आंधियां हौसले न उखाड़ सकी, न सर्दियां जोश जमा सकी, गर्मी का कहर उनके उम्मीद को पिघला नहीं पाया और ना ही सिर पर नाचती मौत उन्हें खौफजदा कर सकी। काल से आँख मिला वतन को “अकाल” से बचाने के लिए खेतों को छोड़ दिल्ली को घेरे बैठे ये वो किसान हैं जिन्हें प्रतिज्ञा प्राणों से प्यारी है। मौत इनके तंबुओं में रोज मंडराती है, चक्कर लगाती है और किसी एक को चुन कर साथ ले जाती है। मातम से आँखें निचोड़, कुर्ते की बाजू सिकोड़, बाहें ललकार फिर जिंदा हो उठता है किसान आंदोलन अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के खातिर । प्राणों की आहुति दे संकल्प वेदी पर साधना की धूनी रमाये ये संत सरीखे किसान हमारी थाली बचाने के लिए अपनी जान रोज हर रोज खुशी खुशी लुटा रहे हैं।
यह एक तानाशाही के खिलाफ बुलंद आवाज है, जो देश भर के खेत, खलिहान, गली, गांव, छत, मकान से लहरा-लहरा बढी चली आ रही है। दिल्ली को घेरे सरहद पर डेरा डाले हुकूमत की हठ का जवाब देने को अड़ी चुनौती बन खड़ी है। चुनी हुई सरकार से मार, दुत्कार, फटकार खाते डटे इन इतिहास पुरुषों की लड़ाई खुद के लिए नहीं खुदा के बनाए अनाज को कैद होने से बचाने के लिए जारी है। भारतीय इतिहास में किसान को इतना परेशान करने वाली सरकार शायद कभी नहीं आई होगी, जितना 56 इंच के सीने में सिमटी फूलबाजो की जुमलेबाज, दगाबाज सरकार का वर्तमान स्वरूप है। इस दल के नायक से लेकर छूटभैया नेता तक अन्नदाता की पगड़ी उछालने में मशगूल हैं। कभी नक्सली, तानाशाही, चोर, लुटेरा, मवाली, खालिस्तानी पाकिस्तानी हर तीर से बार-बार किसानों के जख्मों को कुरेद रहे हैं, जो किसान अपमान के इस पीर को पी ना सके वो सरकार से अगला जन्म ले मिलने को कह विदा ले रहे हैं और जो जिंदा हैं उनके जिंदाबाद के नारों से गोल घेरे में दुबकी, सिमटी, सहमी बैठी सरकार हकलान परेशान है।
खेतों का व्यापारीकरण क्यों? खेतों का निजीकरण क्यों? किसानों पर ईस्ट इंडिया जैसा जुल्मी अतिक्रमण क्यों? क्यों सरकार किसानों को पैरों तले रौंद अपने कुछ लाडलो का खजाना भर आवाम को टुकड़ा टुकड़ा तरसाने पर आमदा है। यह तो न लोक हित की बात है और ना ही लोकलाज की फिर लोकराज का दावा बचता ही कहां है? किसानों पर पानी की बौछार, लाठियों का वार, संगीनों का साया दिखाने वाले फूलदार नेता अब गांव में घुसने को भी अब तरसने लगे हैं, किसानों को आतंकी कहने वाले गांव की चौपालों पर सभा करने, मंच सजाने की सोच भी नहीं पा रहे हैं।
इतिहास जब भी पलटा जाएगा टिकैत के आंसुओं से तर मिलेगा। कफन, क्रांति, कर्तव्य के इस पथ पर तुम कहां खड़े हो? यह तुम से भी पूछा जाएगा, सरकार की चाटुकारिता में मशगूल थे या किसान के संघर्ष के साथ थे ? तुम हो कहां? किसके साथ? वक्त आंखों में आंख डाल जब हिसाब लेगा तो सोच लेना दागदार सरकार के साथ हो या माटी का तिलक लगा बलिदान हो रहे वतन के शहीद किसानों के साथ बताना ही होगा। यह कैसी बेबस, लाचार ,बेकार सरकार है जिससे शहीद हो जिंदगी लुटाने वालों किसानों की संख्या तक का बोध नहीं है। किसानों की शहादत का अंजाम सरकार की नजर में क्या है? उसके आगाज से ही देखा जा सकता है।
समय है संघर्ष की बलिवेदी पर अर्पित, समर्पित हो किसान की मांग को पूरा करने का, यह लड़ाई हर हिंदुस्तानी की है जिसकी जरूरत रोटी है। अट्टालिका से फुटपाथ तक हर घर में चूल्हा तभी जलेगा जब किसान खेत में अपना पसीना बहायेगा। मेरे देश का किसान जान लुटाने, बेवक्त मरने, संघर्ष में शहीद होने के लिए नहीं है। धरतीपुत्र तो धरती का सीना चीर फसलों को लहलहाने के लिए बना है। जागो वतन वासियों, जागो राष्ट्र नायको, जागो हिंदुस्तान के वीरो उठो, बढ़ो, चलो किसान के हक में खड़े हो। यह किसानों का बलिदान हिंदुस्तान का अपमान है इस अपमान को रोकना ही होगा।