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Govt Ad Spend Exposed: 40 करोड़ का खेल! हिंदी अखबारों के साथ सौतेला व्यवहार?

सरकार ने अखबारों के विज्ञापन रेट 26% बढ़ाए, आंकड़ों ने खोली पोल- अंग्रेजी को मलाई, हिंदी को क्या?

The News Air Team by The News Air Team
शनिवार, 29 नवम्बर 2025
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Govt Ad Spend Exposed
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Government Advertisement Spend Analysis: क्या आपने कभी सोचा है कि सुबह आपके घर जो अखबार आता है, उसमें छपे सरकारी विज्ञापनों की कीमत कौन चुकाता है? जवाब है- आप और हम, अपने टैक्स के पैसों से। हाल ही में केंद्र सरकार ने प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापन दरों में 26 फीसदी की भारी बढ़ोतरी की है। सुनने में यह महज एक आंकड़ा लग सकता है, लेकिन इसके पीछे करोड़ों रुपये के खर्च और मीडिया की ‘आजादी’ का एक बड़ा खेल छिपा है।

ताजा आंकड़ों का विश्लेषण करने पर एक चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई है, जो बताती है कि कैसे सरकारी खजाने का मुंह अंग्रेजी अखबारों की तरफ ज्यादा खुला है, जबकि हिंदी अखबारों के हाथ उस अनुपात में काफी कम लगता है।

दिल्ली में विज्ञापनों पर 40 करोड़ का ‘पानी’

‘द न्यूज़ एयर’ द्वारा खंगाले गए आंकड़ों (स्रोत: सीबीसी/डीएवीपी डेटा 2023-24) के मुताबिक, केंद्र सरकार ने सिर्फ दिल्ली में 118 पत्र-पत्रिकाओं को विज्ञापन देने के लिए एक साल में 40 करोड़ 65 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर दिए।

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अगर इसका औसत निकालें, तो साल के 365 दिन हर रोज औसतन 25 सरकारी विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में छपे। हर एक विज्ञापन पर सरकार ने जनता की जेब से औसतन 44,000 रुपये खर्च किए। ध्यान रहे, यह आंकड़ा सिर्फ केंद्र सरकार का और सिर्फ दिल्ली संस्करणों का है, राज्य सरकारों का खर्च इसमें शामिल नहीं है।

अंग्रेजी पर मेहरबानी, हिंदी से बेरुखी?

सरकारी विज्ञापनों के वितरण में एक बड़ा विरोधाभास देखने को मिला है। आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली में सबसे ज्यादा विज्ञापन पाने वाले शीर्ष 10 अखबारों में 6 हिंदी के हैं, लेकिन कमाई के मामले में अंग्रेजी अखबारों का दबदबा है।

  • अंग्रेजी का बोलबाला: सिर्फ दो अंग्रेजी अखबारों- ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को मिलाकर करीब 18 करोड़ 75 लाख रुपये के विज्ञापन मिले। यह कुल खर्च का लगभग 46% हिस्सा है।

  • हिंदी का हाल: वहीं, शीर्ष 10 में शामिल 6 हिंदी अखबारों को कुल मिलाकर करीब 15 करोड़ 90 लाख रुपये ही मिले।

अकेले ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ को एक साल में 10 करोड़ 13 लाख रुपये से ज्यादा के विज्ञापन मिले, जबकि सबसे बड़े हिंदी अखबारों में से एक ‘दैनिक जागरण’ को करीब 4 करोड़ 82 लाख रुपये मिले। यह अंतर साफ बताता है कि सरकारी तंत्र की नजर में अंग्रेजी पाठकों तक पहुंचना हिंदी पाठकों के मुकाबले ज्यादा ‘महंगा’ और ‘अहम’ है।

रेट में जमीन-आसमान का अंतर

सरकार द्वारा तय की गई विज्ञापन दरों (Card Rates) में भी भारी असमानता है। केंद्रीय संचार ब्यूरो (CBC) के आंकड़ों के अनुसार:

  • हिंदुस्तान टाइम्स (दिल्ली): 39.09 रुपये प्रति वर्ग सेंटीमीटर

  • टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली): 263.13 रुपये प्रति वर्ग सेंटीमीटर।

  • दैनिक जागरण (दिल्ली): 162.51 रुपये प्रति वर्ग सेंटीमीटर।

यह भेदभाव सवाल खड़े करता है कि क्या हिंदी पट्टी के पाठकों तक पहुंचने की कीमत अंग्रेजी पाठकों से कम आंकी गई है?

चुनाव आए, खर्च बढ़ा

सरकारी विज्ञापनों का ग्राफ चुनावों के साथ-साथ ऊपर चढ़ता है। आंकड़ों पर गौर करें तो:

  • 2021-22: 474 पत्र-पत्रिकाओं पर 23 करोड़ 21 लाख रुपये खर्च हुए।

  • 2022-23: 169 पत्र-पत्रिकाओं पर 31 करोड़ से ज्यादा खर्च हुए।

  • 2023-24 (चुनाव से पहले): यह खर्च बढ़कर 40 करोड़ के पार पहुंच गया।

साफ है कि जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आए, विज्ञापनों की बौछार तेज हो गई। अब जब दरों में 26% की और बढ़ोतरी कर दी गई है, तो यह खर्च 50 करोड़ के पार जाने का अनुमान है।

एक करारा जवाब: विज्ञापन नहीं, जनता का साथ

सरकार द्वारा विज्ञापन दरों में 26% की बढ़ोतरी के बीच, मीडिया जगत से एक दिलचस्प प्रतिक्रिया भी सामने आई है। स्वतंत्र मीडिया संस्थान ‘न्यूज़लॉन्ड्री’ ने इस सरकारी ‘तोहफे’ के विरोध में अपने पाठकों के लिए सब्सक्रिप्शन पर 26% की कटौती (डिस्काउंट) का ऐलान किया है।

उनका तर्क है कि जब मीडिया सरकार के विज्ञापनों पर निर्भर हो जाता है, तो वह जनता के प्रति जवाबदेह होने के बजाय सरकार की ‘जी-हुजूरी’ करने लगता है। यह कदम उस ‘विज्ञापन मॉडल’ पर चोट है, जिसने पत्रकारिता को सरकारी बैसाखियों का मोहताज बना दिया है।

मुख्य बातें (Key Points)
  • केंद्र सरकार ने प्रिंट मीडिया के विज्ञापन दरों में 26% की बढ़ोतरी की है।

  • वित्त वर्ष 2023-24 में केंद्र ने सिर्फ दिल्ली के अखबारों पर 40 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए।

  • विज्ञापन राजस्व का लगभग 46% हिस्सा सिर्फ दो अंग्रेजी अखबारों (HT और TOI) की झोली में गया।

  • हिंदी अखबारों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद उन्हें अंग्रेजी के मुकाबले कम पैसा मिला।

  • चुनावों से ठीक पहले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च में भारी उछाल देखा गया।

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