Parliament Winter Session: देश की राजधानी दिल्ली गैस चेंबर बनी हुई है, लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि “आप भी मौसम का मजा लीजिए।” संसद के शीतकालीन सत्र से ठीक पहले आया यह बयान और सत्र की अवधि को मात्र 15 दिनों तक सीमित कर देना, सरकार की मंशा पर कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है। आखिर सरकार क्यों नहीं चाहती कि संसद लंबे समय तक चले? क्या विपक्ष की जनहित के मुद्दों पर चर्चा की मांग वाकई सिर्फ एक ‘ड्रामा’ है?
‘मौसम का मजा’ बनाम जहरीली हकीकत
जिस दिल्ली की हवा में जहर घुला है और लोग अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं, वहां प्रधानमंत्री का यह बयान कि “मौसम का मजा लीजिए”, संवेदनशीलता के लिहाज से कई सवाल खड़े करता है। विपक्ष का कहना है कि आज जब जनता अपने फेफड़ों की चिंता कर रही है, तब सरकार मौसम का लुत्फ उठाने की बात कर रही है। यह बयान उस समय आया है जब विपक्ष संसद में जनता से जुड़े गंभीर मुद्दों, खास तौर पर एसआईआर (SIR) और प्रदूषण पर चर्चा की मांग कर रहा है। लेकिन, प्रधानमंत्री ने इसे विपक्ष का ‘ड्रामा’ करार दिया है। सवाल यह है कि अगर आज विपक्ष की मांग ड्रामा है, तो कल जब जनता अपनी तकलीफ लेकर सड़कों पर आएगी, तो क्या उसे भी ड्रामा कह दिया जाएगा?
चुनाव आयोग का ‘डांस’ और बीएलओ के आंसू
सरकार ही नहीं, चुनाव आयोग के रवैये ने भी सबको हैरान कर दिया है। एक तरफ एसआईआर (वोटर लिस्ट रिविजन) के काम के भारी दबाव के चलते करीब 40 बीएलओ (BLO) की जान जाने की खबरें आ रही हैं, वहीं दूसरी तरफ चुनाव आयोग तनाव घटाने के नाम पर बीएलओ के ‘ब्रेक डांस’ का वीडियो ट्वीट कर रहा है। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा और कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने पूछा कि क्या आयोग उन बीएलओ के लिए सांत्वना के दो शब्द नहीं बोल सकता जिनकी मौत काम के बोझ तले दबकर हो गई? कोलकाता की सड़कों पर बीएलओ प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन आयोग डांस वीडियो शेयर करने में व्यस्त है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।
संसद सत्र: 135 दिन से घटकर 55 दिन पर आया
संसद के रिकॉर्ड गवाह हैं कि सदन के सत्र लगातार छोटे होते जा रहे हैं। 1952-57 के बीच लोकसभा साल में औसतन 135 दिन चलती थी, जो अब 2019-24 के बीच घटकर मात्र 55 दिन रह गई है। मौजूदा शीतकालीन सत्र के लिए सिर्फ 15 दिन का समय दिया गया है। तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने इसे ‘पार्लियामेंटोफोबिया’ (संसद का डर) करार दिया है। सरकार तर्क देती है कि विपक्ष हंगामा करता है इसलिए सत्र छोटा है, लेकिन असल सवाल यह है कि हंगामा क्यों होता है? जब सरकार विपक्ष के किसी भी स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion) को स्वीकार नहीं करती, तो हंगामा होना लाजमी है।
बिना चर्चा के पास हो रहे कानून
मोदी सरकार की ‘डिलीवरी’ का एक और पहलू यह है कि कानूनों को बिना किसी ठोस चर्चा के पास कराया जा रहा है। 2025 के बजट सत्र में केवल 28% तारांकित प्रश्नों के मौखिक उत्तर दिए गए। इतना ही नहीं, 17वीं लोकसभा में 35% विधेयक एक घंटे से भी कम की चर्चा में पास कर दिए गए। संसदीय समितियों, जिनका काम विधेयकों की गहराई से जांच करना होता है, उन्हें भी अब नजरअंदाज किया जा रहा है। 2014 से 2019 के बीच मात्र 25% और उसके बाद सिर्फ 16% विधेयक ही समितियों के पास भेजे गए। यह जल्दबाजी लोकतंत्र की सेहत के लिए हानिकारक है।
क्या है पृष्ठभूमि
संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले ही सरकार और विपक्ष के बीच तलकी बढ़ गई है। विपक्ष एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिविजन) में पारदर्शिता और चुनावी प्रक्रियाओं पर बहस चाहता है। उनका आरोप है कि एसआईआर के लिए जानबूझकर कम समय दिया गया है और बीएलओ पर अनुचित दबाव बनाया जा रहा है। वहीं, सरकार ‘वंदे मातरम’ के 150 साल पूरे होने पर चर्चा कराना चाहती है। विपक्ष का मानना है कि यह असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश है।
मुख्य बातें (Key Points)
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संसद का शीतकालीन सत्र मात्र 15 दिनों का है, जिसे विपक्ष नाकाफी बता रहा है।
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पीएम मोदी ने विपक्ष की मांगों को ‘ड्रामा’ बताया और लोगों से मौसम का मजा लेने को कहा।
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चुनाव आयोग द्वारा डांस वीडियो ट्वीट करने पर विवाद, जबकि काम के दबाव में बीएलओ की जान जा रही है।
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संसद की बैठकों का औसत समय साल दर साल घटता जा रहा है (135 दिन से 55 दिन)।
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अधिकांश विधेयक संसदीय समितियों की जांच के बिना ही पास किए जा रहे हैं।






