नई दिल्ली, 02 अगस्त (The News Air): सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए अनुसूचित जाति (SC) में कोटे के अंदर कोटे को मंजूरी दे दी। संविधान पीठ ने 7-1 के बहुमत से फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने इस तरह ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में 2004 के अपने ही फैसले को पलट दिया। तब उसने अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ उप-जातियों को विशेष लाभ देने से इनकार कर दिया था। लेकिन अब गुरुवार को सुनाए फैसले के बाद एससी कोटे के भीतर सब कैटिगरी बनाई जा सकती है। कोटे में कोटा की ये कानूनी लड़ाई कब शुरू हुई? कब-कब अहम पड़ाव आए? आइए समझते हैं।
1975 में पंजाब सरकार के लिए गए एक फैसले से पड़ा बीज
कोटे के भीतर कोटे के मुद्दे की बुनियाद आज से 49 साल पहले पंजाब सरकार के एक फैसले से पड़ी। राज्य सरकार ने 25 प्रतिशत एससी कोटा को दो श्रेणियों में बांट दिया था। पहला- बाल्मिकी और मजहबी सिखों के लिए और दूसरा- अन्य अनुसूचित जातियों के लिए। ये बंटवारा ईवी चिन्नैया मामले में 2004 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक जारी रहा। तब पांच जजों की बेंच ने आंध्र प्रदेश शेड्यूल्ड कास्ट (रैशनलाइजेशन ऑफ रिजर्वेशंस) ऐक्ट, 2000 को रद्द कर दिया था।
60 के दशक से ही उठने लगी थी मांग
सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जातियों के आरक्षण के भीतर आरक्षण को लेकर बहस छिड़ी हुई है। इस बहस का केंद्र है, अनुसूचित जाति में भी उस समूह को आरक्षण का लाभ कैसे मिले जो बहुत ही ज्यादा पीछे रह गए हैं। दरअसल, 1960 के दशक से ही पिछड़े अनुसूचित जनजाति समूहों की शिकायत रही है कि आगे बढ़ चुके SC वर्ग आरक्षण का सारा लाभ हथिया लेते हैं।
इस मुद्दे पर सबसे पहले आंध्र प्रदेश सरकार ने साल 2000 में एक कानून बनाया था। इस कानून के तहत, SC वर्ग को चार समूहों में बांटा गया था। साथ ही, आरक्षण में इन चारों समूहों की हिस्सेदारी भी तय की गई थी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने ईवी चिन्नैया मामले में इस कानून को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि अनुसूचित जाति एक समरूप समूह है और इसे उप-श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता।
अलग-अलग राज्यों ने अलग-अलग समय पर बनाए आयोग
इसके बावजूद, कई राज्यों ने अपने यहां पिछड़े अनुसूचित जाति समूहों को आरक्षण का लाभ पहुंचाने के लिए समय-समय पर आयोगों का गठन किया और कानून भी बनाए।
आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग कोई नई नहीं है। अलग-अलग राज्यों में गठित आयोगों की रिपोर्ट बताती हैं कि आरक्षण का लाभ SC वर्ग के सभी समुदायों तक समान रूप से नहीं पहुंच पाया है।
आंध्र प्रदेश ने 1997 में जस्टिस पी. रामचंद्र राजू आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आरक्षण का लाभ मुख्य रूप से SC वर्ग के एक खास समुदाय को मिला है। आयोग ने SC वर्ग को चार श्रेणियों में विभाजित करने की सिफारिश की थी।
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में 2001 में हुकुम सिंह समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने पाया कि आरक्षण का लाभ सबसे पिछड़े वर्गों तक नहीं पहुंच पाया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि नौकरियों में सबसे ज्यादा फायदा यादवों को हुआ है। समिति ने SC/OBC सूची का उप-वर्गीकरण करने की सिफारिश की थी।
महाराष्ट्र में 2003 में लाहुजी साल्वे आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग को SC सूची में शामिल मांग जाति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने का काम सौंपा गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जाति पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर माने जाने वाले मांग समुदाय को आरक्षण का पर्याप्त लाभ नहीं मिला है।
इसी तरह, कर्नाटक में 2005 में न्यायमूर्ति ए.जे. सदाशिव पैनल का गठन किया गया था। इस पैनल को उन SC जातियों की पहचान करने का काम सौंपा गया था जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला था। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में 101 जातियों को चार श्रेणियों में बांटने और प्रत्येक श्रेणी को SC आरक्षण का 15 प्रतिशत हिस्सा देने की सिफारिश की थी।
बिहार में 2007 में महादलित पैनल ने SC सूची में शामिल 18 जातियों को अत्यंत कमजोर जातियों के रूप में शामिल करने की सिफारिश की थी।
इसी वर्ष, राजस्थान में न्यायमूर्ति जसराज चोपड़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गुर्जर समुदाय अत्यंत पिछड़ा हुआ है और इसे OBC को मिलने वाली सुविधाओं से बेहतर सुविधाएं दी जानी चाहिए।
तमिलनाडु में 2007 में न्यायमूर्ति एम.एस. जनार्दनम पैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अरुंधतियार समुदाय को आरक्षण में अलग से प्रावधान किए जाने चाहिए।
कर्नाटक में 2017 में के. रत्ना प्रभा समिति की सिफारिशों के आधार पर 2018 में एक कानून बनाया गया था। इस कानून के तहत, आरक्षण के आधार पर तरक्की पाने वाले सरकारी कर्मचारियों को वरीयता देने का प्रावधान किया गया था।
कई अहम पड़ावों से होकर अंजाम तक पहुंची कानूनी लड़ाई
- 1994: 27 जुलाई को आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले में मडिगा रिजर्वेशन पोराता समिति ने एससी के भीतर सब-कैटिगराइजेशन की मांग को लेकर लेकर आंदोलन शुरू किया। उन्होंने तर्क दिया कि SC के भीतर कुछ जातियां दूसरों की तुलना में अधिक पिछड़ी हैं और उन्हें आरक्षण का उचित लाभ नहीं मिल पाता।
- 1996: 2 सितंबर को आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम चंद्रबाबू नायडू ने इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिए रामचंद्र राजू आयोग का गठन किया।
- 1997 : 14 अप्रैल- एमआरपीएस चीफ मंदा कृष्णा मडिगा ने नायडू के पैतृक गांव नारवरिपल्ली से हैदराबाद तक की पदयात्रा शुरू की।
- 6 जून- मडिगा ने 560 किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा पूरी की। इसके बाद राज्य सरकार ने उप-वर्गीकरण पर अध्यादेश जारी किया
- 18 जून- मामला हाई कोर्ट में पहुंचा। अदालत ने आंध्र प्रदेश सरकार के अध्यादेश को रद्द कर दिया।
- 13 अक्टूबर- राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की
- 1998 : अवभाजित आंध्र प्रदेश की विधानसभा ने उप-वर्गीकरण के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया।
- 1999 : 1 दिसंबर- राष्ट्रपति के आर नारायणन ने उप-वर्गीकरण को मंजूरी दी।
- 2000- 6 जून- एससी का उप-वर्गीकरण लागू हुआ
- 2004 : 5 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने उप-वर्गीकरण को रद्द किया। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि राज्य के पास ऐसा करने का अधिकार ही नहीं है।
- 2006 : 9 मार्च- केंद्र ने उप-वर्गीकरण को लेकर एक कमिटी बनाने का फैसला किया।
- 2007 : 19 मई- जस्टिस उषा मेहरा को कमिटी का प्रमुख बनाया गया।
- 2008: 1 मई- मेहरा कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की।
- 2009 : आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम वाईएस राजशेखर रेड्डी ने केंद्र ने पत्र लिखकर उप-वर्गीकरण पर संवैधानिक गारंटी की मांग की।
- 2014 : तेलंगाना के गठन के बाद, केसीआर सरकार ने राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र से उप-वर्गीकरण पर फैसला लेने का अनुरोध किया।
- 2017 : एमआरपीएस के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की.
- 2023 : 11 नवंबर- पीएम मोदी ने सिकंदराबाद की रैली में ऐलान किया कि केंद्र सरकार एससी के उप-वर्गीकरण का समर्थन करेगी।
- 2024 : 1 अगस्त- सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि राज्य अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण कर सकती है।