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MGNREGA Bill 2025: गांधी जी का नाम हटा, अब 60 दिन काम नहीं मिलेगा, जानें क्या बदला?

मनरेगा में बड़ा बदलाव, 100 दिन की गारंटी खत्म, खेती के सीजन में मजदूरों को नहीं मिलेगा रोजगार

The News Air by The News Air
सोमवार, 15 दिसम्बर 2025
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MGNREGA Bill 2025
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MGNREGA Bill 2025 : मोदी सरकार ने संसद में एक ऐसा बिल पेश किया है जिससे मनरेगा का पूरा चेहरा बदल जाएगा। इस बिल में न सिर्फ महात्मा गांधी का नाम हटाया गया है बल्कि पहली बार ऐसा प्रावधान किया गया है कि साल में 60 दिन मजदूरों को काम नहीं दिया जाएगा। देश भर में 12 करोड़ से ज्यादा मजदूर इस योजना पर निर्भर हैं और उनके लिए यह खबर किसी सदमे से कम नहीं है।


क्या है नए बिल का नाम

नए कानून का नाम होगा “विकसित भारत राष्ट्रीय गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन” यानी वीबी-जी-राम-जी बिल 2025। इसे पढ़ने में “जी राम जी” जैसा लगता है और कई लोगों का मानना है कि यह नाम इस तरह से सजाया गया है ताकि लोग सवाल न पूछें।

गौर करने वाली बात यह है कि 2009 से यह योजना गांव-गांव में मनरेगा के नाम से जानी जाती है। पूरे देश में 12 करोड़ मजदूर इसी नाम से वाकिफ हैं और इसके सारे कागजात भी इसी नाम से बने हैं। मनरेगा का एक कार्ड भी होता है जो हर मजदूर के पास रहता है। अब यह सब कुछ बदलना होगा और इस पहचान का खत्म होना तय है।


60 दिन काम न देने की गारंटी

नए बिल की सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इसमें साल में 60 दिन काम न देने का प्रावधान किया गया है। बिल की धारा 6 में साफ लिखा है कि खेती के सीजन में यानी बुआई और कटाई के दौरान मनरेगा के तहत कोई काम शुरू नहीं किया जाएगा।

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धारा 6.2 में और भी साफ शब्दों में कहा गया है कि सरकार पहले से 60 दिनों की अवधि तय करेगी जिसमें इस कानून के तहत काम नहीं होगा। इसमें लिखा है कि “टू फैसिलिटेट एडिक्वेट अवेलेबिलिटी ऑफ एग्रीकल्चरल लेबर ड्यूरिंग पीक एग्रीकल्चरल सीजन” यानी खेती के व्यस्त मौसम में खेती के लिए पर्याप्त मजदूर उपलब्ध रहें इसलिए इस दौरान मनरेगा में काम नहीं होगा।

सवाल यह उठता है कि क्या कोई सरकार काम न देने का कानून बना सकती है? गारंटी का मतलब गारंटी होता है न कि जब सरकार की मर्जी हो तब रोजगार मिले। यह पहली बार है जब रोजगार गारंटी योजना में काम न देने की गारंटी दी जा रही है।


मजदूरों की मजदूरी गिरेगी

इस प्रावधान का सीधा असर खेतिहर मजदूरों की मजदूरी पर पड़ेगा। अब तक मनरेगा के कारण मजदूरों के पास मोलभाव की ताकत थी क्योंकि खेती के सीजन में किसान को मजदूर चाहिए होते थे और उसी समय मनरेगा में भी काम मिलता था। इससे मजदूरी की दर अपने आप बढ़ जाती थी।

अब जब खेती के सीजन में मनरेगा में काम ही नहीं मिलेगा तो मजदूर के पास कोई विकल्प नहीं बचेगा। उसे किसान की शर्तों पर काम करना होगा चाहे मजदूरी कम ही क्यों न मिले। इससे मजदूरी की दरें गिर जाएंगी और सबसे गरीब तबके को नुकसान होगा।

मनरेगा का असली मकसद यही था कि लेबर मार्केट को टाइट किया जाए ताकि रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा हों और मजदूरों को अच्छी मजदूरी मिले। लेकिन नया कानून ठीक उल्टा कर रहा है। सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि खेती के लिए मजदूर सस्ते में उपलब्ध रहें। इन मजदूरों की मजदूरी की दरें पिछले एक-दो दशक से रुकी हुई हैं और अब यह और भी बुरी हो सकती हैं।


125 दिन की गारंटी लेकिन असलियत कुछ और

संसदीय समिति ने सुझाव दिया था कि मनरेगा में 150 दिन काम की गारंटी होनी चाहिए ताकि ग्रामीण मजदूरों को और ज्यादा दिन रोजगार मिल सके। लेकिन नए बिल में सिर्फ 125 दिन की गारंटी दी जा रही है और वो भी इस शर्त के साथ कि 60 दिन काम नहीं मिलेगा।

इसका सीधा हिसाब लगाएं तो पहले 100 दिन की गारंटी थी और वो पूरी थी। अब 125 दिन की गारंटी है लेकिन उसमें से 60 दिन कट जाएंगे। मतलब असल में मजदूरों को पहले से कम दिन काम मिलने की संभावना है। गारंटी को पूरी तरह खोखला कर दिया गया है।

एक और सवाल यह भी है कि जरूरी नहीं कि मनरेगा में काम करने वाले सभी मजदूरों को खेती में काम मिल ही जाए। जिन्हें खेती में काम नहीं मिलेगा वो उन 60 दिनों में क्या करेंगे? यह कानून मांग के आधार पर काम की गारंटी देता है लेकिन फिर यह कैसे तय कर सकता है कि खेती के सीजन में काम नहीं दिया जाएगा?


पैसों का बोझ राज्यों पर डाला

पहले जब 100 दिन काम की गारंटी थी तो मनरेगा का 90 फीसदी खर्च केंद्र सरकार उठाती थी और सिर्फ 10 फीसदी राज्य सरकारों को देना होता था। यह व्यवस्था इसलिए थी क्योंकि केंद्र के पास राजस्व के ज्यादा स्रोत हैं।

नए बिल में यह अनुपात बदलकर 60:40 कर दिया गया है। अब केंद्र 60 फीसदी देगी और राज्यों को 40 फीसदी पैसा अपनी जेब से देना होगा। इसका मतलब है कि राज्यों पर बोझ चार गुना बढ़ गया है।

जिन राज्यों के पास पहले से पैसे की कमी है वहां मजदूरों को काम मिलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। राज्य सरकारें नए काम खोलने से बचेंगी क्योंकि जब भी वो काम खोलेंगी तो उनका खुद का खर्च बढ़ेगा।


राज्यों की हालत और खराब होगी

नए बिल में एक और खतरनाक बात है जिस पर ध्यान देना जरूरी है। अगर कोई राज्य अपने तय बजट से ज्यादा काम करवाता है तो उसका पूरा खर्च सौ फीसदी राज्य को ही उठाना होगा।

मान लीजिए तमिलनाडु को केंद्र से 1000 करोड़ का बजट मिला और वहां मजदूरों की मांग ज्यादा होने के कारण उससे ज्यादा काम करवाना पड़ा तो वो अतिरिक्त खर्च पूरी तरह राज्य सरकार को देना होगा। केंद्र एक पैसा नहीं देगी।

जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों के हाथ पहले ही बंध गए हैं। राजस्व के ज्यादातर स्रोत अब केंद्र के पास हैं। राज्य कर्ज भी आसानी से नहीं उठा सकते क्योंकि उस पर भी कई पाबंदियां हैं। ऐसे में नया कानून सारी जिम्मेदारियां राज्य सरकारों पर डाल रहा है जबकि उनके पास इतने पैसे ही नहीं हैं।


केंद्र के पास पूरी ताकत

बिल की धारा 5 के अनुसार किस राज्य के किस ग्रामीण इलाके में यह योजना लागू होगी यह भी केंद्र सरकार तय करेगी। राज्यों को यह अधिकार नहीं होगा कि वो खुद फैसला करें।

धारा 4, 5 और 6 मिलाकर देखें तो केंद्र को पूरी शक्ति दे दी गई है। केंद्र तय करेगा कि राज्यों को कितना पैसा मिलेगा, किस आधार पर मिलेगा और कहां यह योजना चलेगी। सारी कानूनी जिम्मेदारियां राज्य सरकारों पर थोपी जा रही हैं लेकिन आदेश देने का पूरा अधिकार केंद्र के पास है।

पहले की व्यवस्था में अगर कोई मजदूर काम मांगता था और राज्य सरकार 15 दिन में काम नहीं देती थी तो बेरोजगारी भत्ता देने की जिम्मेदारी राज्य पर थी लेकिन काम का सारा खर्च केंद्र उठाती थी। अब 60:40 के अनुपात में राज्य पर कोई दबाव नहीं रहेगा कि वो काम खोले क्योंकि खोलने से उसका खुद का खर्च बढ़ेगा।


बंगाल को 4 साल से पैसा नहीं मिला

पश्चिम बंगाल को 2022 से मनरेगा का फंड नहीं दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप लगाकर पैसा रोक दिया था। जब पैसा बंद हुआ उस समय बंगाल में 70 लाख लोग मनरेगा में काम कर चुके थे और उनकी मजदूरी नहीं दी गई।

एक अनुमान के अनुसार करीब 4 साल में ढाई करोड़ मजदूरों पर इसका असर पड़ा है। इन मजदूरों ने काम किया लेकिन उन्हें उनकी मेहनत का पैसा नहीं मिला। तृणमूल कांग्रेस ने सड़कों पर प्रदर्शन किया, जंतर-मंतर पर धरना दिया और संसद में कई बार आवाज उठाई।


कोर्ट में हारी केंद्र सरकार

पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति ने कोलकाता हाईकोर्ट में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से मनरेगा का बकाया पैसा देने को कहा। लेकिन केंद्र सरकार इस फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई।

अक्टूबर महीने में सुप्रीम कोर्ट ने भी मजदूर समिति के पक्ष में फैसला सुनाया और केंद्र की चुनौती खारिज कर दी। तृणमूल सरकार ने इस फैसले का स्वागत किया और वामपंथी पार्टियों ने भी। बंगाल में चुनाव आ रहा है और सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार वहां के लाखों-करोड़ों मजदूरों को उनका बकाया पैसा देगी।


कोर्ट में हारने के बाद भी पैसा नहीं

सुप्रीम कोर्ट में हारने के बाद भी सरकार पैसा देने को तैयार नहीं लग रही है। 5 दिसंबर 2025 को ग्रामीण विकास राज्य मंत्री कमलेश पासवान ने बताया कि हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए प्रक्रियाओं को फिर से तय कर रहे हैं।

मंत्री खुद मान रहे हैं कि बंगाल को 382 करोड़ रुपये देने हैं और मजदूरों की मजदूरी 1457 करोड़ रुपये बाकी है। लेकिन पैसा देने की जगह प्रक्रियाओं को फिर से तय करने की बात हो रही है।

6 दिसंबर को जब केंद्र ने बंगाल सरकार को इस मामले में नोटिस भेजा तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कूच बिहार की एक सभा में उस नोटिस को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया। मजदूरों का पैसा न देने के लिए सरकार हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट जाती है और वहां हारने के बाद भी प्रक्रियाओं का बहाना बनाती है।


स्किल इंडिया का हाल भी बुरा

मोदी सरकार ने स्किल इंडिया योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी। अगर यह योजना सफल होती तो इसे मनरेगा का नया विकल्प बनाया जा सकता था। जिन्हें स्किल इंडिया के तहत ट्रेनिंग दी जाए उन्हें रोजगार की गारंटी भी मिले तो कुछ बात होती।

लेकिन 10,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने के बाद भी इस योजना का नतीजा निराशाजनक है। अगस्त 2025 में मंत्री जयंत चौधरी ने संसद में खुद बताया कि स्किल इंडिया के तहत 1 करोड़ 60 लाख से ज्यादा युवाओं को ट्रेनिंग दी गई लेकिन काम सिर्फ 15 फीसदी को यानी 25 लाख से भी कम को मिला।

यह भी किसी को नहीं पता कि जिन्हें नौकरी मिली उन्हें कितनी तनख्वाह मिल रही है और किस तरह का काम मिला है। सरकार बताती नहीं और कोई पूछता नहीं। स्किल इंडिया की नाकामी पर कोई बहस नहीं होती लेकिन मनरेगा से गांधी जी का नाम हटाने पर खूब बहस हो रही है।


8 साल से न्यूनतम मजदूरी नहीं बढ़ी

मनरेगा के तहत अलग-अलग राज्यों में एक दिन की मजदूरी लगभग 370 रुपये के आसपास है जो न्यूनतम मजदूरी के बराबर ही है। चौंकाने वाली बात यह है कि मोदी सरकार ने पिछले 8 साल से न्यूनतम मजदूरी नहीं बढ़ाई है।

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि अगर सरकार बनी तो मनरेगा की मजदूरी बढ़ाकर 400 रुपये कर देंगे। साथ ही स्कूलों, पुस्तकालयों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सार्वजनिक संपत्तियों का निर्माण भी मनरेगा में शामिल करेंगे जिससे मजदूरों को और ज्यादा काम मिले।


यूपीए सरकार की विरासत

राहुल गांधी ने याद दिलाया कि मोदी जी डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की बहुत आलोचना करते हैं। लेकिन उस 10 साल में मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, आरटीआई, खाद्य सुरक्षा, वनाधिकार, भूमि अधिग्रहण कानून और रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकार जैसे कई बड़े कदम उठाए गए।

उन्होंने बताया कि इन सबकी असली कर्ता-धर्ता सोनिया गांधी हैं। उन्होंने मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत संघर्ष किया। जब तक ये कानून लागू नहीं हुए तब तक वो चुप नहीं बैठीं और कैबिनेट के लोगों से लगातार पूछती रहीं कि यह क्या हुआ, वह क्या हुआ।

सवाल उठाया गया कि मोदी सरकार ने 10 साल में ऐसा कौन सा बड़ा काम किया जो रोजगार पैदा करता हो। नेहरू जी के जमाने में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां बनीं जिनसे लाखों लोगों को रोजगार मिला। ऐसा कोई एक भी बड़ा काम मोदी सरकार नहीं दिखा पाई।


विकसित भारत का झांसा

भारत में कमाई का हाल इतना बुरा है कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है। अगर यह नहीं दिया जाए तो भूखमरी की नौबत आ जाएगी। महीने में 25,000 रुपये कमाने वाला व्यक्ति भारत में टॉप 10 फीसदी में आ जाता है। यह है देश में कमाई का असली स्तर।

ऐसे हालात में मनरेगा से महात्मा गांधी का नाम हटाकर विकसित भारत जोड़ना कुछ और नहीं बल्कि ध्यान भटकाने की कोशिश लगती है। जिस देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देना पड़े वहां विकसित भारत का नाम जोड़ना मजाक जैसा है।


नाम बदलने का खर्च कौन उठाएगा

मनरेगा के सारे कागजात इसी नाम से बने हैं और हर मजदूर के पास मनरेगा कार्ड होता है। अब यह सब कुछ बदलना होगा। नए कार्ड छापने होंगे, नए कागजात बनाने होंगे और पूरी व्यवस्था को नए नाम के हिसाब से ढालना होगा।

सोचने वाली बात यह है कि इस सबमें कितना खर्च होगा। यह खर्च किसकी जेब से जाएगा। किसे ठेका मिलेगा और किसका धंधा चमकेगा। कहीं ऐसा न हो कि मनरेगा का नाम बदलने की यह योजना ठेकेदारों के फायदे के लिए सबसे बड़ी योजना बन जाए।


गांधी जी से इतनी नफरत क्यों

सवाल उठ रहा है कि क्या महात्मा गांधी से इतनी नफरत हो सकती है कि उनका नाम हटा दिया जाए। जून महीने में ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सांसदों का दल 30 से ज्यादा देशों में गया तो हर जगह गांधी जी की प्रतिमा को नमन किया गया। तस्वीरें सामने आईं कि बीजेपी और विपक्ष दोनों के सांसद गांधी जी की मूर्ति के सामने सिर झुका रहे हैं।

उसी महात्मा गांधी के नाम पर चल रही भारत की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना का नाम 6 महीने के भीतर बदल दिया गया। न चाहते हुए भी उन तस्वीरों से दुनिया भर में गांधी जी की मौजूदगी का पता चल रहा था। शायद इसीलिए नाम बदलने का फैसला लिया गया।

कुछ लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी का नाम जोड़कर 60 दिन काम नहीं देने की गारंटी का कानून कैसे बनाते। शायद इसीलिए पहले नाम हटाया गया।


बहस भटकाने की कोशिश

पहले सूत्रों से खबरें प्लांट की गईं कि मनरेगा से महात्मा गांधी का नाम हटाकर “पूज्य बापू” जोड़ा जाएगा। इस पर दो-चार दिन अलग से बहस हुई कि महात्मा गांधी को ही पूज्य बापू कहते हैं तो महात्मा हटाकर पूज्य बापू क्यों कर रहे हैं। लोग प्रतिक्रिया देने लग गए।

बाद में पता चला कि पूज्य बापू का नाम भी कहीं नहीं है और पूरा नाम ही बदल दिया गया। 13 दिसंबर को बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि मामला नाम बदलने का नहीं है बल्कि भावना बदलने का है।

लेकिन सवाल यह है कि भावना बदलने के लिए महात्मा गांधी का नाम हटाना क्यों जरूरी है। 2014 से 2025 तक इतने दिन महात्मा गांधी का नाम रहने से कौन सी भावना में कमी आ रही थी।


असली मुद्दे छुप जाते हैं

दिल्ली की हवा सांस लेने लायक नहीं है। सुबह और शाम में फर्क नहीं दिखता। इस हवा में सांस लेने वाले लोग बीमार हो रहे हैं। लेकिन इस समस्या पर चर्चा के लिए सरकार को समय नहीं है और इसका निदान भी नहीं हो पा रहा।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में परीक्षा के दौरान प्रश्न पत्र पहुंचने में घंटों की देरी हो गई और 10-10 परीक्षाएं रद्द करनी पड़ीं। राजधानी दिल्ली में छात्रों के जीवन से इस तरह का खिलवाड़ हो रहा है। लेकिन बहस हो रही है नाम बदलने की, इतिहास बदलने की और योजनाओं को बदलने की।

ऐसी बहसों के पीछे मोदी सरकार अपनी बड़ी-बड़ी नाकामियों और चालबाजियों को छुपा ले जाती है। रोज-रोज कोई न कोई नया मुद्दा निकाल दिया जाता है ताकि लोगों का ध्यान असली समस्याओं से हट जाए।


आजीविका का नाम क्यों जोड़ा

नए बिल के नाम में रोजगार के साथ-साथ आजीविका भी जोड़ा गया है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों किया गया क्योंकि पहले से भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन है।

यह योजना पहले स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना के नाम से चलती थी। 2009-10 में इसे बदलकर राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन कर दिया गया। 2016 में मोदी सरकार ने इसका नाम बदलकर दीनदयाल अंत्योदय योजना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन कर दिया। इसी के तहत बिहार में जीविका दीदी की योजना चलती है।

जब अलग से आजीविका मिशन है तो मनरेगा में रोजगार के साथ आजीविका जोड़ने का क्या मतलब है। क्या रोजगार और आजीविका का अलग-अलग अर्थ निकाला जाएगा। यह भी एक तरीका हो सकता है योजना की जिम्मेदारी से बचने का।


क्या है पूरी पृष्ठभूमि

मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 में यूपीए सरकार के समय बना था और 2006 में पूरे देश में लागू हुआ। यह यूपीए सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी। इस कानून ने ग्रामीण भारत के गरीब परिवारों को साल में 100 दिन काम की कानूनी गारंटी दी। अगर सरकार 15 दिन में काम नहीं देती थी तो बेरोजगारी भत्ता देना जरूरी था। इसी कानून की वजह से ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी बढ़ी और उन्हें किसानों के सामने मोलभाव की ताकत मिली। अब नया बिल इस पूरे ढांचे को बदलने जा रहा है।


मुख्य बातें (Key Points)
  • मनरेगा से महात्मा गांधी का नाम हटाकर “विकसित भारत जी-राम-जी” रखा गया है
  • नए बिल में खेती के सीजन में 60 दिन काम न देने का प्रावधान है जिससे मजदूरों की मजदूरी गिरेगी
  • केंद्र और राज्य का खर्च अनुपात 90:10 से बदलकर 60:40 हो गया है जिससे राज्यों पर बोझ बढ़ेगा
  • पश्चिम बंगाल को 4 साल से मनरेगा का पैसा नहीं मिला और सुप्रीम कोर्ट में हारने के बाद भी केंद्र पैसा नहीं दे रही
  • स्किल इंडिया में ट्रेनिंग पाए 1.6 करोड़ युवाओं में से सिर्फ 15 फीसदी को नौकरी मिली
  • 8 साल से न्यूनतम मजदूरी नहीं बढ़ाई गई है

 

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