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Unnao Case: सुप्रीम कोर्ट की साख दांव पर, कल का फैसला तय करेगा न्याय की दिशा

The News Air Team by The News Air Team
रविवार, 28 दिसम्बर 2025
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Unnao Case
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Supreme Court Unnao Case Decision : सुप्रीम कोर्ट के सामने कल का दिन एक ऐतिहासिक अग्नि परीक्षा लेकर आ रहा है क्योंकि एक तरफ उन्नाव कांड के दोषी विधायक की जमानत का मामला है तो दूसरी तरफ अरावली पहाड़ियों पर खनन को लेकर दिया गया विवादित फैसला है। पहली बार ऐसी स्थिति बनी है जब सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसलों पर पुनर्विचार करते हुए यह साबित करना होगा कि न्यायपालिका राजनीतिक सत्ता से स्वतंत्र है। बीजेपी हेडक्वार्टर और प्रधानमंत्री कार्यालय में इस फैसले को लेकर चिंता और मंथन का माहौल है क्योंकि इसका सीधा असर सत्ता की राजनीतिक साख पर पड़ने वाला है।


‘मोदी सरकार के सामने पहली बार ऐसा संकट’

इससे पहले कभी ऐसी स्थिति मोदी सरकार के सामने नहीं आई थी और इस दौर में बीजेपी भी ऐसे संकट से नहीं गुजरी थी जो इस वक्त अलग-अलग मुद्दों को लेकर बीजेपी और मोदी सरकार के सामने खड़ा हो गया है। मुश्किल यह नहीं है कि राजनीतिक तौर पर जिन मुद्दों के साथ बीजेपी खड़ी होती है या मोदी सरकार मोहर लगा देती है कि यह सही है, बल्कि इसके ठीक उलट पहली बार मसला सीधे सुप्रीम कोर्ट का है।

मसला सुप्रीम कोर्ट की साख का है, मसला इस देश में न्याय मिलने को लेकर है, मसला इस देश में कानून के राज का है और मसला बीजेपी की उस राजनीतिक विचारधारा तले जो बड़ी तादाद में बीजेपी का वोट बैंक यह मानकर चल रहा है कि असल में वह कानून से ऊपर है या फिर अगर वह पार्टी के साथ खड़ा है और पार्टी के हक के लिए काम कर रहा है तो कानून उस पर कोई कारवाई नहीं करेगा।


‘सुप्रीम कोर्ट की साख पर उठते सवाल’

बात मोदी सरकार और बीजेपी की नहीं बल्कि इस दौर में सुप्रीम कोर्ट की है क्योंकि न्यायिक व्यवस्था या इस देश के भीतर संविधान की पहचान सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट से जुड़ी है। सुप्रीम कोर्ट कल क्या फैसला देगा इसको लेकर बीजेपी हेडक्वार्टर और प्रधानमंत्री कार्यालय दोनों जगहों पर चिंतन और मनन तो है ही, धड़कन भी बढ़ी हुई है।

राजनीतिक तौर पर इस दौर में जो कुछ उन्नाव कांड और उसके दोषी जिस पर बलात्कार और हत्या का दोष है और सजा हो चुकी है, वह फाइल कल सुप्रीम कोर्ट में खुलेगी। उसको जमानत देने का फैसला भी अदालती निर्णय से हुआ है और सरकार उसके समर्थन में है।


‘अरावली पर भी होगा बड़ा फैसला’

दूसरी तरफ अरावली को लेकर राजस्थान सरकार उसे विकास से जोड़ती है और खुद बीजेपी या मोदी सरकार ने खुले तौर पर अपनी बात को सुप्रीम कोर्ट में रखा। सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मोहर कैसे लगाई इसका जिक्र इससे पहले के सीजीआई बी आर गवई कह चुके हैं कि उनके सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं था।

राजनीतिक तौर पर बीजेपी और मोदी सत्ता जिस रास्ते चल पड़ी है, उसमें सुप्रीम कोर्ट की साख कैसे खत्म होती चली गई और होती चली जा रही है, अब सवाल उसका भी है। संस्थान बचेंगे नहीं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले लोगों के भीतर गुस्सा पैदा करेंगे तो क्या होगा?

कल फाइल अरावली की भी खुलेगी और अरावली पर फैसला तो सुप्रीम कोर्ट ने ही दिया है इसलिए उसे अपना फैसला बदलना होगा।


‘तीन बड़े सवाल खड़े हुए’

इस देश के भीतर पहली बार जो मुद्दे जिस तरीके से उठे और जिन-जिन जगहों पर उठे उसने तीन सवाल खड़े कर दिए हैं। पहला सवाल यह है कि क्या वाकई राजनीतिक सत्ता जो चाहती है सुप्रीम कोर्ट उसी तर्ज पर फैसला दे देता है? दूसरा सवाल यह है कि राजनीतिक सत्ता की जो अपनी विचारधारा है क्या सुप्रीम कोर्ट उसको जमानत दे देता है? और तीसरा सवाल यह है कि इस देश के भीतर भ्रष्टाचार या सरकार से जुड़ी ऐसी नीतियां और पॉलिसी जो बनती है जो लोगों के हित में हो या न हो, क्या सुप्रीम कोर्ट उस पर आंख मूंद लेता है?

कल का दिन अहम है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले पर फिर से फैसला देना है और अपने ही दौर में उसी सरकार को लेकर सवाल खड़े करने हैं जो खुलकर इस दौर में उन दोषियों के साथ खड़ी हो गई है जिन दोषियों पर सजा सबूतों के साथ अदालत ने ही दी थी।


‘सड़क पर दोषी के समर्थन में उतरे लोग’

इस देश में पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई बीजेपी का झंडा उठा ले, भगवा झंडा लहराने लगे, सनातन होने का जिक्र करने लगे और उसके बाद खुले तौर पर इस देश में जो बलात्कार का दोषी है, जो हत्या का दोषी है, उसके पक्ष में उसी जगह पर जाकर विरोध करने लग जाए जहां पर न्याय की मांग पीड़ितों के जरिए की जा रही है।

उन महिलाओं के जरिए न्याय की मांग की जा रही है जो मानती हैं कि इस देश में कानून कहीं फेल तो नहीं हो गया। सड़क पर “आई सपोर्ट कुलदीप सिंह सेंगर” के नारे लगे और “शेम ऑन यू” जैसे बैनर दिखे जो दोषी के समर्थन में थे।

यूं ही कोई महिला अचानक तो सड़क पर आकर खड़ी नहीं हो गई कि वह उन्नाव कांड के दोषी को सजा दिलाना नहीं चाहती है या फिर अदालत ने जो उन्हें जमानत दी है वह उसके पक्ष में है। यूं ही तो कोई खड़ा नहीं होता है।


‘संघ के संगठनों का सड़क पर तांडव’

इस दौर में जिस राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन अपनी विचारधारा के साथ जोड़कर मौजूदा वक्त में संघ के संगठन चाहे वो विश्व हिंदू परिषद हो या बजरंग दल हो, जिस लिहाज से सड़क पर तांडव मचा रहे हैं या एक धर्म विशेष के खिलाफ या इस देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो प्रदर्शन क्रिसमस के मौके पर जिस तरीके से हुआ और जो लगातार जारी है, वह दरअसल एक मैसेज है।

वह मैसेज यह है कि एक ही धारा, एक ही विचारधारा, एक ही पार्टी, एक ही धर्म और वही सब कुछ मान्य और कानून भी उसी अनुकूल चलना चाहिए।


‘प्रधानमंत्री की खामोशी पर सवाल’

प्रधानमंत्री मोदी कमोबेश हर विषय पर बोलते हैं चाहे राजनीतिक रैलियों में हो या सामान्य तौर पर किसी भी कार्यक्रम में, मौका पड़े तो पार्लियामेंट में बोलते हैं और मन की बात भी करते हैं। लेकिन जब उन्नाव कांड का जिक्र है जिसकी फाइल कल सुप्रीम कोर्ट में खुलेगी और यह फैसला होगा कि जो अदालत ने इससे पहले फैसला दिया कि जमानत दे दी जाए ऐसे दोषी को, उस पर वह क्या निर्णय लेती है।

दोषी खुद बीजेपी का विधायक रहा है और उत्तर प्रदेश में चुनाव है तो राजनीतिक तौर पर या तो उस जाति विशेष या उस परिवार के प्रभाव तले राजनीतिक पहल कदमी चुनाव में बीजेपी को करनी है क्या? यह सवाल शायद बीजेपी हेडक्वार्टर और नए नवेले बने बीजेपी अध्यक्ष के सामने भी होगा, यह सवाल इस देश के गृह मंत्री के सामने भी होना चाहिए और यह सवाल पीएमओ जो सत्ता का केंद्र है, शक्ति का प्रतीक है, उसके सामने भी होना चाहिए।


‘बिल्किस बानो से लेकर अंकिता भंडारी तक’

एक क्षण के लिए कुछ पन्ने पुराने पलटिए। बिल्किस बानो के साथ जो हुआ, बलात्कार जिस तरीके से हुआ, 2 महीने की बच्ची को पटक कर मारने वालों को लेकर जब 11 आरोपी दोषी में तब्दील हुए और उसके बाद उनको लेकर जब गुजरात की सरकार ने उन्हें जमानत दिलाने की कोशिश की और जब वह बाहर निकले तो उन्हें फूल मालाएं पहनाई गई। यह सच है, हालांकि उसके बाद दोबारा उन्हें वापस जेल में भेजा गया।

अंकिता भंडारी जो उत्तराखंड की हैं उनको लेकर जिनका नाम बलात्कार और हत्या के दोषी की खोज में आया और उसमें बीजेपी के जनरल सेक्रेटरी का नाम जिस तर्ज पर आया उस पर सरकार की खामोशी रही। महिला पहलवानों के साथ क्या हुआ था और ब्रजभूषण जो बीजेपी से जुड़े थे उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे थे।

इस पूरी प्रक्रिया के भीतर अगर एक-एक पन्ने को पलटते चले जाएंगे तो प्रधानमंत्री ने खामोशी बरती लेकिन वह जिस पॉलिटिकल पार्टी से आते हैं उस पॉलिटिकल पार्टी का रुख बहुत साफ था कि उनके अपने लोग दोषी हो नहीं सकते और अगर आरोपी बनाया गया तो राजनीतिक तौर पर उन्हें आरोपी बनाया गया।


‘अदालतें सत्तानुकूल फैसले कैसे दे रही हैं’

इस दौर के भीतर एक पूरी प्रक्रिया है जहां पर राजनीतिक सत्ता खुद को उस बीजेपी की धारा विचारधारा और संघ की सोच से अलग रखने का प्रयास करती है और इसके समानांतर जब अदालतों में मामले जाते हैं तो अदालतें सत्तानुकूल परिस्थितियों को चुन लेती हैं और फैसला उसी अनुकूल कैसे हो जाता है यह भी एक सवाल है।

नया सवाल इसलिए गंभीर है क्योंकि इस देश के भीतर जो लोगों का विरोध और आक्रोश है वह जिस लिहाज से चल निकला है उसका दबाव मौजूदा वक्त में हर इंस्टीट्यूशन पर होगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट तो अपने आप में सत्ता से हटकर है।

ना सिर्फ सत्ता से हटकर है बल्कि उसकी पहचान ही डेमोक्रेसी के उस पिलर के तौर पर है जहां पर वह किसी को भी तानाशाह होने से रोक सकती है संविधान के आईने को दिखलाकर।


‘जजों की नियुक्ति में सरकार का दखल’

शायद इसीलिए इस दौर में सुप्रीम कोर्ट को अपनी साख की चिंता करनी होगी। यह सवाल बहुत बड़ा है कि वहां पर जजों की नियुक्ति में भी सरकार का दखल कैसे बना और यह भी सवाल बड़ा है कि जजेस अपने तौर पर जज कैसे बन जाएं इसको लेकर सरकार का दखल बढ़ा है।

तो वह सरकार के निर्णयों के साथ या सरकार की आंखों में तारा बनने के लिए कुछ ऐसे फैसले देते हैं जिससे वो सरकार की नजरों में आ सकें और उन्हें आगे बढ़ाया जा सके। यह पूरी प्रक्रिया का हिस्सा आप मान सकते हैं।


‘डेमोक्रेसी के सभी पिलर सत्ता के गुणगान में लगे’

जिस स्थिति में इस देश के मौजूदा हालात हैं, जिन परिस्थितियों में इस देश का विपक्ष राजनीतिक तौर पर गायब है, जिस तर्ज पर इस देश के भीतर डेमोक्रेसी के तमाम पिलर्स सत्ता के गुणगान करने में ही लगे हैं या उसे बचाने में ही लगे हैं या सत्ता ने उन्हें इस रूप में बना दिया है, तो रास्ता बचता किधर है और रास्ता जाता किधर है?

इस दौर में प्रधानमंत्री मोदी भी समझ रहे हैं कि इस देश के भीतर लोग जिन सवालों को उठा रहे हैं वो सोशल मीडिया ही क्यों ना हो, वह तबका युवा है, वह यंग तबका है। इसीलिए आज भी जब वह मन की बात कर रहे थे तो उसमें उन्होंने युवाओं का जिक्र किया।


‘प्रधानमंत्री ने युवाओं को जेन जी बताया’

दो दिन पहले जब प्रधानमंत्री बच्चों के साथ संवाद कर रहे थे उस वक्त भी वह जेन जी का जिक्र करते हुए अपनी विकास यात्रा को जोड़ना और देश की विकास को अपने विकास की सोच के साथ जोड़कर उन युवाओं को भी जेन जी के तौर पर साथ में जोड़ने की पहल कर रहे थे।

प्रधानमंत्री ने कहा, “संगठन से जुड़े इतने सारे युवा यहां उपस्थित हैं, एक तरह से आप सभी जेन जी हैं। आपकी जनरेशन ही भारत को विकसित भारत के लक्ष्य तक ले जाएगी। मैं जेन जी की योग्यता और आपका आत्मविश्वास देखता हूं।”

मन की बात में उन्होंने कहा, “मेरे प्यारे देशवासियों आज दुनिया भारत को बहुत आशा के साथ देख रही है। भारत से उम्मीद की सबसे बड़ी वजह है हमारी युवा शक्ति। साथियों भारत के युवाओं में हमेशा कुछ नया करने का जुनून है और वह उतने ही जागरूक भी हैं।”


‘सुप्रीम कोर्ट को कोई चुनाव नहीं लड़ना’

प्रधानमंत्री को हर 5 बरस में चुनाव लड़ना है और हर बरस राज्यों के चुनाव लड़ने हैं तो प्रधानमंत्री के राजनीतिक वक्तव्य उनकी अपनी राजनीति को साधने के लिए तो हो सकते हैं। लेकिन यहां पर फिर वो सवाल सुप्रीम कोर्ट का है।

सुप्रीम कोर्ट को कोई चुनाव नहीं लड़ना है। सुप्रीम कोर्ट का दायित्व इस देश के भीतर संविधान द्वारा मिले गए आम लोगों के जो अधिकार हैं उन अधिकारों को राजनीतिक सत्ता ध्वस्त ना कर दे या फिर इस समाज के भीतर कोई ऐसा मैसेज ना चला जाए कि असल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी राजनीति से प्रभावित हैं।

तो फिर सुप्रीम कोर्ट को तो अपनी जमीन खोजनी होगी।


‘सुप्रीम कोर्ट के सामने सबसे बड़ा संकट’

मौजूदा वक्त में सुप्रीम कोर्ट के सामने सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके अपने फैसलों को लेकर या न्यायपालिका की अलग-अलग अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों को लेकर लोगों के भीतर गुस्सा है और सवाल है। इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट को ही देना होगा।

सुप्रीम कोर्ट अब इस हकीकत को जान रहा है कि अगर उसकी साख चली गई तो फिर कुछ भी नहीं बचेगा। इस देश के भीतर ऑटोक्रेसी क्या होती है, तानाशाही क्या होती है, किस रूप में कॉन्स्टिट्यूशन मुद्दा बना दिया गया और किस रूप में कॉन्स्टिट्यूशन को हाशिए पर ले जाया गया, इस देश के लोग तो आखिर में सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर ही दस्तक देंगे।

सुप्रीम कोर्ट एक इंस्टिट्यूशन है, एक ऐसा इंस्टिट्यूशन है जिसमें तमाम चीफ जस्टिस आते रहेंगे, जाते रहेंगे और वह कोई पॉलिटिकल पार्टी नहीं है।


‘वी द पीपल फॉर द पीपल’

सवाल यह नहीं कि बीजेपी के हेडक्वार्टर की धड़कनें क्यों बढ़ी हुई हैं राजनीतिक तौर पर या पीएमओ के भीतर जो निर्णय लिए गए और उससे किन्हें लाभ होते हैं, कौन सा कॉर्पोरेट किस खनन से जुड़ा हुआ है और किस खनन के प्रोजेक्ट से जुड़ा हुआ है। यह सवाल और गुणा भाग राजनीतिक तौर पर पीएमओ और बीजेपी करती रहे।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट को अब अपने तौर पर उन फैसलों को परखना ही है जहां पर इस देश की संवैधानिक व्यवस्था इस देश के लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बनी है। इसीलिए “वी द पीपल फॉर द पीपल” जो जिक्र होता है वह लोगों के लिए है और सुप्रीम कोर्ट अगर इससे भटक जाता है तो फिर उसकी अपनी साख अपनी मान्यता खत्म हो जाएगी।


‘100 मीटर का विवादित नियम’

इसीलिए यह सवाल कल बहुत बड़ा है कि उन्नाव कांड के दोषी को कैसे जमानत मिल गई। अरावली पर्वत को लेकर जो फैसला 100 मीटर का दिया गया कि उतना मीटर होगा तभी वह पहाड़ माना जाएगा अन्यथा वहां खनन हो सकता है, यह कैसे निर्णय ले लिया गया? इससे होने वाले प्रभाव को जो आम लोगों पर पड़ रहा है, उससे आप कैसे मुक्ति पा सकते हैं?


‘पांच बड़े सवाल जो और बड़े हो चुके हैं’

पांच सवाल जो सबसे बड़े सवाल इस दौर में कहीं ज्यादा बड़े हो चुके हैं:

पहला सवाल: इस देश ने ढहते हुए संस्थानों को देखा है और इस देश के भीतर चुनाव आयोग तक पर सवाल उठे हैं। क्या पहली बार सुप्रीम कोर्ट को यह एहसास हो रहा है कि उसने स्वतः संज्ञान जो लिया है जिन मुद्दों का, वह मुद्दे न्यायपालिका के फैसलों से ही निकले हैं और सुप्रीम कोर्ट को दोबारा उस पर विचार भी करना है और फैसला भी देना है? यह पहली बार अपने तौर पर खुलकर उभरा है।

दूसरा सवाल: जो राजनीति उन फैसलों को अपने अनुकूल मान रही थी, अब सुप्रीम कोर्ट के सामने यह एक अग्नि परीक्षा है कि वह राजनीतिक तौर पर मौजूदा सत्ता की उस धारा को भी ना माने या विरोध करे या खड़ा हो जाए या फिर अपने तौर पर बतलाए कि संविधान लोगों के अधिकारों को किस रूप में देता है।

तीसरा सवाल: इस देश के भीतर न्याय की आखिरी गुहार सुप्रीम कोर्ट से ही लगाई जाती है और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस इस बात को बखूबी जानते हैं। वो जानते हैं कि उनकी अपनी चीफ जस्टिस होने की मियाद चंद महीनों की है, एक साल की है और आने वाले वक्त में कोई दूसरा चीफ जस्टिस होगा।


‘रंजन गगोई जो संसद तक पहुंच गए’

ठीक उसी तर्ज पर जो इससे पहले जस्टिस बी आर गवई थे, ठीक वैसे ही जैसे इससे पहले चीफ जस्टिस संजीव खन्ना थे और उनके फैसलों को लेकर उनके जाने के बाद बहस तीखी हो गई। या फिर चीफ जस्टिस रहे रंजन गगोई जो कि संसद तक पहुंच गए, सरकार द्वारा स्थापित करने के बाद उनके दिए फैसले भी इस देश की आंखों के सामने चुभने लगे।

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फैसला सुप्रीम कोर्ट को करना है, यह तीसरा बड़ा कारण है।


‘विपक्ष की राजनीति चूक गई’

चौथी बड़ी परिस्थिति इस देश के भीतर आम लोगों से जुड़ी है। इस देश के भीतर अलग-अलग माध्यमों से आने वाले जो विचार इस दौर में राजनीतिक शक्ति के तौर पर तो नहीं है लेकिन एक जन सरोकार के तौर पर सामने आ रहे हैं।

राजनीतिक तौर पर तो तब होते जब विपक्ष एक राजनीतिक भूमिका के साथ मौजूदा राजनीतिक सत्ता को चुनौती दे रहा होता। इस देश के लोगों को यह एहसास धीरे-धीरे होने लगा है कि विपक्ष की राजनीति चूक गई या विपक्ष की राजनीति मौजूदा राजनीतिक सत्ता के सामने खड़ी नहीं हो पा रही या फिर इस देश में लोकतंत्र की परिभाषा जो सत्ता गढ़ रही है उसके साथ वो राजनीति खड़ी है।

तो खुद का रास्ता खुद बनाना होगा। इसीलिए जो गैर राजनीतिक लोग हैं उनके विचार खुलकर इस दौर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अगर उभर रहे हैं तो फैसला सुप्रीम कोर्ट को करना होगा।


‘सबसे बड़ा सवाल: अपना ही कटघरा’

पांचवा बड़ा सवाल शायद सबसे बड़ा सवाल है। इस दौर में अपना ही कटघरा सुप्रीम कोर्ट ने बनाया, अपना ही कटघरा मौजूदा राजनीतिक सत्ता ने बनाया और अपना ही कटघरा इस दौर में चुनाव आयोग ने बनाया है।

हर कोई अपने कटघरे के आश्रय मौजूदा सत्ता और सत्ता की सुविधाओं से पूरे तरीके से लैस है। इस देश के तमाम इंस्टीट्यूशंस में बैठे हुए लोग वो सत्ता के अधीन हैं, चुनाव आयुक्त भी सत्ता के अधीन है क्योंकि उसको चुनने का अधिकार राजनीतिक सत्ता के पास है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की नियुक्ति मौजूदा प्रधानमंत्री नहीं करते हैं।


‘चीफ जस्टिस अपने आप में एक इंस्टिट्यूशन’

चीफ जस्टिस की मौजूदगी, चीफ जस्टिस एक ऐसे इंस्टीट्यूशन का एक पद भी है और अपने आप में एक इंस्टिट्यूशन भी होता है जो उसके अपने कालखंड में दिए गए निर्णयों के आश्रय इस देश को किस रास्ते चलना है या इस रास्ते अगर राजनीति ले जा रही है और वह गलत है तो उसे पटरी पर लाने के लिए यही न्यायिक व्यवस्था संसद का आसरा देते हुए संविधान को बतलाते हुए खुले तौर पर सामने रखती है कि यह आपकी लिमिटेशन है और इसके आगे आप मत बढ़िए।

शायद इसीलिए कल सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो उन्नाव कांड पर है, जो अरावली की पहाड़ियों पर है, जो उसके द्वारा लिया गया स्वतः संज्ञान है, वह महत्वपूर्ण भी है और उस फैसले का इंतजार इस देश को भी है।


‘मुख्य बातें (Key Points)’
  • उन्नाव कांड के दोषी विधायक की जमानत पर कल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी जिसमें कोर्ट को तय करना है कि बलात्कार और हत्या के दोषी को क्या जमानत मिलनी चाहिए थी।
  • अरावली पहाड़ियों पर 100 मीटर का विवादित नियम भी कल की सुनवाई में शामिल है जिसमें सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले पर पुनर्विचार करना होगा।
  • बीजेपी हेडक्वार्टर और पीएमओ में इस फैसले को लेकर चिंता है क्योंकि इसका सीधा असर राजनीतिक साख और आगामी चुनावों पर पड़ सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट की साख दांव पर है और पहली बार ऐसी स्थिति बनी है जहां कोर्ट को अपने ही फैसलों पर सवाल उठाते हुए नया फैसला देना है।
  • प्रधानमंत्री की खामोशी पर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि बिल्किस बानो, अंकिता भंडारी और महिला पहलवानों के मामले में भी वह चुप रहे।

FAQ – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न 1: उन्नाव कांड क्या है और दोषी कौन है?

उन्नाव कांड 2017 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ एक गैंगरेप और हत्या का मामला है जिसमें बीजेपी के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर दोषी पाए गए थे। उन्हें अदालत ने सजा सुनाई थी लेकिन हाल ही में उन्हें जमानत मिल गई है।

प्रश्न 2: अरावली पहाड़ियों पर 100 मीटर का नियम क्या है?

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि 100 मीटर ऊंचाई से कम की पहाड़ी को पहाड़ नहीं माना जाएगा और वहां खनन हो सकता है। इस फैसले पर अब पुनर्विचार होना है क्योंकि इससे पर्यावरण और आम लोगों पर बुरा असर पड़ रहा है।

प्रश्न 3: सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान क्यों लिया?

देशभर में इन मामलों पर जनता का गुस्सा और सोशल मीडिया पर विरोध देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है ताकि अपने ही पुराने फैसलों पर पुनर्विचार कर सके।

प्रश्न 4: कल के फैसले का क्या महत्व है?

कल का फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे तय होगा कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक सत्ता से स्वतंत्र है या नहीं और क्या न्यायपालिका अपनी साख बचा पाएगी।

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