Job Termination Without Inquiry : राजस्थान हाई कोर्ट (Rajasthan High Court) ने एक सरकारी कर्मचारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए एक ऐतिहासिक टिप्पणी की है, जिसमें कोर्ट ने कहा है कि नौकरी से बर्खास्तगी मृत्युदंड (Death Penalty) के समान है और इसके लिए सिर्फ कारण बताओ नोटिस (Show Cause Notice) देना पर्याप्त नहीं है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी भी कर्मचारी को सेवा से निकालने से पहले आरोप पत्र और अनुशासनात्मक जांच आवश्यक है, जिससे निर्दोष को सजा न मिले।
यह मामला एक शारीरिक प्रशिक्षण प्रशिक्षक (Physical Instructor) से जुड़ा है, जिसे नौकरी से यह कहते हुए बर्खास्त कर दिया गया कि उसने धोखाधड़ी से नौकरी प्राप्त की है। याचिकाकर्ता का तर्क था कि उसके खिलाफ न तो कोई आरोप पत्र (Charge Sheet) जारी किया गया, न ही कोई अनुशासनात्मक जांच (Disciplinary Inquiry) की गई। केवल कारण बताओ नोटिस के आधार पर उसकी सेवा समाप्त कर दी गई।
न्यायमूर्ति विनीत कुमार माथुर (Justice Vineet Kumar Mathur) की अदालत ने यह कहते हुए सेवा समाप्ति का आदेश रद्द कर दिया कि यह निर्णय न केवल प्रक्रिया के विपरीत है, बल्कि अत्यंत कठोर भी है। कोर्ट ने कहा कि बिना उचित जांच के कोई निष्कर्ष निकालकर सेवा समाप्त करना न्याय के साथ अन्याय है।
याचिकाकर्ता की नियुक्ति वर्ष 2023 में हुई थी और 2024 में उसे कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। राज्य सरकार ने याचिकाकर्ता के उत्तर से असंतुष्ट होकर उसकी सेवा समाप्त कर दी। राज्य का तर्क था कि भर्ती प्रक्रिया के दौरान प्रस्तुत दस्तावेजों में विसंगतियां (Discrepancies) थीं और प्रारंभिक जांच (Preliminary Inquiry) में यह पाया गया कि नौकरी धोखाधड़ी से हासिल की गई थी।
हालांकि, कोर्ट ने यह माना कि याचिकाकर्ता को पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया। कोर्ट ने यह भी देखा कि इसी प्रकार के अन्य मामलों में समन्वय पीठ (Coordination Bench) द्वारा समिति गठित की गई थी और उन मामलों में सेवाएं सुरक्षित रखी गई थीं। वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता के साथ भेदभाव हुआ है।
कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि केवल एकतरफा जांच और दस्तावेजों की समीक्षा के आधार पर सेवा समाप्त करना नियमों के विरुद्ध है। किसी भी व्यक्ति की नौकरी समाप्त करने से पहले उसे अपने पक्ष में बोलने का पूरा अवसर देना संविधानिक अधिकार है।
अंततः राजस्थान हाई कोर्ट ने सेवा समाप्त करने के आदेश को रद्द कर दिया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को बहाल किया जाए। इस फैसले को न्यायिक प्रणाली में निष्पक्षता और कर्मचारी अधिकारों की रक्षा के एक अहम उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है।