NDA Politics Crisis : देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आकार ले रहा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि एनडीए के प्रमुख सहयोगी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू अपने दम पर सक्रिय हैं। बीजेपी उनके साथ कहीं नजर नहीं आ रही है। वहीं अमित शाह को अब देश, पार्टी, एनडीए और संघ परिवार सब कुछ संभालने की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है।
नीतीश कुमार का अलग रास्ता
बिहार में कुछ बड़ा होने वाला है। नीतीश कुमार इस वक्त पूरी तरह सक्रिय हैं। लेकिन उनके साथ बीजेपी कहीं दिखाई नहीं दे रही है।
जनता दल यूनाइटेड अब बीजेपी का नाम लेना नहीं चाहती। हालांकि सम्राट चौधरी की मौजूदगी नीतीश के साथ होती जरूर है। यह सम्राट चौधरी की कमजोरी है या फिर बीजेपी के समीकरण साधने की सोच है। यह सवाल अभी बना हुआ है।
नीतीश जानते हैं कि वो बड़े होकर भी इस वक्त बीजेपी से छोटे हैं। बीजेपी अपने फैसले अपने तरीके से ले रही है। सम्राट चौधरी बिहार का चेहरा बीजेपी के लिए हैं। लेकिन कुर्सी नीतीश के पास है।
दूसरी तरफ नीतीश कुमार इस हकीकत को जानते हैं कि उन्हें जितना कमजोर किया गया और जितना कमजोर बताया गया, बिहार के भीतर उनकी पहचान कहीं ज्यादा मजबूती के साथ उभरी है। नीतीश के पास 12 सांसद हैं।
आरजेडी में टूट की आशंका
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आरजेडी टूट जाएगी। लालू यादव के परिवार के भीतर से जब उनकी अपनी बेटी यह कहती है कि उन्हें सुरक्षा चाहिए और नीतीश कुमार उन्हें सुरक्षा देंगे तो बात साफ हो जाती है।
जनता दल यूनाइटेड ने भी कहा है कि सुरक्षा मिलेगी। वो विधायक जो लालू के नाम पर चुनाव लड़ते रहे, वो अब मुश्किल हालात में हैं।
नीतीश कुमार और जनता दल यूनाइटेड जिस मजबूती के साथ उभरा है, उसका विकल्प आरजेडी हो नहीं सकता। बीजेपी भी बिहार में विकल्प बन नहीं सकती। इन दो परिस्थितियों के बीच आरजेडी की टूट का सवाल और बड़ा हो गया है।
चंद्रबाबू नायडू: राज्य के CEO की तरह काम
आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू विशाखापट्टनम और अमरावती को राजधानी बनाने के लिए जो इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर रहे हैं, उसमें केंद्र का कोई सहयोगी कॉरपोरेट नजर नहीं आ रहा है।
सब कुछ अपने जरिए चंद्रबाबू खुद खड़े कर रहे हैं। वो राज्य के सीईओ की तर्ज पर काम कर रहे हैं। उनके पास 17 सांसद हैं।
चंद्रबाबू नीतीश से दो कदम आगे चल चुके हैं। वो जानते हैं कि कॉरपोरेट का साथ इस देश में सत्ता के लिए चाहिए। इसी वजह से कॉग्नीजेंट जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनी वहां लगभग 18 बिलियन डॉलर इन्वेस्ट करने वाली है।
समर्थन दे रहे हैं तो पैसा भी चाहिए। लेकिन उसके बदले में दिल्ली से जुड़े कॉर्पोरेट की सत्ता नहीं चाहिए। आंध्र प्रदेश के भीतर बीजेपी का कोई नाम नहीं है। वो सिर्फ टीडीपी का है।
इंडिगो प्रकरण और रमा नायडू
जिस तरीके से बीजेपी को लगा कि अगर चंद्रबाबू इसी उड़ान पर उड़ते रहे तो पता नहीं किस दिन उनकी उड़ान पूरे विपक्ष को अपने पीछे खड़ा कर देगी। इसीलिए नागरिक उड्डयन मंत्री रमा नायडू को इंडिगो प्रकरण में कटघरे में खड़ा करने की कोशिश हुई।
लेकिन चंद्रबाबू ने रमा नायडू से कहा कि अब दिल्ली से कुछ नहीं पूछना है। आप कैबिनेट मिनिस्टर हैं। स्वतंत्र प्रभार है आपके पास। निर्णय लीजिए और मैसेज भी दीजिए।
इसका असर यह हुआ कि अब एविएशन का संकट है और इंडिगो का सवाल है तो कोई सवाल-जवाब बीजेपी से नहीं हो रहा।
PM के डिनर में सहयोगी गायब
प्रधानमंत्री ने डिनर तो दिया। लेकिन उसमें उन राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को नहीं बुलाया जो एनडीए का हिस्सा हैं।
नीतीश कुमार क्यों नहीं बुलाए गए। चंद्रबाबू नायडू क्यों नहीं। एकनाथ शिंद क्यों नहीं। अजीत पवार क्यों नहीं। ये सवाल बड़े हैं।
लोक कल्याण मार्ग पर सांसदों का मजमा जमा था। छह टेबल महत्वपूर्ण थे। हर टेबल पर एक बीजेपी का नेता मौजूद था जो दिल्ली के दरबार में करीब है या सत्ता का विश्वासपात्र है।
उन टेबल पर खाने के बीच सबको संभालने की, जानकारी देने की और जानकारी इकट्ठा करने की जिम्मेदारी इसी तरीके से तय की गई थी।
कैप्टन अमरिंदर का बड़ा बयान
पंजाब के भीतर से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आवाज दी है कि बीजेपी यहां जीत नहीं सकती है। कोई दूसरा रास्ता देखना होगा।
कैप्टन ने कहा कि पंजाब अलग एरिया है। एवरीवेयर बीजेपी पुटिंग थ्रू है लेकिन पंजाब में क्यों नहीं। पिछली इलेक्शंस देख लो। कितनी सीटें आई। कुछ भी नहीं।
उन्होंने कहा कि आप उन लोगों से सलाह नहीं लेते जो फील्ड में रहे हैं और जानते हैं क्या कहना है। यह मैसेज बीजेपी के लिए अच्छा बिल्कुल नहीं है।
अमित शाह और मोहन भागवत: पहली बार अकेले साथ
पोर्ट ब्लेयर में पहली बार अमित शाह अकेले सर संघचालक मोहन भागवत के साथ नजर आए। वीर सावरकर की आदमकद प्रतिमा का अनावरण दोनों ने साथ मिलकर किया।
इससे पहले ऐसे कार्यक्रमों में अक्सर कई दूसरे नेताओं की मौजूदगी होती थी। या तो बीजेपी अध्यक्ष होते थे या प्रधानमंत्री होते थे या बीजेपी के किसी दूसरे नेता की मौजूदगी होती थी।
लेकिन अब दिल्ली ने ढील दे दी है। जाइए रास्ता बनाइए। संघ को साथ लीजिए। उनके साथ आप खुद नजर आइए।
यह मैसेज है कि दिल्ली ने तो चुन लिया अपना रास्ता। आने वाले वक्त में किसके जरिए सत्ता संभालनी है। लेकिन अब संघ भी समझ ले और साथ रहना सीख ले।
महाराष्ट्र में उलझे समीकरण
जनवरी में महाराष्ट्र में बहुत कुछ होगा। निकाय चुनाव के बाद बीएमसी का चुनाव बहुत कुछ तय करने वाला है।
शरद पवार के जन्मदिन पर जब अजीत पवार पहुंचे तो शरद पवार ने समझाया कि ज्यादा दिन चीजें चलेंगी नहीं। जिस रास्ते निकल पड़े हो यह राजनीति में ज्यादा दिन रहने नहीं देगा। वापस लौटना पड़ेगा।
एकनाथ शिंद का भी 36 का आंकड़ा देवेंद्र फडणवीस के साथ है। देवेंद्र फडणवीस के बारे में भी दिल्ली के दरबार में अच्छी राय नहीं है। यह एक त्रिकोण है।
एकनाथ शिंद को गाहे-बगाहे अमित शाह बुला तो लेते हैं। लेकिन महाराष्ट्र के भीतर की राजनीति की डोर अभी भी उलझी हुई है।
संघ अपने तौर पर जिस रास्ते चल निकला है और देवेंद्र फडणवीस को आगे रखा है, यह मैसेज भी दिल्ली को ठीक नहीं लग रहा।
कांग्रेस की रामलीला मैदान रैली
रामलीला मैदान में कांग्रेस अपनी रैली कर रही है। इसमें सिर्फ कांग्रेसी होंगे। यहां इंडिया गठबंधन नजर नहीं आएगा।
राष्ट्रीय तौर पर कांग्रेस बीजेपी के लिए चुनौती है। क्षेत्रीय तौर पर कई छत्रप बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं।
कांग्रेस अपने बूते खुद को परख रही है। देखना चाहती है कि मैसेज कितना बड़ा जा रहा है। हरियाणा का कितना बड़ा योगदान। राजस्थान का कितना बड़ा योगदान। हुड्डा क्या कर रहे हैं। सचिन पायलट क्या कर रहे हैं। गहलोत क्या कर रहे हैं।
अमित शाह की बढ़ती भूमिका
अमित शाह देश चला रहे हैं। पार्टी भी चला रहे हैं। अब एनडीए को भी चलाना है। संघ परिवार को भी मैनेज करना है।
दिल्ली के भीतर मोदी के बाद अमित शाह के नारे लगने लगे हैं जो दिखाई दे रहे हैं।
वोट चोरी को लेकर पार्लियामेंट में जिस अंदाज में विपक्ष को घेरा, बात उसके आगे निकल चुकी है। अब संघ को साधना है तो मोदी नहीं अमित शाह साधेंगे। क्योंकि बैटन तो आखिर में अमित शाह के पास ही आएगा।
तीन बड़े ट्रांसफॉर्मेशन
इस दौर में अगर पॉलिटिक्स में ट्रांसफॉर्मेशन हो रहा है तो तीन बड़े बदलाव हैं।
पहला: कॉरपोरेट का ट्रांसफॉर्मेशन।
दूसरा: सत्ता परिवर्तन में उस विचारधारा का जो पोर्ट ब्लेयर में दिखाई देने लगा।
तीसरा: एनडीए और इंडिया के बीच का ट्रांसफॉर्मेशन।
बिहार और बंगाल चुनाव निर्णायक
असल परीक्षण बिहार चुनाव से शुरू होगा और बंगाल में उसका अंत होगा। बंगाल में अगले बरस चुनाव है। बिहार में तेजस्वी हैं। यूपी में अखिलेश हैं। बंगाल में ममता हैं।
मार्च के महीने तक जो परिवर्तन होंगे, वो सब बंगाल के चुनाव पर आकर खड़े हो जाएंगे।
अखिलेश तेलंगाना जाकर बीआरएस से मिले। कहा कि हमारे पुराने संबंध हैं।
ऑपरेशन कर्नाटक की तैयारी
इन सबकी काट अमित शाह के पास सिर्फ एक ही मंत्र के आश्रय है। वो मंत्र है ऑपरेशन कर्नाटक शुरू कर दो। सबका ध्यान वहीं चला जाएगा।
और मान लीजिए ऑपरेशन कर्नाटक शुरू हो चुका है।
‘क्या है पृष्ठभूमि’
एनडीए सरकार 240 बीजेपी सांसदों पर टिकी है। नीतीश के 12 सांसद हैं। चंद्रबाबू के 17 सांसद हैं। शिंदे के 7 सांसद हैं। इन सहयोगियों के बिना सरकार चलाना मुश्किल है।
लेकिन दिल्ली की सत्ता इन सहयोगियों को अपने से बड़ा नहीं देखना चाहती। यही टकराव का कारण है।
नीतीश कुमार अटल बिहारी वाजपेई के करीब रहे। वाजपेयी के तो करीब हो गए थे। आडवाणी से एक वक्त दो-दो हाथ करने की परिस्थितियां भी आई थीं।
मौजूदा वक्त में नरेंद्र मोदी के साथ ठीक चल रही है। लेकिन अमित शाह जिस तर्ज पर आगे बढ़ रहे हैं, उनसे नीतीश कुमार की पटती नहीं है। यही कारण है कि नीतीश को PM के डिनर में नहीं बुलाया गया।
‘मुख्य बातें (Key Points)’
- नीतीश और चंद्रबाबू: दोनों अपनी अलग पहचान बना रहे हैं और बीजेपी का नाम नहीं ले रहे
- PM का डिनर: एनडीए के प्रमुख सहयोगियों को निमंत्रण नहीं दिया गया
- अमित शाह-RSS: पहली बार अकेले मोहन भागवत के साथ कार्यक्रम में शामिल हुए
- ऑपरेशन कर्नाटक: अमित शाह की अगली रणनीति शुरू हो चुकी है






