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Election Commission Controversy पर संसद में संगीन आरोप, लोकतंत्र खतरे में

संसद में उठी गूंज - वोट चोरी को बताया गया सबसे बड़ा एंटीनेशनल एक्ट, चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर कब्ज़ के आरोप

The News Air Team by The News Air Team
मंगलवार, 9 दिसम्बर 2025
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Rahul Gandhi
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Election Commission Controversy ने संसद के भीतर उस बहस को जन्म दिया, जिसने भारत के लोकतंत्र के ताने-बाने पर सीधा सवाल खड़ा कर दिया। चुनाव सुधार पर चल रही चर्चा के बीच विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में खड़े होकर कहा कि अगर आज इस देश में कोई सबसे बड़ी देशविरोधी हरकत हो रही है, तो वह वोट चोरी के ज़रिए हो रही है और इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा अपराधी चुनाव आयोग है।

बहस सिर्फ़ चुनाव आयोग तक सीमित नहीं रही। सवाल यह भी उठा कि जब सत्ता खुद लोकतंत्र की बुनियाद को हिला रही हो, तो रास्ता बचेगा क्या और निकलेगा कहां से?

Vote Chori is the most serious anti-national act.

वोट चोरी सबसे बड़ा देशद्रोह है।

India is not only the biggest but the greatest democracy in the world.

BJP and the Election Commission are colluding to destroy our democracy and rob people of their voice. pic.twitter.com/QhL47y5OP3

— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 9, 2025


लोकतंत्र के मंदिर में उठे सबसे कड़े आरोप

बहस संसद के भीतर चल रही थी, जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। विषय था – चुनाव सुधार। लेकिन चर्चा के दौरान मामला सिर्फ़ तकनीकी सुधारों से आगे बढ़कर संवैधानिक संस्थाओं की आत्मा तक पहुंच गया।

राहुल गांधी ने कहा कि यह देश अब महात्मा गांधी का नहीं रह गया। जिस ताने-बाने में हर प्रांत, हर समुदाय, हर जाति, हर धर्म एक साथ बुनता था, वह ताना-बाना टूट चुका है। संवैधानिक संस्थान कमज़ोर पड़ चुके हैं। सत्ता को अब मुख्य न्यायाधीश यानी चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया पर भी भरोसा नहीं रहा।

जांच एजेंसियों – सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स – पर कब्ज़ हो चुका है। शिक्षा व्यवस्था तक को एक ख़ास विचारधारा के तहत मुट्ठी में दबोच लिया गया है।


नाथूराम गोडसे की गोलियों से शुरू हुई ‘कब्ज़े’ की कहानी

वक्ता ने कहा कि जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की छाती पर तीन गोलियां दागीं, उसी वक्त यह बीज बो दिया गया था कि एक दिन ऐसी परिस्थिति आएगी, जहां समानता का महत्व खत्म कर दिया जाएगा।

सोच यह होगी कि सब कुछ एक ही हथेली में समेट लिया जाए और खुद को सबसे ऊपर रख लिया जाए। आज जो सत्ता संरचना दिख रही है, उसे उसी सोच की परिणति के तौर पर जोड़ा गया।


‘वोट चोरी सबसे बड़ा एंटीनेशनल एक्ट’

बहस का सबसे सख्त वाक्य वही था, जिसने सदन की हवा बदल दी। राहुल गांधी ने कहा: “The biggest anti-national act you can do is वोट चोरी. There is no bigger anti-national act that you can do than वोट चोरी. Because जब आप वोट को डिस्ट्रॉय करते हैं, आप इस देश के फैब्रिक को डिस्ट्रॉय करते हैं, मॉडर्न इंडिया को डिस्ट्रॉय करते हैं, ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ को डिस्ट्रॉय करते हैं।”

उन्होंने सीधे कहा – वोट चोरी एक एंटीनेशनल एक्ट है और जो लोग दूसरी तरफ़ बैठें हैं, वे यही एंटीनेशनल काम कर रहे हैं। आम मतदाता के लिए यह संदेश बहुत साफ़ था – अगर आपकी वोट से छेड़छाड़ होती है, तो यह सिर्फ़ धांधली नहीं, देश के ख़िलाफ़ काम है।

कैसे होगा चुनाव सुधार? वैसे ही जो हम बार बार कह रहे हैं

1. चुनाव से कम से कम एक महीने पहले मशीन-रीडेबल वोटर लिस्ट सार्वजनिक हो
2. CCTV फुटेज मिटाने वाला काला कानून तुरंत वापस लिया जाए
3. विपक्ष को EVM तक पहुंच मिले और उसका आर्किटेक्चर सार्वजनिक किया जाए
4. चुनाव आयुक्तों को… pic.twitter.com/rTpEJf6gJZ

— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 9, 2025


जब प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष एक-दूसरे की गैरमौजूदगी में बोले

बहस के दृश्य भी कम प्रतीकात्मक नहीं थे। जब राहुल गांधी, बतौर विपक्ष के नेता, बोल रहे थे तो गृह मंत्री अमित शाह सदन में मौजूद थे लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं और जब प्रधानमंत्री भाषण दे रहे थे, तब राहुल गांधी सदन में नहीं थे। वक्ता ने इसे इस रूप में रख दिया कि संसद में एक मोटी, गहरी लकीर खिंच चुकी है – इस पार और उस पार की लड़ाई अब चुनावों के ज़रिए हो रही है, और उन चुनावों को भी मौजूदा सत्ता अपने अनुकूल बना चुकी है।


चुनाव आयोग पर सबसे बड़ा कटघरा

आरोप यह था कि राजनीतिक सत्ता बर्दाश्त ही नहीं कर पा रही कि इस देश के इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया की भागीदारी रहे।

कानून बदलकर स्थिति यह कर दी गई कि चुनाव आयुक्त के रूप में जो भी बैठे, उसके ऊपर किसी भी कार्रवाई की गुंजाइश न बचे। यानी, “हर गलत कार्रवाई से, हर अपराध से वह मुक्त होगा।”

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वक्ता ने कहा, आज़ादी के बाद ऐसी परिस्थिति कभी नहीं रही। अब यह माहौल बना दिया गया है कि जो चुनाव जीत जाए, उसकी जीत से हर दाग धुल जाता है और यह मान्यता रेंगने लगती है कि “जनता ने इन्हें चुना है”, चाहे प्रक्रिया कितनी ही संदिग्ध हो।


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर पाँच-सदस्यीय समिति की मांग

चर्चा के दौरान पहला ठोस प्रस्ताव कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी की ओर से आया। उन्होंने सवाल उठाया कि इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के लिए जो मौजूदा तीन सदस्यीय समिति है – प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता – वह स्वाभाविक रूप से सत्ता के पक्ष में झुकी रहती है।

सुझाव यह रखा गया कि इस समिति में दो और सदस्य जोड़े जाएं – राज्यसभा में विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया। इससे पांच सदस्यीय समिति बनेगी – दो सत्ता पक्ष के, दो विपक्ष के और एक सीजेआई – ताकि संतुलन और सहमति की गुंजाइश बन सके।


ईवीएम पर भरोसा डगमगाया, बैलेट पेपर की वापसी की पेशकश

समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और मनीष तिवारी दोनों एक बात पर सहमत दिखे – ईवीएम पर लोगों का भरोसा लगातार कम हो रहा है।

प्रस्ताव यह था कि आने वाले कुछ विधानसभा चुनावों – जैसे पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी – में एक बार बैलेट पेपर से चुनाव करा लिया जाए। अगर सत्ता पक्ष जीत जाए, तो माना जाएगा कि ईवीएम पर भी भरोसा रखा जा सकता है। अगर नहीं जीत पाए, तो कम से कम लोकतंत्र को लेकर उठ रहे सवालों की धार कुछ तो कम होगी और सिस्टम पटरी पर लौटने लगेगा।


जब चुनाव आयोग के पास SIR कराने की ताकत ही नहीं

एक अहम तकनीकी लेकिन गंभीर मुद्दा भी सामने आया – SIR (एसआईआर) यानी किसी चुनाव क्षेत्र में गड़बड़ियों की व्यापक जांच।

मनीष तिवारी ने साफ कहा कि Representation of People Act के तहत चुनाव आयोग के पास पूरे देश में एक साथ SIR करवाने की ताकत ही नहीं है। वह सिर्फ़ किसी एक कॉन्स्टिट्यूएंसी तक सीमित रह सकता है।

उन्होंने चुनौती दी कि अगर सरकार SIR के पक्ष में है, तो चुनाव आयोग द्वारा लिखित रूप में दर्ज की गई खामियों को सदन के पटल पर रखे – “कहां हैं वो reasons recorded in writing?” यह सवाल अब तक अनुत्तरित है।


चुनाव आयोग में ही सुधार की ज़रूरत: अखिलेश यादव की आपत्ति

विपक्ष की दूसरी बड़ी पार्टी के नेता, अखिलेश यादव ने सवाल उठाया – सुधार किसमें चाह रहे हैं?

उनके मुताबिक, सबसे बड़ी गड़बड़ी तो चुनाव आयोग ने की है, इसलिए सुधार की शुरुआत भी चुनाव आयोग से ही होनी चाहिए। उनके शब्दों में, चुनावी प्रक्रिया बाहर से कम, भीतर से ज़्यादा खराब हुई है – यानी जिस संस्था को निष्पक्ष रहना था, उसी के भीतर से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर किया गया।


इमरजेंसी से अलग, पर उससे भी ज़्यादा खतरनाक दौर?

तुलना इंदिरा गांधी के समय की इमरजेंसी से भी की गई। फर्क यह बताया गया कि 1975 में इमरजेंसी लगने पर कम-से-कम यह खुलकर कहा गया था कि नागरिक अधिकार और संवैधानिक आज़ादियां सीमित हो रही हैं।

आज के दौर में कोई औपचारिक इमरजेंसी नहीं है, न कोई सार्वजनिक ऐलान – लेकिन संवैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल इस तरह हो रहा है कि सब कुछ सत्ता के अधीन होता चला जा रहा है।

सवाल यह उठाया गया कि क्या पहले किसी प्रधानमंत्री को यह सूझा नहीं कि बिना इमरजेंसी लगाए भी, राज्यपालों की नियुक्ति, राष्ट्रपति के स्तर पर बिल रोकने और जांच एजेंसियों को नियंत्रित कर, सत्ता को लंबे समय तक पकड़ा जा सकता है?


संस्थाओं पर कब्ज़, सुप्रीम कोर्ट तक पर सवाल

विपक्ष को आज जो कुछ दिख रहा है, वही चीज़ सुप्रीम कोर्ट को क्यों नहीं दिखती? उन्होंने याद दिलाया कि कुछ बड़े मामलों में – जैसे पैगसिस या राफेल – सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर केस दबा देने का रास्ता निकाला और सुप्रीम कोर्ट ने भी उन मामलों को वहीं दफन कर दिया।

इसी से जुड़कर सवाल उठा कि सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियां अब आर्थिक और सामाजिक अपराधों की जांच से ज़्यादा, सत्ता के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का औज़ार बन चुकी हैं।


गांधी की हत्या के बाद ‘इंस्टीट्यूशनल कैप्चर’ का प्रोजेक्ट

चर्चा में 30 जनवरी 1948 का ज़िक्र आया, जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। राहुल गांधी ने कहा कि गांधी की हत्या के बाद “next step of the project was the wholesale capture of India’s institutional framework.” उनके मुताबिक, आज जो कुछ हो रहा है – चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक – उसी ‘प्रोजेक्ट’ की अगली कड़ी है, जहां संस्थाओं को एक विशेष सोच के अधीन कर दिया गया है।


किसान, युवा, गरीब – सब हाशिए पर, सत्ता बेपरवाह

अगर हर संवैधानिक संस्था मैनेज हो जाए, तो फिर किसान की ज़रूरत क्या मायने रखती है? डिग्रीधारी बेरोज़गार युवाओं का भविष्य, मनरेगा के लिए फंड, जनधन खातों में पड़े खाली बैलेंस – यह सब बेमानी करार दिए जा रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य को बड़े पैमाने पर प्राइवेट हाथों में सौंप दिया गया है – “पैसा है तो पढ़ाई होगी, पैसा है तो इलाज होगा।”

जहां सरकार की सीधी जिम्मेदारी बची भी है, वहां एक ख़ास विचारधारा के हिसाब से चीज़ों को मोड़ा जा रहा है।


चुनाव, ईवीएम, वीवीपैट और सीसीटीवी – पूरा ‘मैनेज्ड’ ढांचा?

चर्चा में यह भी साफ तौर पर कहा गया कि जब चुनाव का ऐलान होगा, तो वोट खरीदे जाएंगे, पैसा बांटा जाएगा। ईवीएम पर भरोसा नहीं, फिर भी 100% वीवीपैट काउंटिंग नहीं की जाएगी। जो सीसीटीवी बूथों पर सब कुछ कैद करते हैं, उनका फुटेज विपक्षी पार्टियों को नहीं दिया जाएगा। जो वोटर लिस्ट तैयार होती है, वो भी सभी राजनीतिक दलों को एक महीने पहले मशीन-पढ़ने योग्य रूप में नहीं सौंपी जाएगी। यानी हर स्तर पर जानकारी और प्रक्रिया पर नियंत्रण सत्ता के हाथ में रहेगा।


विपक्ष के सामने बचा कौन सा रास्ता?

आज की चर्चा ने तीन सच्चाइयों को जन्म दिया है। पहली, विपक्ष चुनाव लड़ता रहेगा और हारता जाएगा – संदेश साफ है।
दूसरी, अगर विपक्ष किसी भी क्षेत्र में सत्ता को चुनौती देगा, तो सत्ता के पास संवैधानिक औज़ारों का इतना बड़ा जखीरा है कि वे हर बार लोकतांत्रिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए भी नतीजे अपने पक्ष में मोड़ देंगे। तीसरी, “We the People” के नाम पर लिखे गए संविधान में आम आदमी की जो जगह थी, उसे अब सिर्फ कागज़ पर छोड़ दिया गया है।

यह संकेत दिया गया कि अब रास्ता शायद संसद के भीतर से नहीं निकलेगा। विपक्ष खुद मान चुका है कि पार्लियामेंट से पार्लियामेंट में आने का रास्ता अब आसान नहीं रहा।


जनता, संविधान और चुनाव – क्या अब सिर्फ़ नाम भर?

अंत में सवाल जनता से जुड़कर वहीं लौट आता है जहां से संविधान शुरू होता है – “We the People…” जब चुनाव आयोग पर उठे सवाल अब किसी एक घटना नहीं, बल्कि एक सिस्टम में तब्दील हो गए हों; जब सुप्रीम कोर्ट तक की भूमिका पर संदेह का साया हो; जब हर चुनाव का नतीजा पहले से अनुमानित लगे – तब लोकतंत्र का अर्थ आम नागरिक के लिए क्या बचता है?

बहस ने संकेत दिया कि अब लड़ाई सिर्फ़ तकनीकी चुनाव सुधार की नहीं, बल्कि उस रास्ते की खोज की है, जो संविधान को सचमुच ज़मीन पर उतार सके – चाहे वह रास्ता संसद के भीतर से निकले या संसद के बाहर जनता के साथ किसी नए राजनीतिक समीकरण से।


क्या है पृष्ठभूमि

यह पूरी बहस चुनाव सुधार पर लोकसभा में चली उस चर्चा का हिस्सा थी, जिसमें विपक्ष ने चुनाव आयोग की नियुक्ति, ईवीएम, वीवीपैट, मतदाता सूची, सीसीटीवी फुटेज, एसआईआर, और संवैधानिक संस्थाओं पर कथित कब्ज़ जैसे मुद्दों को जोड़ा।

एक तरफ़ मनीष तिवारी और अखिलेश यादव जैसे नेता बैलेट पेपर, पाँच-सदस्यीय चयन समिति और चुनाव आयोग की कानूनी सीमाओं पर बात कर रहे थे, तो दूसरी तरफ़ राहुल गांधी ने इसे महात्मा गांधी की हत्या से शुरू हुई एक लंबी राजनीतिक-वैचारिक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें आरएसएस, सरकार, चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और जांच एजेंसियों को एक ही फ्रेम में रखकर देखा गया।

LIVE: Discussion on Election Reforms | Parliament Winter Session https://t.co/sOuiOmuJBU

— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 9, 2025


मुख्य बातें (Key Points)
  • लोकसभा में चुनाव सुधार की बहस के दौरान राहुल गांधी ने वोट चोरी को “सबसे बड़ा एंटीनेशनल एक्ट” बताया और चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा किया।
  • मनीष तिवारी ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री–गृहमंत्री–लोकसभा विपक्ष के नेता वाली समिति में राज्यसभा विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस को जोड़कर पाँच-सदस्यीय संतुलित पैनल की मांग की।
  • अखिलेश यादव और मनीष तिवारी दोनों ने ईवीएम पर अविश्वास जताते हुए कुछ राज्यों में बैलेट पेपर से चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा, जबकि SIR और अन्य जांच प्रक्रियाओं में चुनाव आयोग की कानूनी सीमाओं की ओर इशारा किया गया।
  • बहस में यह बड़ा आरोप गूंजा कि चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, जांच एजेंसियों और अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर कब्ज़ की प्रक्रिया ने लोकतंत्र को एक “मैनेज्ड सिस्टम” में बदल दिया है, जहां विपक्ष के लिए संसदीय रास्ता और जनता के लिए वास्तविक चुनावी विकल्प लगातार सिमट रहे हैं।

 

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