The News Air- (चंडीगढ़) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद केंद्रीय कैबिनेट की मुहर लगने के साथ ही तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी की प्रक्रिया शुरू हो गई है। 2022 की शुरुआत में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिहाज़ से विपक्षी दल इसे पॉलिटिकल क़वायद कह रहे हैं, लेकिन चुनावों में तकनीकी तौर पर महज़ पांच से छह महीने का समय बचे होने से यह भी बड़ा सवाल है कि इन क़ानूनों से मुरझाया कमल कितना खिल पाएगा? इसके लिए कृषि क़ानून वापसी का पूरा पॉलिटिकल गणित और इसका प्रभाव समझना होगा।
तीन राज्य की इकोनॉमी का आधार है कृषि
अगले साल की शुरुआत में जिन पांच राज्यों में चुनाव हैं, उनमें पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर शामिल हैं। इनमें तीन राज्य पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 75 फ़ीसदी से ज़्यादा इकोनॉमी कृषि आधारित है, यानी किसान ही नहीं मज़दूर से लेकर व्यापारी तक, सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीक़े से खेती से जुडे़ हैं। खासतौर पर पंजाब और उत्तर प्रदेश की राजनीति को कृषि से जुड़े फ़ैसले बेहद प्रभावित करते रहे हैं।
UP में 210 सीटों पर जीत-हार तय करते हैं किसान
UP की 403 विधानसभा सीटों में से क़रीब 210 सीटों पर किसान ही जीत-हार का फ़ैसला करते हैं। इसी फैक्टर ने पिछले एक साल से कृषि क़ानूनों पर अड़ियल रवैया अपनाकर बैठी सरकार को बैकफुट पर आने के लिए मजबूर किया है। भाजपा चुनावों तक किसानों को नाराज़ नहीं करना चाहती।
खासतौर पर वेस्ट UP में कृषि क़ानूनों को लेकर बनी नाराज़गी ने अहम भूमिका निभाई है। यहां के जाट समुदाय ने भाजपा को UP और केंद्र में सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। यहां 12% जाट, 32% मुस्लिम, 18% दलित, OBC 30% हैं। किसान आंदोलन में दिल्ली के गाज़ीपुर बॉर्डर पर सबसे ज़्यादा जाट समुदाय के ही किसान बैठे दिखाई दिए। इसके अलावा वेस्ट UP में ही बागपत और मुजफ्फरनगर हैं, जो जाटों के गढ़ हैं। किसान आंदोलन की अगुआई कर रही एक तरह से भारतीय किसान यूनियन का गढ़ सिसौली भी मुजफ्फरनगर में है और जाट समुदाय के परंपरागत झुकाव वाले रालोद की राजधानी कहलाने वाला छपरौली बागपत में आता है।
पंजाब की 77 सीटों पर गणित बदलेगी यह क़वायद
पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 40 अर्बन, 51 सेमी अर्बन और 26 रूरल सीट हैं। रूरल के साथ सेमी अर्बन विधानसभा सीटों पर किसानों का वोट बैंक हार-जीत का फ़ैसला करता है। यानी 117 में से 77 सीट पर कृषि क़ानून की वापसी प्रभाव डाल सकती है।
पंजाब मालवा, माझा और दोआबा एरिया में बँटा हुआ है। सबसे ज़्यादा 69 सीटें मालवा में हैं। मालवा में ज़्यादातर रूरल सीटें हैं, जहां किसानों का दबदबा है। यही इलाक़ा पंजाब की सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाता है। भाजपा की निगाहें इसी इलाक़े में मतदाताओं के बीच सेंध लगाने पर है।
साथ ही इन क़ानूनों की वापसी से जहां कांग्रेस छोड़कर नया दल बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा के गठबंधन की राह साफ़ हुई है, वहीं कृषि क़ानूनों के मुद्दे पर भाजपा का साथ छोड़ने वाले अकाली दल के भी दोबारा गले मिलने की संभावना बन गई है।
उत्तराखंड की 70 में से 27 सीट के बदलेंगे समीकरण
उत्तराखंड के छोटा राज्य होने के बावज़ूद वहाँ का पूरा मैदानी इलाक़ा कृषि आधारित काम-धंधों वाला ही है। राज्य विधानसभा में 70 सीटें हैं, जिनमें राजधानी देहरादून समेत मैदान के चार ज़िलों की 27 सीटों पर किसान की नाराज़गी बेहद अहम साबित होती है।
देहरादून ज़िले की विकास नगर, सहस पूर, डोई वाला और ऋषिकेश सीट, हरिद्वार ज़िले में शहर सीट को छोड़कर 11 में से 10 सीट, ऊधम सिंह नगर की नौ, नैनीताल ज़िले की रामनगर, कालाढूंगी, लालकुआं और हल्द्वानी विधानसभा सीट पर किसान खेल बदल सकते हैं। यहां का किसान 2022 के चुनाव में भाजपा को सबक़ सिखाने के लिए तैयार बैठा था, लेकिन अब कृषि क़ानूनों की वापसी से भाजपा डैमेज कंट्रोल में कामयाब हो सकती है।