Coconut Waste Management in India: कभी जिस नारियल के छिलके को लोग कूड़ा समझकर सड़कों या लैंडफिल में फेंक देते थे, आज वही कचरा शहरों की अर्थव्यवस्था को बदल रहा है। स्वच्छ भारत मिशन-शहरी (SBM-U 2.0) के तहत भारत के कई राज्यों ने नारियल के कचरे को ‘सोने’ में बदलने का करिश्मा कर दिखाया है। मंदिरों के प्रसाद से लेकर समुद्र तटों तक, नारियल के कचरे को अब वैज्ञानिक तरीके से प्रोसेस कर रस्सियां, कोकोपीट और बायो-सीएनजी बनाई जा रही है।
धार्मिक शहर बने मिसाल: पुरी से तिरुपति तक
भारत के धार्मिक स्थलों पर नारियल का इस्तेमाल आस्था का प्रतीक है, लेकिन इसके बाद बचने वाला कचरा एक बड़ी चुनौती था।
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पुरी, वाराणसी और तिरुपति: इन शहरों ने मंदिरों से निकलने वाले कचरे को निपटाने के लिए विशेष ‘सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं’ (Material Recovery Facilities) स्थापित की हैं। अब यहां नारियल का एक भी छिलका बेकार नहीं जाता।
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भुवनेश्वर (ओडिशा): यहां का ‘पालसुनी नारियल प्रसंस्करण संयंत्र’ एक मॉडल बन गया है। यह रोज करीब 6,000 नारियल के छिलकों को प्रोसेस कर 7,500 किलो फाइबर और 48 मीट्रिक टन कोकोपीट बनाता है, जिससे हर महीने 7-9 लाख रुपये की कमाई हो रही है।
किसानों और महिलाओं की बढ़ी आय
केरल के कुन्नमकुलम में एक ‘ग्रीन डी-फाइबरिंग यूनिट’ काम कर रही है जो न केवल कचरे को गंधहीन खाद में बदलती है, बल्कि किसानों को प्रति छिलका 1.25 रुपये भी देती है। वहीं, चेन्नई में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल के तहत अब तक 1.15 लाख मीट्रिक टन कचरे को प्रोसेस किया जा चुका है। सबसे खास बात यह है कि इस पूरी इंडस्ट्री में लगभग 80% महिलाएं (Self Help Groups) जुड़ी हैं, जिन्हें इससे सम्मानजनक रोजगार और स्थिर आय मिल रही है।
विश्लेषण: ‘सर्कुलर इकोनॉमी’ का बेहतरीन उदाहरण
एक वरिष्ठ संपादक के तौर पर इस बदलाव को देखें तो यह केवल सफाई अभियान नहीं, बल्कि ‘सर्कुलर इकोनॉमी’ (Circular Economy) का एक सटीक उदाहरण है। इंदौर का मॉडल सबसे ज्यादा प्रभावशाली है। वहां 550 टीपीडी बायो-सीएनजी प्लांट के बगल में ही नारियल प्रोसेसिंग यूनिट लगाई गई है। यहां एक तरफ कोकोपीट बनता है जो मिट्टी की नमी को 500% तक बढ़ाता है, और दूसरी तरफ रस्सियां बनती हैं। पटना का ‘शून्य लागत मॉडल’ (Zero Cost Model) भी यह साबित करता है कि बिना बड़े निवेश के भी कचरे को लैंडफिल में जाने से रोका जा सकता है। यह दिखाता है कि भारत अब कचरे को बोझ नहीं, बल्कि संसाधन मान रहा है।
आम आदमी और पर्यावरण पर असर
नारियल के छिलके जब लैंडफिल में सड़ते हैं या जलाए जाते हैं, तो वे मीथेन और कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इस नई पहल से न केवल प्रदूषण कम हो रहा है, बल्कि आम लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। कोकोपीट की मांग यूरोप और अमेरिका में बढ़ रही है, जिससे भारत को विदेशी मुद्रा भी मिल रही है। एक आम किसान या माली के लिए यह सस्ती और अच्छी खाद का स्रोत बन गया है।
जानें पूरा मामला
क्या है पृष्ठभूमि: भारत दुनिया के सबसे बड़े नारियल उत्पादक देशों में से एक है। आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, तटीय शहरों के कचरे में 6-8% हिस्सा नारियल के छिलकों का होता है। स्वच्छ भारत मिशन 2.0 के तहत सरकार अब कचरा प्रसंस्करण संयंत्र लगाने पर 25-50% तक की वित्तीय सहायता दे रही है। ‘कॉयर उद्यमी योजना’ के तहत तो 40% तक सब्सिडी का प्रावधान है।
‘मुख्य बातें (Key Points)’
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Odisha, UP, Andhra Pradesh के मंदिरों में नारियल कचरे के लिए विशेष प्लांट लगाए गए हैं।
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Indore में नारियल कचरे से बायो-सीएनजी और कोकोपीट बनाया जा रहा है।
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Chennai में पीपीपी मॉडल के तहत 1.15 लाख टन कचरा प्रोसेस किया गया।
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Global Market में भारतीय कोकोपीट की मांग बढ़ रही है, निर्यात सालाना 10-15% बढ़ रहा है।
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SBM-U 2.0 के तहत सरकार प्लांट लगाने के लिए 50% तक आर्थिक मदद दे रही है।








