नई दिल्ली, 31 जुलाई (The News Air): बीजेपी के सांसद अनुराग ठाकुर के जाति वाले बयान के बाद संसद में विपक्ष उबल रहा है। सोमवार को अनुराग ठाकुर ने अपने भाषण में तंज कसते हुए कहा कि जिनकी खुद की जाति नहीं पता, वह जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं। उन्होंने इसमें किसी नेता का नाम नहीं लिया, मगर कांग्रेस ने जाति वाले बयान को लपक लिया।
कांग्रेस का आरोप है कि बीजेपी नेता ने राहुल गांधी को निशाना बनाया। सपा नेता अखिलेश यादव ने भी कहा कि अनुराग ठाकुर किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं? खुद राहुल गांधी भी संसद में खड़े हुए और इसे खुद के लिए गाली करार दिया। उन्होंने कहा कि वह इस बयान के लिए अनुराग ठाकुर से माफी की उम्मीद नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि इसके बाद भी वह जातीय जनगणना कराने की मांग अड़े हैं।
इसके बाद संसद की कार्रवाई चली और निर्मला सीतारमण ने बजट पर अपना जवाब भी दिया। मंगलवार को जाति पर खूब हंगामा बरपा और विपक्ष के हंगामे के कारण संसद की कार्रवाई रोकनी पड़ी।
राजनीति में तो खुलकर खेलते हैं जाति का खेल
जब बात जाति को लेकर हंगामे की है, तो कई सवाल भी उठते हैं। देश में जातीय राजनीति का बीच किस पार्टी ने बोया। चुनावों में दबी जुबान और पर्दे के पीछे जातीय समीकरणों के आधार पर उम्मीदवार पहले आम चुनाव से ही तय किए जाते रहे। 1989 के बाद जातीय राजनीति ने ऐसी करवट ली कि राष्ट्रवादी, वामपंथी, मध्यमार्गी और समाजवाद की बात करने वाले दलों ने खुलकर जाति का खेल खेलना शुरू किया। ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो जातीय जनगणना की मांग भी इसी कड़ी का हिस्सा है। बिहार में जातीय सर्वेक्षण के बाद कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को एहसास हुआ कि चुनावों में जीत की चाबी जाति वाले एजेंडे में छिपी है। इससे हिंदुत्व की राजनीति का अंत भी हो सकता है। पिछले 75 साल में जाति और धर्म की राजनीति भारत का कड़वा सच बन चुकी है कि जिसे कबूल करने का साहस होना चाहिए। इसे खत्म करना है या बढ़ाना है, अब इस पर विचार करने की जरूरत है।
जनगणना और जातीय सर्वे की रिपोर्ट में भी जाति पूछी गई
2011 की जनगणना में तत्कालीन यूपीए सरकार ने आर्थिक, सामाजिक के साथ जाति का कॉलम भी भरवाया था, मगर जनगणना की रिपोर्ट में यह ओबीसी और अन्य जातियों का आंकड़ा गायब हो गया। हमेशा की तरह सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नंबर आए। सवाल यह है कि उस दौर में कांग्रेस की सरकार ने यह आंकड़ा देश के सामने क्यों नहीं रखा? तब केंद्र सरकार ने खुद माना था कि आंकड़े में गड़बड़ी है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से तय की गई ओबीसी जातियों के कारण यह गलफत हुई थी। फिर कर्नाटक में भी कांग्रेस ने जातीय सर्वेक्षण कराया, वहां की रिपोर्ट भी सरकार के फाइलों में अटक गई। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद भी कांग्रेस अपने पुराने रेकॉर्ड को जारी नहीं कर रही है। माना जा रहा है कि लिंगायत और वोक्कालिगा जाति के आंकड़े विवाद पैदा कर सकता है।
देश के लीडर क्यों बनते हैं खास जाति का नेता ?
फिलहाल विवाद जाति पूछने को लेकर है। कांग्रेस का कहना है कि अनुराग ठाकुर ने ‘जिसकी कोई जाति नहीं…’ वाला बयान राहुल गांधी को टारगेट करने के लिए किया था। कांग्रेस के दावे को सच माना जा सकता है, क्योंकि संसद में मौजूद अधिकतर नेता चुनावों में जाति के आधार पर चुनकर आए हैं। अखिलेश यादव पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) के नाव पर सवार होकर संसद पहुंचे हैं। चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी को भी बीजेपी ने पिछड़ा यानी ओबीसी के तौर पर प्रोजेक्ट किया। पीएम बनने के बाद ही पता चला कि नरेंद्र मोदी घांची यानी तेली जाति के हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी भी चुनावी सभाओं में जनेऊ दिखा चुके हैं। उन्होंने खुद को दत्तात्रेय गोत्र और कौल ब्राह्मण जाति का बताया था। सदन में मौजूद अधिकतर सांसद मराठा, ओबीसी, ब्राह्मण, ठाकुर, दलित और अल्पसंख्यक का झंडा लेकर ही विभिन्न राज्यों से दिल्ली पहुंचे हैं। जब नेता खुलकर जाति के नाम पर वोट मांगते हैं तो बोलने में हर्ज क्या है?
जन्म से मौत तक पीछा करती है जाति, तो बताने में हर्ज क्यों?
➤ जाति पर नाराज होने वाले नेताओं को कई सवालों का जवाब भी देना होगा। जातीय जनगणना में जब आम नागरिक से जाति पूछे जाएंगे, तो नेता अपनी जाति बताने में हिचकिचा क्यों रहे हैं? तब क्या जनगणना के फॉर्म में उनका कॉलम खाली होगा? बिहार और कर्नाटक के जातीय सर्वेक्षण में भी जाति पूछा ही गया था।
➤ जाति पर बिदकने से पहले जान लें कि देश में मिलने वाली हर सरकारी सुविधा के लिए नागरिकों को जाति और धर्म का कॉलम भरना होता है। सरकारी स्कूल और संस्थान छोड़िए, प्राइवेट संस्थानों के फॉर्म में भी जाति का कॉलम होता है, जिसे भरना अनिवार्य होता है। जो बच्चे फॉर्म नहीं भर सकते, उसके माता-पिता इस सरकारी दायित्व को पूरा करते हैं।
➤देश में ऐसा ही शायद कोई हो, जिसने कागजों में ऑन रेकॉर्ड बिना जाति बताए पढ़ाई या नौकरी की है। हर सरकारी योजना के फॉर्म में भी इससे जुड़े कॉलम पर टिक करना होता है। जन्म से मृत्यु तक के सर्टिफिकेट में जाति का जिक्र होता है। कुल मिलाकर अपने देश के सिस्टम में तो हर कदम पर जाति का हिसाब देना होता है। फिर इस पर बात करने पर हंगामा क्यों है?
➤खुद राजनीतिक दल चुनाव में टिकट बांटने और जीत के बाद जाति के आधार पर सांसद और विधायकों के आंकड़े जाति करते हैं। देश की सभी पार्टियों में जाति से जुड़े प्रकोष्ठ हैं। अल्पसंख्यक सेल और प्रकोष्ठ के जरिये धर्म की राजनीति भी दशकों से होती रही है। इस प्रकोष्ठों के पदों पर नियुक्ति के लिए जाति की तफ्तीश भी जाती है।
➤जाति के आधार पर संविधान में प्रावधान किया गया है। लोकसभा और विधानसभा के अलावा नौकरियों में आरक्षण जैसी सुविधाएं और कई एक्ट भी इस सच को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। फिर इस सच से मुंह कैसे मोड़ा जा सकता है। जाति की राजनीति करेंगे मगर बताएंगे नहीं, ऐसा क्यों?