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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का मामला क्यों पहुंचा सुप्रीम कोर्ट? समझिए नए कानून के खिलाफ दलीलें

जिस प्रक्रिया के जरिये ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की बतौर चुनाव आयुक्त 14 मार्च को नियुक्ति हुई, आज वह सुप्रीम कोर्ट के सामने है. मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर पिछले साल मोदी सरकार एक कानून लेकर आई. इस कानून को अदालत में चुनौती दी गई है.

The News Air Team by The News Air Team
शुक्रवार, 15 मार्च 2024
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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का मामला क्यों पहुंचा सुप्रीम कोर्ट? समझिए नए कानून के खिलाफ दलीलें
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नई दिल्ली, 15 मार्च (The News Air) वैसे तो ये बात ठीक नहीं पर चाहे-अनचाहे भारत में लोकतंत्र का मतलब बहुत हद तक चुनाव और उससे तय होने वाली जीत-हार हो गई है जबकि लोकतंत्र इससे परे काफी कुछ है. आप पूछेंगे – क्या है वो काफी कुछ, जवाब है – फिर कभी. आज बात ये कि जो चुनाव लोकतंत्र को परिभाषित कर रहा है, उसको कराने वाला आयोग, उसके आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया कितनी पारदर्शी, स्वायत्त और सरकारी दबाव से मुक्त है? ऐसे ही कुछ सवालों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में आज सुनवाई होनी है.

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की नई व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. 14 मार्च को एकाएक सरकार ने इसी प्रक्रिया के जरिये दो आयुक्तों की नियुक्ति की.दो आयुक्तों की नियुक्ति सरकार को इसलिए करनी पड़ी क्योंकि पिछले महीने एक चुनाव आयुक्त (अनूप चंद्र पांडेय) रिटायर हो गए और इस महीने दूसरे चुनाव आयुक्त (अरुण गोयल) ने अपना कार्यकाल पूरा होने से बहुत पहले इस्तीफा दे दिया. इस्तीफा क्यों दिया, इस बारे में कुछ ठोस जानकारी अब तक सार्वजनिक नहीं हुई.

इस तरह आयोग में केवल मुख्य चुनाव आयुक्त (राजीव कुमार) ही रह गए. लोकसभा चुनाव से पहले सरकार की और फजीहत न हो, ये सोचते हुए पीएम मोदी की अगुवाई वाली कमिटी बैठी और खाली पड़े आयुक्त के दो पदों पर ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की नियुक्ति कर दी. नियुक्ति तो हो गई पर जिस प्रक्रिया के तहत हुई, उसको चुनौती दी गई याचिकाओं का आज सर्वोच्च अदालत में सुना जाना है.

EC की नियुक्ति में क्या हुआ बदलाव? : पिछले साल अगस्त में मुख्य चुनाव आयुक्त और दूसरे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए मोदी सरकार एक विधेयक लाई जो अब कानून की शक्ल में है. इस कानून के अमल में आने के बाद चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वाली मौजूदा प्रक्रिया से देश के चीफ जस्टिस को हटा दिया गया और उनकी जगह एक कैबिनेट मंत्री को कमेटी में जगह दे दी गई.

कानून ने सीईसी और ईसी की नियुक्ति, उनकी सर्विसेज से जुड़े शर्तों में जो बदलाव किया, उसके मुताबिक नियु्क्ति की प्रक्रिया मोटामाटी दो चरण में बंट गई.

पहला – कानून मंत्री की अध्यक्षता में एक सर्च कमिटी के गठन की बात हुई. इस कमिटी में कानून मंत्री के अलावा दो केंद्रीय सचिव शामिल करने का प्रावधान था. समिति को सीईसी और ईसी के लिए पांच नाम शॉर्टलिस्ट कर सलेक्शन कमिटी को भेजने का काम दिया गया.

दूसरा – सलेक्शन कमिटी में प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री की ओर से नॉमिनेट किए गए एक केंद्रीय मंत्री को जगह दी गई. ये कमिटी शॉर्टलिस्ट किए गए नामों में से किसी भी नाम को चुन सकती थी. सबसे दिलचस्प प्रावधान तो नए कानून में यह हुआ कि जिन नामों को सर्च कमिटी ने शॉर्टलिस्ट नहीं किया है, प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली पैनल चाहे तो वैसे नामों पर भी विचार कर सकती थी.

चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में केंद्र सरकार की पूरी तरह दखल और वर्चस्व विपक्षी पार्टियों और चुनाव आयोग की स्वायत्तता के पक्ष में काम करने वाले इदारों को रास नहीं आई. कांग्रेस नेता जया ठाकुर और राजनीतिक दलों की पारदर्शिता को लेकर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने नए कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंचा मामला?

भारत सरकार के इस फैसले के बाद जो विवाद हुआ. उसकी दो मुख्य वजहें थी.

पहला – विपक्ष को नए कानून की जिन बातों पर आपत्ति थी, उनमें सबसे अहम ऐसे पैनल का गठन था जिसमें दो नुमाइंदे सरकार ही के थे. लोकसभा में विपक्ष के नेता को पैनल में शामिल करने की बात को विपक्षी पार्टियों ने महज दिखावा और औपचारिकता कहा क्योंकि उसके पास नियुक्ति की प्रक्रिया पर किसी भी तरह का असर डालने की ताकत नहीं थी.

दूसरा – कानून को सुप्रीम कोर्ट के पिछले साल के एक फैसले (अनूप बरनवाल बनाम भारत सरकार) की अनदेखी और अदालत के फैसले को पलटने वाला कहा गया. 2023 के मार्च महीने में देश की सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि सीईसी और ईसी के चयन के लिए जो पैनल फैसला लेगी – उसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता के अलावा देश के मुख्य न्यायधीश (सीजेआई) शामिल होंगे.

हालांकि अदालत ने साथ में ये भी नत्थी कर दिया कि कोर्ट का आदेश तब तक ही प्रभावी रहेगा जब तक संसद इस पर कोई कानून नहीं बना देती.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले तक सीईसी और ईसी की नियुक्ति भारत सरकार की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रपति की ओर से की जाती थी.

विपक्षी दलों ने नए कानून की आलोचना की और कहा नए पैनल को जिस तरह की ताकत दे दी गई है, उससे सत्ताधारी पार्टी ऐसे सीईसी और ईसी का चयन करेगी जो उसको फायदा पहुंचाए. आखिरकार ये मामला इस साल 2 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

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याचिकाकर्ताओं की मुख्य दलीलें : ग्रेस नेता जया ठाकुर ने नियुक्ति की प्रक्रिया से सीजेआई को हटाने के खिलाफ अर्जी लगाई.जया ठाकुर ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि कानून के प्रावधान स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांतों की अनदेखी करते हैं और ये कानून चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए कोई इंडिपेंडेट मैकेनिज्म नहीं मुहैया कराता.

उनका तर्क था कि ये कानून ‘अनूप बरनवाल बनाम भारत सरकार और अन्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है, क्योंकि ये सलेक्शन प्रोसेस से भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की नियुक्ति प्रक्रिया को ही बाहर कर देती है.

अदालत ने 12 जनवरी को कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर भारत सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया लेकिन नए कानून पर अंतरिम रोक लगाने की दरख्वास्त को ठुकरा दिया.

एक महीने के बाद 13 फरवरी को ये देखते हुए कि चुनाव आयुक्त अनूप चंद्र पांडेय के कार्यकाल पूरा होने के बाद भारत सरकार इस कानून के जरिये नए आयुक्त की नियुक्ति करेगी. याचिकाकर्ताओं ने दोबारा से सुनवाई और कानून पर रोक लगाने की मांग की. पर इस दफा भी जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने नए कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.

हालांकि बेंच ने कानून को चुनौती देने वाली जनहित याचिका (पीआईएल) पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया. इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दिया. मगर जब याचिकाकर्ताओं ने यह देखा कि नए आयुक्त की नियुक्ति के लिए पीएम की अगुवाई वाली पैनल बैठने वाली है तो सुप्रीम कोर्ट से जल्द से जल्द सुनवाई की अर्जी लगाई गई. 13 मार्च को सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गया और आज, 15 मार्च से यह मामला अदालत के सामने है.

एडीआर की ओर से पिछली सुनवाई में वकील प्रशांत भूषण पेश हुए थे. तब भूषण ने दलील थी कि चूंकि एक इलेक्शन कमिश्नर बहुत जल्द रिटायर हो रहे हैं और लोकसभा चुनाव भी नजदीक है, इस कानून पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि अगर अभी ये रोक नहीं लगती तो फिर इस पूरे केस का ही कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.

हालांकि इस पर जस्टिस संजीव खन्ना की टिप्पणी थी कि हम इस तरह अंतरिम रोक जारी नहीं लगा सकते और संवैधानिक सवालों से जुडें मामले कभी निरर्थक नहीं हो जाते.

अब जब सुप्रीम कोर्ट आज से सुनवाई के लिए बैठ रहा है तो वह इस कानून को किस नजर से देखता है, संवैधानिक नजरिये से कितना दुरुस्त पाता है. इस पर सबकी नजर रहेगी.

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