कांवड़ यात्रा के रास्ते पर खान-पान की सामग्री बेचने वाले सभी दुकानदारों को अपने और अपने कर्मचारियों के नाम बताने होंगे। उत्तर प्रदेश प्रशासन के इस आदेश को मुसलमान विरोधी बताया जा रहा है। ये तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात हो गई। जब प्रशासन ने किसी धर्म, समुदाय, जाति विशेष का नाम नहीं लिया, उसने सबके लिए आदेश जारी किया है तो फिर इससे मुसलमानों को नुकसान होगा, यह कैसे पता चला? बिल्कुल आसान जवाब है। ये सब जानते हैं कि मुसलमान किस हद तक अनैतिक और अमानवीय हरकतों में जुटे हैं। आए दिन पेशाब, थूक और पता नहीं किन-किन तरकीबों से अपवित्र करके खाने-पीने के सामान बेचने की इनकी घटिया हरकतों के वीडियोज सामने आते रहते हैं।
बढ़ रहा है गैर-मुस्लिमों से दुश्मनी का भाव
मुसलमान जहां हैं, वहां बस दो ही मानसिकता के साथ काम कर रहे हैं। पहली- गैर-मुस्लिमों को जैसे भी हो सके, प्रताड़ित करो, उनका धर्म भ्रष्ट करो और दूसरी- तरह-तरह के जिहाद से उनका धर्म परिवर्तन करवाओ। अब तो लगातार मिल रहे प्रमाणों से यह साबित सा हो गया है कि मुसलमान न हिंदुओं के साथ सामंजस्य चाहते हैं और ना हिंदुस्तान को अपना मानते हैं। लेकिन उनकी मांग यह है कि हिंदू समावेशी विचारों से तनिक भी नहीं भटकें, धर्मनिरपेक्षता का दामन न छोड़ें। फिर पारदर्शिता से परहेज क्यों? किसकी दुकान है, यह बताने में क्या हर्ज? क्यों बात-बात में इस्लाम को खतरे में देखने वाला मुसलमान अपने होटलों, ढाबों के नाम हिंदू देवी-देवताओं पर रखेगा? उत्तर प्रदेश और कांवड़ यात्रा के मार्ग ही नहीं, पूरे देश में अगर कोई कुछ छिपाकर कारोबार कर रहा है तो क्या वह गुनाह नहीं है?
इतना दोहरपान लाते कहां से हैं, जनाब?
मुसलमानों और कथित मुस्लिम हितैषी राजनीति के ठेकेदारों के दोहरेपेन की पराकाष्ठा देखें। जो आज हिंदुओं को कांवड़ यात्रा के अनुष्ठान में भी मुसलमानों के थूक, पेशाब वाली खाने-पीने की चीजें स्वीकार करने को कह रहे हैं, वही मुसलमानों की हलाल कॉस्मेटिक्स, हलाल दवाई और यहां तक कि हलाल होटल, हलाल यात्रा तक की तरफदारी करते हैं। मुख्तार अब्बास नकवी, जावेद अख्तर, असदुद्दीन ओवैसी, एसटी हसन समेत उन तमाम मुसलमानों की गैरत कैसे मर गई जब मुसलमानों ने हलाल इकॉनमी खड़ी कर ली? इनमें से किसकी हिम्मत है जो मुसलमानों से पूछ ले कि आखिर चौबीसों घंटे, हर जगह, हर चीज में हलाल, हलाल की रट लगाने की क्या जरूरत है? बल्कि उलटा ये हलाल के लिए मुसलमानों को उकसाएंगे, उनका साथ देंगे, हजार तरह के तर्क देंगे। लेकिन हिंदुओं को समावेशी होना चाहिए। हिंदुओं को तो मंदिरों में भी गंगाजल नहीं मुसलमानों का पेशाब पीकर जाना चाहिए। क्या ये यही चाहते हैं? इनमें है कोई माई का लाल जो दावा करे कि मुसलमान खाने-पीने के सामानों में थूक नहीं रहे, पेशाब नहीं कर रहे, उसे हर तरह से अपवित्र और गंदा नहीं कर रहे? है इनमें हिम्मत कि सोशल मीडिया और मुख्य धारा के मीडिया में आ रही थूक, पेशाब वाली खबरों और प्रमाण के रूप में पेश किए जा रहे वीडियोज को नकार दें?
मुसलमानो, तुम्हारी हरकतों से हिंदू अब ऊबने लगा है
अगर, यह सच है कि मुसलमान खाने-पीने के सामानों में थूक रहे हैं, पेशाब कर रहे हैं और यह बीमारी किसी एक इलाके की नहीं, देश के कोने-कोने में देखी जा रही है तो फिर कोई किस मुंह से कहता है कि दुकानदारों को नेम प्लेट लगाने का फरमान हिटलरशाही है। अगर यह हिटलरशाही है तो यही सही, लेकिन हिंदू थूक चाटकर और पेशाब पीकर समावेशी और धर्मनिरपेक्ष भावना का झंडाबरदार नहीं बना रह सकता। जो कोई भी यूपी प्रशासन के आदेश की निंदा कर रहा है, वो इस बात की चर्चा तक नहीं करता कि हां, कुछ मुसलमान अमानवीय हरकतें करते हैं। भला ये क्यों चर्चा करें? इन्हें जिहादी मानसिकता से क्या परेशानी? जिसे पेशाब पीना पड़े, थूका हुआ खाना पड़े, वो जानें। इन्हें तो बस लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरेपक्षता, समावेशिता, सहिष्णुता के नारों से जिहादियों का बचाव करना है, जिहाद की आंच तेज करनी है। दूसरी तरफ, धर्मगुरु के वेष में भी हिंदू हाय हुसैन के नारे के साथ अपने शरीर को जख्मी कर रहा है। एकता प्रदर्शित करने का इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहते हो?
संविधान, लोकतंत्र इनके युद्ध के औजार
दरअसल, ये लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता आदि का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ युद्ध के औजारों की तरह करते हैं। दुनिया के उस लोतांत्रिक और समावेशी देश का नाम बता दें जहां मुसलमान पलायन करके गए और उस देश का कायाकल्प कर दिया। इसके उलट एक भी देश नहीं जहां पलायन कर गए मुसलमानों की ठीकठाक आबादी होते ही शांति बरकरार रह सकी। इंग्लैंड इसका जीता-जागता उदाहरण है। ये मुसलमान ही हैं जिन्होंने यूरोप के उन देशों की नाक में भी दम करने से परहेज नहीं किया जिन्होंने संकट के वक्त इनके लिए अपनी बाहें पसारीं। ये इतने पतित हैं कि जिन माहौल, जिन हालात से पीछा छुड़ाकर भागे, वही माहौल और हालात उन देशों में भी बना देते हैं जहां इन्होंने शरण ली हुई है। वो तो दूसरे देश हैं, यहां भारत में रहने वाले मुसलमान ही अक्सर ऐसा व्यवहार करते दिख जाते हैं कि मानो किसी दुश्मन देश को युद्ध में हराकर जीत का जश्न मना रहे हों। तिरंगे का अपमान करेंगे और फिलिस्तीनी झंडे को ऐसे लहराएंगे जैसे निजाम-ए-मुस्तफा का ऐलान कर रहे हों। भारत माता की जय कहने से इस्लाम संकट में आ जाता है और संसद में जय फिलिस्तीन का नारा काफी हर्षोल्लास से लेते हैं।
क्या पढ़े मुसलमान अच्छे हैं?
कहते हैं पढ़ाई से, जीवन स्तर ऊंचा होने से कट्टरता कम हो जाती है। लेकिन मुसलमानों पर यह फॉर्म्युला भी काम नहीं आता है। बाकियों को छोड़ दीजिए जो शिक्षा की रोशनी बांटते हैं, वो मुसलमान कट्टरता के किस घुप्प अंधेरों से घिरे हैं इसका प्रमाण अभी-अभी दिल्ली में मिला है। यहां मुस्लिम शिक्षकों ने बच्चों को धर्म परिवर्तन के लिए डराया। जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में एक कर्मचारी का आरोप है कि मुस्लिम उनपर धर्म परिवर्तन करने का दबाव बना रहे हैं। मुसलमान चाहे आईएएस बन जाएं या यूएस चले जाएं, क्रिकेट खेल रहे हों या कोई फिल्म स्टार हो, पत्रकार हो या लेखक, जो जहां है जिहाद में लगा हुआ है। सबका तरीका अलग हो सकता है, लेकिन जिहाद में अपनी भागीदारी जरूर सुनिश्चित कर रहा है। कोई सीधा कत्ल करके तो कोई जिहादी संगठनों की फंडिंग करके, कोई टीवी चैनल पर बैठकर जिहादियों का बचाव करके तो कोई लेख लिखकर। ये बहुरूपिये जिहाद में या तो सीधे शामिल हैं या परोक्ष रूप से।
तो क्या सभी मुसलमान खराब हैं?
तो सवाल है कि हर मुसलमान जिहादी है? ऐसा मानने वाला कोई सनकी ही हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि समावेशी मुसलमान इतने कम हैं कि उनमें भी जिहादियों का खौफ है। वो सामने नहीं आते। ऐसे मुसलमान हर जगह हो सकते हैं जो अपनी ही बिरादरी की हरकतें देख घुट-घुटकर जी रहे हैं। लेकिन कुछ बोल नहीं पाते क्योंकि उनके मुंह खोलते ही बिरादरी से बहिष्कार की कॉल आ जाती है, परिवार पर हमले होने लगते हैं, अनैतिक दबाव बनने लगते हैं। तब ऐसे ठेकेदार जो अभी कांवड़ यात्रा पर ज्ञान बांट रहे हैं, उनमें कोई बचाव के लिए आगे नहीं आता। अगर चेहरा बचाने के लिए सामने आ भी जाए तो बड़ा बच-बचाकर थोड़ी-बहुत दलीलें देकर निकल लेता है। वैसे भी कोई उन समावेशी सोच वाले मुसलमानों की बाट कब तक जोह पाएगा जब उसके साथ अमानवीय अत्याचारों का सिलसिला सा चल पड़े?
जिहादियों की तरफदारी तो छोड़िए
अगर हर दिन यही प्रमाण मिल रहा हो कि मुस्लिम कट्टरता दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ रही है, उनमें हिंदू और हिंदुस्तान विरोध का भाव जहर के स्तर तक पहुंच गया है तो फिर कोई हिंदू कब तक चुप रहे, कब तक धर्मनिरपेक्षता का झंडा ढोते रहे? हिंदू इतने पर भी इधर-उधर तो छोड़िए, मंदिरों के बाहर पूजा सामग्री बेचते मुसलमानों को भी बर्दाश्त कर रहा है। लेकिन इन मुसलमानों की बेगैरती तो देखिए, ये माला में फूल भी पिरो रहे हैं तो थूक लगाकर। इन बदमिजाजों की तरफदारी कोई जिहादी ही कर सकता है या कोई जाहिल। राजनीतिक हित साधने के भी ऐसा हो रहा है तो इतनी शॉर्ट साइटेडनेस को जाहिलियत ही कहा जाएगा कुछ और नहीं।