Mother Tongue Education – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शिक्षा और विकास के मॉडल को लेकर एक बड़ा बयान दिया है। तिरुपति के दौरे पर पहुंचे भागवत ने स्पष्ट कहा कि ज्ञान को समाज के हर व्यक्ति तक पहुँचाने के लिए उसे उसी की भाषा में जानकारी मिलनी चाहिए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मातृभाषा में की गई पढ़ाई मनुष्य को न केवल बेहतर बनाती है, बल्कि ज्ञान का प्रसार भी तेजी से करती है। भागवत ने फिनलैंड की शिक्षा पद्धति का उदाहरण देते हुए भारतीय भाषाओं के महत्व को रेखांकित किया और विकास की उस अंधी दौड़ पर चिंता जताई जो समाज को दो वर्गों में बांट रही है।
फिनलैंड की शिक्षा पद्धति से सीख लेने की सलाह
मोहन भागवत ने दुनिया में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले फिनलैंड का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई केवल मातृभाषा में ही होती है। उन्होंने कहा कि फिनलैंड में बाहर से आने वाले लोगों को भी उनकी अपनी मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा दी जाती है और इसके लिए बाकायदा शिक्षकों की यूनिवर्सिटी बनाई गई है। भागवत के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने से बुद्धि का विकास और ग्रहण करने की क्षमता (Grasping Power) बेहतर होती है।
भारतीय भाषाओं में ही है धर्म का असली भाव
आरएसएस प्रमुख ने भारतीय भाषाओं के महत्व पर चर्चा करते हुए कहा कि ‘धर्म’ का जो असली भाव है, वह केवल हमारी भाषाओं में ही समाया हुआ है। उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय भाषाओं में धर्म के लिए जो विशिष्ट शब्द उपलब्ध हैं, वे अन्य विदेशी भाषाओं में नहीं मिलते। भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि इसमें एक संस्कृति और विशेषता होती है। इसीलिए, विज्ञान और ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने के लिए भारतीय भाषाओं को आधार बनाना अनिवार्य है।
गलत विकास की अवधारणा पर कड़ा प्रहार
विकास के आधुनिक मॉडल पर सवाल उठाते हुए भागवत ने कहा कि ऐसा विकास गलत है जो समाज में ‘सुखी’ और ‘दुखी’ (Have and Have Not) के दो वर्ग तैयार कर दे। उन्होंने मुख्यमंत्री की बात का समर्थन करते हुए कहा कि विकास ऐसा होना चाहिए जिसमें अवसरों की समानता हो। क्षमताओं में फर्क के कारण पराक्रम में अंतर हो सकता है, लेकिन संसाधनों और अवसरों की उपलब्धता में भेदभाव दुख और बैर पैदा करता है, जिससे समाज में सुख से जीना मुश्किल हो जाता है।
सहयोग बनाम संघर्ष की वैश्विक दृष्टि
भागवत ने ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ और ‘स्ट्रगल फॉर एग्ज़िस्टेंस’ जैसी पश्चिमी अवधारणाओं पर निशाना साधा। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि यदि 10 लोग मिलकर भूत का सामना करने के बजाय एक-दूसरे को पीछे छोड़कर भागेंगे, तो भूत सबको एक-एक करके खा जाएगा। दुनिया संघर्ष से नहीं, बल्कि सबके साथ मिलकर चलने से चलती है क्योंकि हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उन्होंने अधूरे विचार और अहंकार को विकास के मार्ग में बड़ी बाधा बताया।
विश्लेषण: जड़ों की ओर लौटने का आह्वान (Expert Analysis)
मोहन भागवत का यह बयान भारतीय शिक्षा प्रणाली में ‘स्व’ (Self) के बोध को जागृत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। लंबे समय से अंग्रेजी भाषा को सफलता का एकमात्र पैमाना माना जाता रहा है, लेकिन भागवत ने इसे चुनौती देते हुए फिनलैंड जैसे आधुनिक देश का उदाहरण दिया है। यह न केवल मनोवैज्ञानिक रूप से सही है, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक ज्ञान पहुँचाने का एकमात्र लोकतांत्रिक तरीका भी है। विकास की उनकी ‘भारतीय अवधारणा’ एक समावेशी समाज (Inclusive Society) की कल्पना करती है, जहां प्रतियोगिता का आधार संघर्ष नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व हो।
जानें पूरा मामला (Background)
तिरुपति में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान मोहन भागवत ने यह विचार साझा किए। वर्तमान में भारत की नई शिक्षा नीति (NEP) में भी मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया गया है। भागवत के इन बयानों को उसी नीतिगत बदलाव के समर्थन और भारतीय समाज की आंतरिक शक्ति को मजबूत करने के रूप में देखा जा रहा है।
मुख्य बातें (Key Points)
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Mother Tongue में शिक्षा लेने से बुद्धि का विकास और समझने की क्षमता बढ़ती है।
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शिक्षा के क्षेत्र में फिनलैंड की सफलता का आधार आठवीं तक मातृभाषा में पढ़ाई है।
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भारतीय भाषाओं में ‘धर्म’ और संस्कृति का अनूठा भाव है जो अन्य भाषाओं में नहीं मिलता।
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अवसरों की असमानता समाज में बैर और दुख पैदा करती है, जो गलत विकास है।
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दुनिया संघर्ष से नहीं, बल्कि आपसी जुड़ाव और मिलकर रहने से चलती है।
FAQ – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न






