadcasting) को 4 सप्ताह का समय दिया है ताकि वे इस पर सुझाव दे सकें कि यूजर जनरेटेड कंटेंट को कैसे रेगुलेट किया जाए। कोर्ट का जोर प्री-स्क्रीनिंग और एक स्वतंत्र नियामक संस्था बनाने पर है।
मुख्य बातें (Key Points)
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया पर जवाबदेही तय होनी चाहिए, हर कोई चैनल बनाकर कुछ भी नहीं बोल सकता।
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कंटेंट अपलोड करने से पहले आधार या पैन आधारित ‘एज वेरिफिकेशन’ पर चर्चा हुई।
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एआई और डीपफेक वीडियो को पहचानने और रोकने के लिए सख्त तंत्र की जरूरत बताई गई।
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सरकार को रेगुलेशन के लिए सुझाव देने के लिए 4 हफ्ते का समय मिला है।






