IMF on India GDP Data Controversy भारत सरकार द्वारा जारी जीडीपी के ताजा आंकड़ों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की एक हालिया रिपोर्ट ने भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। एक तरफ जहां सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 4 ट्रिलियन डॉलर के पार और दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बता रही है, वहीं दूसरी तरफ आईएमएफ ने भारत के नेशनल अकाउंट स्टैटिस्टिक्स को ‘फ्रॉड’ करार देते हुए इसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (NSO) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, चालू वित्त वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही में भारत की जीडीपी 8.2% की दर से बढ़ी है, जो पिछली छह तिमाहियों में सबसे अधिक है। सरकार का दावा है कि ग्रामीण मांग, सरकारी खर्च और विनिर्माण क्षेत्र की रफ्तार ने अर्थव्यवस्था को यह गति दी है। पीयूष गोयल जैसे मंत्री इसे ‘विकसित भारत 2047’ की दिशा में एक मजबूत कदम बता रहे हैं।
आईएमएफ ने आंकड़ों को बताया ‘फ्रॉड’
हालांकि, इन सरकारी दावों के ठीक उलट, आईएमएफ ने अपनी सालाना रिपोर्ट में भारत के नेशनल अकाउंट स्टैटिस्टिक्स की कार्यप्रणाली और गुणवत्ता को पूरी तरह गलत बताया है। आईएमएफ का कहना है कि जो डेटा दिया जा रहा है, उसका कोई ठोस आधार (बेस) ही नहीं है और अपनाई जा रही मेथाडोलॉजी त्रुटिपूर्ण है।
आईएमएफ ने भारत के डेटा को ‘सी’ ग्रेड (नीचे से दूसरा) दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय खपत (एक्सपेंडिचर) और मुद्रास्फीति (महंगाई) के आंकड़े आपस में मेल नहीं खाते। इसके अलावा, असंगठित क्षेत्र (इनफॉर्मल सेक्टर) और लोगों की खर्च करने की क्षमता के आंकड़े भी विरोधाभासी हैं।
बेस ईयर बदलने से बढ़े आंकड़े?
आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया है कि भारत ने जीडीपी गणना का तरीका और बेस ईयर (आधार वर्ष) बदल दिया है। पहले बेस ईयर 2011-12 था, जिसे बदलकर 2022-23 कर दिया गया। आलोचकों का मानना है कि इस बदलाव के कारण ही जीडीपी के आंकड़े बढ़े हुए दिख रहे हैं और यह अर्थव्यवस्था की एक झूठी तस्वीर पेश कर रहा है।
प्रोफेसर अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत की वास्तविक अर्थव्यवस्था 2.5 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा नहीं है और 4 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा भ्रामक है।
आम आदमी की माली हालत खस्ता
सरकारी आंकड़ों की चमक-दमक के बीच आम आदमी की आर्थिक स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 8-10 सालों में लोगों की बचत घटकर आधी रह गई है। अब लोग 100 रुपये में से औसतन सिर्फ 5 रुपये बचा पा रहे हैं, जबकि पहले यह आंकड़ा 8 से 12 रुपये था।
देश में क्रेडिट कार्ड का बकाया 3 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो गया है और लगभग 33% लोग बिल चुकाने में असमर्थ हैं। पर्सनल लोन लेने वाले 44% लोग डिफॉल्टर हो रहे हैं। औसतन सैलरी 22,000 रुपये है, जबकि क्रेडिट कार्ड पर औसत बकाया 33,000 रुपये है। यह आर्थिक तनाव और खुदकुशी के बढ़ते मामलों का एक बड़ा कारण बन रहा है।
कोरोना काल के आंकड़ों पर भी सवाल
आईएमएफ ने कोरोना काल के दौरान के जीडीपी आंकड़ों पर भी सवाल उठाए हैं। 2020-21 में जब अर्थव्यवस्था -5.8% तक सिकुड़ गई थी, उसके तुरंत बाद 2021-22 में जीडीपी में अचानक भारी उछाल (लगभग 244 ट्रिलियन की बढ़ोतरी) को आईएमएफ ने संदेहास्पद माना है, जिसका कोई तार्किक स्पष्टीकरण नहीं है।
आईएमएफ ने कमजोर लेबर डेटा, पुराने सर्वे (2015 से पहले के), और इनफॉर्मल सेक्टर की अनदेखी जैसी पांच प्रमुख कमियों को उजागर किया है।
जानें पूरा मामला
यह पूरा विवाद भारत की आर्थिक प्रगति की दो अलग-अलग तस्वीरों को सामने लाता है। एक तरफ सरकार जीडीपी, मैन्युफैक्चरिंग और जीएसटी कलेक्शन के रिकॉर्ड आंकड़ों के साथ ‘सब चंगा सी’ का नैरेटिव पेश कर रही है। वहीं दूसरी तरफ, आईएमएफ जैसी वैश्विक संस्था इन आंकड़ों की बुनियाद पर ही सवाल खड़े कर रही है, जिसे ‘फ्रॉड’ तक कहा गया है। यह स्थिति न सिर्फ निवेशकों के भरोसे को डगमगा सकती है बल्कि देश के भीतर भी आर्थिक नीतियों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
मुख्य बातें (Key Points)
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सरकार के अनुसार, जुलाई-सितंबर तिमाही में भारत की जीडीपी 8.2% की दर से बढ़ी है।
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आईएमएफ ने भारत के नेशनल अकाउंट स्टैटिस्टिक्स को ‘फ्रॉड’ बताते हुए ‘सी’ ग्रेड दिया है।
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आईएमएफ का कहना है कि जीडीपी का बेस ईयर बदलने से आंकड़े बढ़े हुए दिख रहे हैं।
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आम लोगों की बचत घटकर आधी रह गई है और कर्ज का बोझ बढ़ रहा है।
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आईएमएफ ने असंगठित क्षेत्र के डेटा और पुराने सर्वे के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए हैं।






