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Opinion: लड़के… लड़के ही बने रहें, ये अब नहीं चल सकता

गहरे लैंगिक पूर्वग्रहों की सीख बचपन से ही मिलने लगती है। इस जहरीली असमानता की सीख से मुक्ति ही महिलाओं की समाज और संस्थानों से सबसे बड़ी चाहत है।

The News Air by The News Air
Friday, 8th March, 2024
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Opinion: लड़के... लड़के ही बने रहें, ये अब नहीं चल सकता - unlearning inequality is what women need from both society and institutions
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लेखिका: मिहिरा सूद – विश्व भ्रमण पर निकली एक स्पेनिशे जोड़ी भारत पहुंची। पिछले हफ्ते यहां उस जोड़ी पर बर्बर हमला किया गया और महिला का सामूहिक बलात्कार भी हुआ। सोचिए, यह जोड़ी 63 देश की यात्रा कर चुकी थी, लेकिन उसे कहीं ऐसे हादसे का सामना नहीं करना पड़ा था। इस घटना ने व्यापक ध्यान आकर्षित किया, जिसमें कई सोशल मीडिया यूजर्स ने भारत में यौन हिंसा के अपने अनुभव साझा किए। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने ऐसे यूजर्स पर देश को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए जवाब दिया जो उनके पद के अनुकूल नहीं है। निश्चित रूप से भारत एकमात्र ऐसा देश नहीं है जहां यौन अपराध होते हैं, लेकिन जब कोई बिना किसी घटना के 63 देशों की बाइक यात्रा करती है और भारत पहुंचने पर ही उसका बलात्कार किया जाता है, तो यह चिंतन का विषय है ही।

इसे केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना नहीं चाहिए। इससे होता यह है कि इस अपराध को ऐसी विसंगति मान ली जाती है जो बाहरी लोग करते हैं, ना कि हमारे सामाजिक मानसिकता को दर्शाते हैं। वास्तव में, यौन अपराध हमारे भीतर मौजूद एक गहरी खराबी का केवल बाहरी लक्षण है: एक समाज के रूप में हम अभी भी खुद को पुरुषों और महिलाओं के साथ समान व्यवहार करने में सक्षम नहीं बना सके हैं।

सिद्धांतकारों ने माना है कि पितृसत्ता की उत्पत्ति खेती के मकसद से बसने वाले समाज की शुरुआत के साथ हुई थी और धन-संपत्ति के स्वामित्व को लेकर इस भाव को बढ़ावा मिला। एक से दूसरी पीढ़ी को संपत्ति का ट्रांसफर किए जाने की इच्छा ने महिलाओं के प्रजनन को नियंत्रित करने की आवश्यकता पैदा की क्योंकि उसके बिना बच्चे के माता-पिता का निर्धारण करने का कोई तरीका नहीं था।इस प्रकार महिलाओं के शरीर की सख्त निगरानी शुरू हुई। महिलाओं की पवित्रता पर प्रीमियम लग गया जिससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई जहां परिवार का मान-सम्मान महिलाओं पर निर्भर हो गया। दूसरी तरफ, महिलाओं के शरीर पुरुषों के लिए युद्ध के मैदान बन जाते हैं। कम उम्र में बेटियों की शादी करने का उतावलापन, दहेज की मांग, बेटे की वरीयता और कन्या भ्रूण हत्या, ऑनर किलिंग, बुनियादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध आदि कुरीतियां आज भी जारी हैं।

कई पाठक ऊपर की बातें स्वीकार करने से कतराएंगे। उन्हें लगेगा कि निश्चित रूप से ये बातें दूसरों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। लेकिन बारीकी से देखें तो यहां तक कि हमारे समानतावादी जीवन में भी यही सच है। पैदा होते की बच्चे को गुलाबी या नीले रंग के कोड से उसके बेटी या बेटा होने की घोषणा कर दी जाती है। बच्चों के खिलौनों से लेकर स्कूल के सबजेक्ट्स और एक्टिविटीज तक, लैंगिक असमानता की रेखा मोटी होती जाती है। फिर करियर ऑप्शन और घरेलू जिंदगी के विभिन्न पहलू जुड़ जाते हैं। यहां भी लैंगिक आधार पर काम के बंटवारे का परंपरागत पैटर्न ही लागू होता है जिसके लिए बचपन से ही तैयारी करवाई जाती है।फिर हम मान लेते हैं कि ये प्राथमिकताएं जन्मजात हैं। इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि हम मानते हैं, और अपने बच्चों को बताते हैं कि शांत, आज्ञाकारी और मेहनती होना ही लड़कियां होती हैं, जबकि लड़के…लड़के होंगे। लड़कियों को सिखाया जाता है कि उनकी सबसे कीमती दौलत यह है कि वे कैसी दिखती हैं, कि उनका अंतिम लक्ष्य विवाह है, कि रास्ते में वे जो भी करियर विकसित करती हैं वो अपने पति के सामने गौण होने चाहिए। वो उसकी खुशी के लिए काम करती हैं, वो उससे अधिक नहीं कमा सकती हैं। ऊपर से वो कभी ये नहीं कह सकती हैं कि नौकरी या बिजनस के कारण घर और बच्चों की देखभाल में कमी रह गई।

भारत उन देशों की लिस्ट में निचले से पांचवें स्थान पर हैं जहां पुरुष घर के काम में योगदान करते हैं। भारत महिलाओं के स्वास्थ्य और आर्थिक भागीदारी में भी सबसे नीचे है। महिलाएं स्वास्थ्य सेवा पर कम खर्च करती हैं, स्वास्थ्य और पोषण सर्वेक्षणों में खराब प्रदर्शन करती हैं, और पुरुषों से कम संख्या में होती हैं। जबकि अधिकांश सर्वेक्षणों लोग महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिए जाने की वकालत करते हैं, लेकिन जब समान वेतन, कामकाजी माताओं, अपने जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर केंद्रित प्रश्न पूछे जाते हैं, तो जवाब बदल जाते हैं।हम यह पहचानने में विफल रहते हैं कि असमानता केवल विभिन्न लिंगों द्वारा निभाई जाने वाली विभिन्न भूमिकाओं का प्रश्न नहीं है। यह महिलाओं के खिलाफ हिंसा का भी चालक है। एक परिवार में सौम्य लगने वाला विभेदकारी व्यवहार एक अरब गुणा हो जाने पर खतरनाक हो जाता है। जब महिलाओं के पास कम संसाधन होते हैं, कम शक्ति होती है, वो कम मुखर होती हैं, सार्वजनिक जीवन में कम दिखाई देती हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि पुरुषों ने उन्हें किस कदर बेड़ियों में जकड़ रखा है।

फिर हमारे संस्थान भी तो हमारे समाज के ही प्रतिनिधि हैं। जब तक हम नहीं बदलते, लैंगिक मोर्चे पर बेहतर शासन के लिए कोई राजनीतिक पहल की गुंजाइश भी नहीं पैदा होगी। राजनीति वहीं तक देख पाती है जहां तक चुनावी फायदा हो, और जब तक महिला सशक्तीकरण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता खोखली रहेगी, तब तक हमारी राजनीति भी सीमित ही रहेगी।उत्तराखंड में पारित हालिया समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को देखें। महिलाओं के अधिकारों की आड़ में प्रावधान किया गया कि वयस्क महिलाएं माता-पिता की सहमति के बिना लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकती हैं। हाल ही में सरकार की एक नोटिफिकेशन के अनुसार, विवाहित महिलाओं को अपने मायके के नाम का इस्तेमाल करने के लिए अपने पति की अनुमति की आवश्यकता होती है।

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महिलाओं को नियमित रूप से गर्भपात से वंचित किया जा रहा है, वैवाहिक बलात्कार अभी भी एक अपराध नहीं है, सरकार भी सुप्रीम कोर्ट में इसका जोरदार विरोध कर रही है। कम से कम 21 सांसदों पर महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले लंबित हैं। 2019 के चुनाव पर गौर करें तो महिला विरोधी अभियान के तेज होने के साथ और अधिक गलत बयानी की आशंका होती है।निष्कर्ष यह है कि हम गहरे लैंगिक पूर्वग्रहों और वास्तव में जहरीली मर्दानगी संस्कृति वाले देश हैं जिसमें हमारे लड़के पले-बढ़े हैं। हम सब इसके शिकार हैं। हम सभी इसके दोषी भी हैं। इससे बाहर निकलने के लिए हमें उन मुद्दों पर गंभीरता से बात करनी होगी जिनका सामना करना असहज लगता है। इस प्रक्रिया में बहुत कुछ सुनना और सीखना होगा। यही इस महिला दिवस पर हमारी प्रतिबद्धता होनी चाहिए।

लेखक महिला अधिकारों की वकील हैं।

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