MGNREGA Bill Passed in Lok Sabha: बुधवार 18 दिसंबर 2025 की रात देश के 12 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण मजदूरों की किस्मत बदल गई। लोकसभा में बहुमत के दम पर केंद्र सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून यानी मनरेगा को खत्म करने वाला बिल पास करा लिया।
इस बिल की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें से महात्मा गांधी का नाम पूरी तरह हटा दिया गया है। अब इस योजना का नाम होगा “विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण” यानी “जी राम जी”।
विपक्ष ने इस बिल का जमकर विरोध किया। सांसदों ने वेल में उतरकर नारे लगाए और बिल की प्रतियां फाड़ दीं। लेकिन संख्या बल के आगे उनकी एक न चली।
कैसे हुआ यह सब कुछ इतनी जल्दी?
इस बिल को जिस तेजी से लाया और पास कराया गया वह हैरान करने वाला है। 12 दिसंबर को मोदी कैबिनेट ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दी। 15 दिसंबर को लोकसभा की कार्यवाही में इसे शामिल किया गया। 16 दिसंबर को बिल पेश हुआ और 18 दिसंबर को पास करा लिया गया।
संसद का शीतकालीन सत्र सिर्फ 15 कार्य दिवसों का था। इतने छोटे सत्र में इतना बड़ा बिल आखिरी वक्त में लाया गया। विपक्ष मांग करता रहा कि इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाए ताकि इसकी गहराई से जांच हो सके। लेकिन सरकार ने इनकार कर दिया।
जब बिल पास हुआ तब लोकसभा की घड़ी में रात के 1 बजकर 33 मिनट हो रहे थे। इतनी देर रात तक बहस चली। करीब 14 घंटे तक विपक्ष ने सरकार को रोके रखा, समझाते रहे, लेकिन अंत में हार गए।
क्या बदला है नए कानून में?
पुराने मनरेगा और नए बिल में कई बड़े बदलाव किए गए हैं जो सीधे मजदूरों की जिंदगी पर असर डालेंगे। पहला बड़ा बदलाव पैसों के बंटवारे में है। पहले मनरेगा में 90 प्रतिशत पैसा केंद्र सरकार देती थी और 10 प्रतिशत राज्य सरकार। अब यह बदलकर 60-40 कर दिया गया है। यानी अब राज्यों को अपनी जेब से 40 प्रतिशत पैसा लगाना होगा।
द हिंदू के विश्लेषण के मुताबिक इस बदलाव से राज्यों पर करीब 28,667 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। सबसे ज्यादा मार उत्तर प्रदेश पर पड़ेगी जहां करीब 3000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार आएगा।
100 की जगह 125 दिन काम का दावा कितना सच?
सरकार बड़े जोर-शोर से कह रही है कि अब 100 दिन की जगह 125 दिन काम मिलेगा। लेकिन हकीकत कुछ और ही है।
हिंदू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कई सालों में औसतन 50 से 52 दिन ही काम दिया गया। सबसे ज्यादा काम 2020-21 में मिला जब कोविड का दौर था। तब भी औसतन 52 दिन ही काम मिला और उसके लिए सरकार को 1 लाख करोड़ से ज्यादा खर्च करने पड़े।
विपक्ष का सवाल सीधा है। जब 100 दिन का काम कभी नहीं दिया तो कागज पर 125 लिखने से क्या फर्क पड़ेगा? 125 तो छोड़िए, 200 भी लिख दीजिए। जब देना ही नहीं है तो लिखने से क्या होता है?
मांग आधारित से आपूर्ति आधारित बन गया कानून
पुराना मनरेगा “डिमांड ड्रिवन” यानी मांग आधारित था। इसका मतलब यह था कि अगर कोई गरीब आदमी जाकर काम मांगता था तो उसे काम देना सरकार की जिम्मेदारी थी। यह उसका कानूनी अधिकार था।
अब नया बिल “सप्लाई ड्रिवन” है। इसका मतलब यह है कि अब सरकार तय करेगी कि काम देना है या नहीं। पैसा खत्म हो गया तो बोल देंगे कि भाई तुम्हारे लिए पैसा नहीं है।
जाने-माने अर्थशास्त्री जां द्रेज ने साफ कहा है कि मनरेगा खत्म हो गया है। जो नया कानून आ रहा है वह मनरेगा जैसा भी नहीं है। यह रिफॉर्म नहीं रोल बैक है।
केंद्र सरकार तय करेगी कहां चलेगी योजना
नए बिल में एक और खतरनाक प्रावधान है। इसके सेक्शन 5 में लिखा है कि यह योजना सिर्फ उन्हीं ग्रामीण इलाकों में चलेगी जिन्हें केंद्र सरकार नोटिफाई करेगी।
यानी पहले पूरे देश के ग्रामीण इलाकों में यह कानून लागू था। अब केंद्र तय करेगा कि किस गांव में यह चलेगी और किस गांव में नहीं।
सीपीएम सांसद जॉन ब्रिटास ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि इस कानून से ग्राम पंचायतों की भूमिका कमजोर हो जाती है। पंचायतों की जगह अब पीएम गतिशक्ति, जीआईएस मैप और केंद्रीय सरकार के टेम्पलेट इस्तेमाल होंगे। गरिमा की जगह डाटा पॉइंट ने ले ली है।
खेती के मौसम में 60 दिन काम नहीं मिलेगा
नए बिल में एक और बड़ा बदलाव है। खेती के सीजन में 60 दिनों तक इस योजना के तहत काम नहीं दिया जाएगा। सरकार का तर्क है कि मनरेगा के कारण खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते। लेकिन यह तर्क झूठ पर खड़ा है।
2018 में खुद प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर नीति आयोग ने एक कमेटी बनाई थी। इसमें बीजेपी के मुख्यमंत्री भी थे। उस कमेटी ने साफ कहा था कि मनरेगा के कारण खेती के सीजन में मजदूरी या मजदूरों की उपलब्धता पर कोई असर नहीं पड़ता।
अब क्या होगा? खेती के मौसम में मजदूरों के पास मोलभाव की ताकत खत्म हो जाएगी। उन्हें पता होगा कि मनरेगा में काम मिलने वाला नहीं है। तो जितना मिल रहा है उतने में काम करो। खेतिहर मजदूरों की मजदूरी अब बढ़ना तो दूर, गिर भी सकती है।
विपक्ष ने कैसे किया विरोध?
संख्या नहीं थी लेकिन विपक्ष के पास आत्मबल था। जब से यह बिल पेश हुआ तब से विपक्षी सांसद हर दिन संसद परिसर में प्रदर्शन करते रहे।
लोकसभा में कांग्रेस के गुरजीत सिंह औजला, संजना जाटव, सीपीएम के एस वेंकटेशन, समाजवादी पार्टी के नीरज मौर्या, प्रिया सरोज, जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के मियां अल्ताफ अहमद जैसे सांसद देर रात तक बोलते रहे।
कांग्रेस सांसद ने पूछा कि क्या नाम बदल देना ही विकास है? क्या गरीब का पेट नाम बदलने से भर जाता है? क्या शब्दों के खेल से मजदूर की हथेलियों में काम आ जाता है?
एक सांसद ने कहा कि पीएचडी और इंजीनियरिंग करके भी लोग लेबर का काम ढूंढ रहे हैं। गांव में बीआरओ, पीएचई, पीडब्ल्यूडी का काम मशीनों ने ले लिया। लेबर का काम बचा था तो मनरेगा में बचा था। उसे भी खत्म कर दिया।
गांधी का नाम क्यों हटाया?
यह सबसे बड़ा सवाल है जिसका सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान जब जवाब देने खड़े हुए तो गांधी और दीनदयाल उपाध्याय की लंबी-लंबी परिभाषाएं पढ़ने लगे। कभी राम राज्य की बात करने लगे, कभी मोदी के आदर्श गांव की।
उन्होंने कहा कि बापू हमारे दिलों में बसते हैं। बापू आज मुद्रा योजना में जिंदा हैं, स्किल इंडिया में जिंदा हैं, अटल पेंशन योजना में जिंदा हैं।
लेकिन विपक्ष का सवाल सीधा था। अगर गांधी इतने दिलों में बसते हैं तो उनका नाम क्यों हटाया? जिस गांधी के सपने पूरे करने की बात हो रही है, उसी का नाम इस कानून से क्यों निकाला गया?
राम का नाम जोड़कर गांधी का नाम हटाया
नए बिल का नाम गौर से देखिए। “विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण”। इसका शॉर्ट फॉर्म बनता है “जी राम जी”। आजीविका शब्द जोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि रोजगार का मतलब ही आजीविका होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई “ब्लंडर मिस्टेक” लिखे। दोनों का मतलब एक ही है।
लेकिन “जी राम जी” बनाने के लिए आजीविका जोड़ा गया। ताकि राम का नाम आ जाए और विरोध करने वालों को राम विरोधी बताया जा सके।
शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि पता नहीं क्यों जी राम जी नाम आ गया तो ये भड़क गए। महात्मा गांधी खुद राम राज्य की बात करते थे। उनके अंतिम शब्द भी हे राम थे।
2005 में सबकी सहमति से बना था कानून
मनरेगा 2005 में संसद में सर्वसम्मति से पास हुआ था। उस समय सभी दलों ने मिलकर यह माना था कि काम का अधिकार लोकतंत्र का अभिन्न अंग है।
राज्यसभा सांसद मनोज झा ने सभी दलों के सांसदों को एक भावुक पत्र लिखा है। उन्होंने अपील की है कि इस कानून की रक्षा करें।
उन्होंने लिखा कि हमें अपनी पाठ्य पुस्तकों का पहला पन्ना याद होगा जिस पर गांधी जी का ताबीज अंकित था। गांधी ने कहा था कि हर निर्णय लेने से पहले सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति को याद करो और सोचो कि यह निर्णय उसके काम आएगा या नहीं।
मनोज झा ने कहा कि मनरेगा ने दो दशकों में संकट के समय करोड़ों परिवारों को सहारा दिया। महिलाओं की श्रम में भागीदारी बढ़ाई। सबसे बड़ी बात, काम को दान नहीं बल्कि अधिकार के रूप में स्थापित किया।
12 करोड़ मजदूरों को खबर तक नहीं
सबसे दुखद बात यह है कि जिन 12 करोड़ मजदूरों की जिंदगी से जुड़ा यह कानून है, उन्हें इसकी खबर तक नहीं पहुंची। बिल को इतनी जल्दी लाया और पास किया गया कि मजदूर अपनी राय भी नहीं बना पाए। जब तक उन्हें पता चलेगा, तब तक यह कानून राष्ट्रपति की मंजूरी भी पा चुका होगा।
मनरेगा से जुड़े विशेषज्ञों ने प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस की। नरेगा संघर्ष समिति ने 19 दिसंबर को देशव्यापी प्रदर्शन का आह्वान किया है। हरियाणा और झारखंड में प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इनकी कोई खबर नहीं।
बिल में क्या लिखा है?
बिल के सेक्शन 37-1 में साफ लिखा है कि मनरेगा के सभी रूल, नोटिफिकेशन, स्कीम, ऑर्डर और गाइडलाइन रिपील यानी खत्म हो जाएंगी।
जां द्रेज ने इस पर कहा है कि यह कानून सिर्फ रिनेम यानी नाम बदलना नहीं है। यह रिपील है। पूरी तरह खत्म करना है। और यह उनका शब्द नहीं है, यह नए बिल का शब्द है।
आम आदमी पर क्या असर पड़ेगा?
इस बिल का सीधा असर गांवों में रहने वाले गरीब परिवारों पर पड़ेगा। पहला, काम मांगने का कानूनी अधिकार खत्म हो जाएगा। अब सरकार की मर्जी होगी कि काम दे या न दे।
दूसरा, राज्य सरकारों पर पैसों का बोझ बढ़ेगा। जिन राज्यों के पास पहले से पैसे नहीं हैं, वहां यह योजना ठंडे बस्ते में चली जाएगी।तीसरा, खेती के मौसम में मजदूरों की मोलभाव करने की ताकत खत्म हो जाएगी। उनकी मजदूरी गिर सकती है।
चौथा, सिर्फ उन्हीं गांवों में काम मिलेगा जिन्हें केंद्र सरकार नोटिफाई करेगी। बाकी गांव छूट जाएंगे।
सांसद आदर्श ग्राम योजना का क्या हुआ?
शिवराज सिंह चौहान जब मोदी के आदर्श गांव की बात कर रहे थे, तब एक बात याद आती है। 2014 में मोदी सरकार के पहले साल में सांसद आदर्श ग्राम योजना लाई गई थी। उसका क्या हुआ? 2014 से 2026 होने को आ गया। अब तो उसका नाम खुद प्रधानमंत्री मोदी भी नहीं लेते।
जो योजना दस साल पहले लाई गई वह गायब हो गई। अब नई योजना पर कितना भरोसा किया जाए?
संपादकीय विश्लेषण
यह बिल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय बनकर दर्ज होगा। जिस तरह से इसे आनन-फानन में लाया गया, जिस तरह संसदीय समिति के पास भेजने से इनकार किया गया, जिस तरह 12 करोड़ मजदूरों को अंधेरे में रखा गया, यह सब सवाल खड़े करता है।
मनरेगा सिर्फ एक योजना नहीं थी। यह गरीबों को काम का कानूनी अधिकार देने वाला पहला कानून था। इसे “ऑफ द पीपल, बाय द पीपल, फॉर द पीपल” यानी जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए बनाया गया कानून कहा जाता था।
अब इसकी जगह एक ऐसा कानून आ रहा है जहां केंद्र सरकार की मर्जी चलेगी। राज्यों पर बोझ डाला जाएगा। और गरीब के हाथ से उसका अधिकार छीन लिया जाएगा।
सबसे बड़ी बात, राम का नाम जोड़कर गांधी का नाम हटाया गया है। यह समझना जरूरी है कि राम और गांधी में कोई टकराव नहीं है। गांधी के आखिरी शब्द “हे राम” ही थे। लेकिन राम का नाम इसलिए जोड़ा गया ताकि विरोध करने वालों को राम विरोधी बताया जा सके।
मुख्य बातें (Key Points)
• मनरेगा खत्म: लोकसभा में 18 दिसंबर 2025 को बहुमत के दम पर नया बिल पास, महात्मा गांधी का नाम हटाया गया।
• फंडिंग बदली: पहले 90% केंद्र और 10% राज्य देता था, अब 60-40 होगा जिससे राज्यों पर 28,667 करोड़ का अतिरिक्त बोझ।
• 125 दिन का झांसा: सरकार 125 दिन काम का दावा कर रही है जबकि अब तक औसतन 50-52 दिन ही काम दिया गया।
• अधिकार खत्म: मांग आधारित कानून की जगह अब सरकार की मर्जी पर निर्भर होगा काम मिलेगा या नहीं।
• विपक्ष का विरोध: 14 घंटे चली बहस, बिल की कॉपियां फाड़ी गईं, लेकिन बहुमत के आगे सब बेकार।






