Parliament Winter Session 2025: 17 दिसंबर 2025 को संसद के शीतकालीन सत्र में दो बड़े विधेयकों पर जोरदार बहस हुई। एक तरफ मनरेगा को खत्म करके लाया गया ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण’ बिल और दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों की एंट्री का रास्ता खोलने वाला ‘शांति बिल 2025’। दोनों ही विधेयकों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक हुई।
मनरेगा की जगह नया कानून: क्या है पूरा मामला?
इकोनॉमिक्स में नोबेल प्राइज पाने वाले जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने 2016 में कहा था कि मनरेगा भारत का इकलौता सबसे बड़ा मौलिक कार्यक्रम है और पूरी दुनिया को इससे सीखना चाहिए।
लेकिन अब इसी योजना की जगह नया कानून लाया जा रहा है। लोकसभा में इस बहस के लिए कुल 6 घंटे तय किए गए हैं, जो बताता है कि मामला कितना गंभीर है।
पुराने कानून और नए बिल में क्या है फर्क?
मनरेगा (पुराना कानून):
- 2005 में नरेगा के रूप में शुरू हुआ
- 2006 में पायलट प्रोजेक्ट चले
- 2008 में पूरे देश में लागू हुआ
- गांव में रहने वालों को 100 दिन काम की गारंटी
- किसी स्किल की जरूरत नहीं
- पूरी फंडिंग केंद्र सरकार के जिम्मे
- सिर्फ मटेरियल कॉस्ट का 25% राज्यों की जिम्मेदारी
नया बिल (वीबीजी-रामजी):
- 125 दिन काम की गारंटी
- फंडिंग में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ेगी
- नॉर्मेटिव एलोकेशन की व्यवस्था
- खेती के सीजन में रोजगार गारंटी पर रोक
- 15 दिन की जगह साप्ताहिक भुगतान
- योजना से महात्मा गांधी का नाम हटाया गया
विपक्ष का हमला: नाम बदलने पर भड़का गुस्सा
टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा ने आरोप लगाया कि नाम बदलकर सांप्रदायिक राजनीति को अंजाम दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार पहले ही वेस्ट बंगाल में मनरेगा का फंड रोक चुकी है और अब इस योजना को पूरी तरह खत्म किया जा रहा है।
डीएमके की सांसद कनिमोई ने भाषा का मुद्दा उठाया। बोलीं कि बिल का नाम पढ़कर ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोप रही है।
सीपीएम के अमराराम ने कहा कि 2004 में जब यूपीए फर्स्ट की सरकार आई थी तब वामपंथियों के हस्तक्षेप से ग्रामीण मजदूरों को रोजगार की गारंटी मिली थी। लेकिन अब मोदी सरकार इस जिम्मेदारी से भाग रही है।
सत्ता पक्ष का जवाब: यह है सिस्टेमेटिक रिफॉर्म
बीजेपी के दिलीप सैकिया ने कहा कि नया बिल सिस्टेमेटिक रिफॉर्म्स के लिए लाया गया है। पहले जिन ग्रामीण मजदूरों को 100 दिन काम की गारंटी थी, वह अब बढ़कर 125 हो गई है।
टीडीपी के लू श्री कृष्ण देव रायलू ने नाम बदलाव का बचाव किया। बोले कि 2005 से पहले भी इस तरह की योजनाओं के कई नाम थे जैसे जवाहर रोजगार योजना और जवाहर ग्राम समृद्धि योजना।
एक सांसद ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा कि 17 लाख करोड़ सरकार के खजाने से उठ गया लेकिन मजदूरों को सिर्फ 3400 करोड़ ही पहुंचा। शेष राशि राजनेताओं, नौकरशाहों और बिचौलियों ने हड़प ली।
नए बिल के समर्थक क्या कह रहे हैं?
समर्थकों की दलील:
सबसे बड़ी दलील यह है कि मनरेगा अब आउटडेटेड प्रोग्राम बन चुका है क्योंकि दो दशकों में देश की स्थिति काफी बदल चुकी है।
गरीबी 25% से घटकर 5% पर आ गई है। लोगों की आय बढ़ी है, खर्च और वित्तीय पहुंच में सुधार हुआ है। ऐसे में मनरेगा जैसे अनिवार्य फंडिंग वाले कार्यक्रम की जरूरत अब नहीं है।
अन्य फायदे जो गिनाए जा रहे हैं:
- ग्रामीण भारत में वाटर सिक्योरिटी को तरजीह
- टारगेटेड इलाकों में योजनाबद्ध काम
- रोड्स और इंफ्रास्ट्रक्चर पर फोकस
- रिपल इफेक्ट से बिजनेस एक्टिविटीज को बढ़ावा
- इनकम सोर्सेस का डायवर्सिफिकेशन
- क्लाइमेट रेजिलियंस को बढ़ावा
- 7 दिन के अंतराल पर पेमेंट से आर्थिक गतिविधियों को बूस्ट
खेती के सीजन में काम बंद: फायदा या नुकसान?
नए बिल का एक बड़ा प्रावधान है कि खेती के सीजन के दौरान रोजगार की गारंटी नहीं रहेगी।
सरकार का तर्क: ऐसा इसलिए ताकि खेतों में कामगारों की कमी न हो।
आलोचकों का कहना: इससे ग्रामीण मजदूरों की मोलभाव करने की ताकत कम हो गई है। पहले खेती के सीजन में भी उनके पास मनरेगा में काम का विकल्प रहता था। ऐसे में वे खेत मालिकों से ज्यादा मजदूरी मांग पाते थे। अब यह नहीं होगा।
हालांकि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि यूपीए सरकार ने भी इस प्रावधान को हटाने पर विचार किया था। 2011 में शरद पवार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी थी कि बुवाई और कटाई के सीजन में मनरेगा पर रोक लगनी चाहिए।
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की चिंताएं
विख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को मनरेगा की संकल्पना का क्रेडिट दिया जाता है। उनका कहना है:
2011-12 के आंकड़े बताते हैं:
- मनरेगा 5 करोड़ परिवारों के लिए काम के 200 करोड़ दिन पैदा कर चुका था
- करीब आधी कामगार महिलाएं थीं
- 40% हिस्सा अनुसूचित जाति और जनजाति का था
बाद में टेक्नोक्रेसी, सेंट्रलाइजेशन, फंड की कमी, भुगतान में देरी और भ्रष्टाचार ने योजना को नुकसान पहुंचाया। लेकिन 2019 में कोविड महामारी के बाद मनरेगा ने फिर अपनी अहमियत साबित की।
द्रेज की सबसे बड़ी चिंता: केंद्र सरकार ने फंडिंग की जिम्मेदारी तो छोड़ दी लेकिन पावर नहीं छोड़ी। अब केंद्र ही तय करेगा कि नई योजना कहां और कैसे लागू होगी।
फंडिंग की नई व्यवस्था: राज्यों पर बोझ बढ़ेगा
नए बिल में दो तरह के फंडिंग रेश्यो की व्यवस्था है:
सामान्य राज्यों के लिए: 60:40 (केंद्र 60%, राज्य 40%)
विशेष राज्यों के लिए: 90:10 (उत्तरपूर्वी राज्य, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर)
आलोचकों का कहना है:
- पहले राज्यों पर वित्तीय बोझ नहीं था, इसलिए रोजगार देने का इंसेंटिव था
- जीएसटी विवादों और डीबीटी स्कीम्स के खर्च के बीच राज्यों के पास अब ऐसा इंसेंटिव नहीं होगा
- अगर राज्य रोजगार नहीं दे पाएं तो बेरोजगारी भत्ता देना होगा, यह पैसा कहां से आएगा?
सरकारी आंकड़े खुद बता रहे हैं हकीकत
नए बिल में 125 दिन काम का प्रावधान है, कागजों पर अच्छा लगता है। लेकिन सरकारी डाटा बताता है कि मनरेगा में 100 दिन की गारंटी भी पूरी नहीं हो रही:
| साल | औसत कार्य दिवस |
|---|---|
| 2020-21 | 50 दिन |
| 2022-23 | 47 दिन |
| 2023-24 | 50 दिन |
| 2024-25 | 50 दिन |
जिन परिवारों को काम मिला उनकी संख्या भी 5 करोड़ पर ही थमी रही।
न्यूक्लियर एनर्जी में प्राइवेट एंट्री: शांति बिल 2025
लोकसभा में 17 दिसंबर को परमाणु ऊर्जा राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने ‘सस्टेनेबल हार्नेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ (शांति) बिल 2025 पेश किया।
उन्होंने परमाणु कार्यक्रम के जनक डॉ. होमी जहांगीर भाभा को याद करते हुए कहा कि उनके लक्ष्य को अब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में साकार किया जा रहा है।
मंत्री ने कहा: “संसद के इतिहास में कभी-कभार ऐसा मौका आता है जब सदस्यों को राष्ट्र की जीवन यात्रा को नई दिशा देने का अवसर मिलता है। यह ऐतिहासिक विधेयक है।”
न्यूक्लियर एनर्जी का लक्ष्य: 100 गीगावाट
वर्तमान स्थिति:
- अभी न्यूक्लियर एनर्जी कैपेसिटी: 8.8 गीगावाट
- जब सरकार आई तब थी: 4.4 गीगावाट
- यानी दोगुने से ज्यादा बढ़ी
2047 का लक्ष्य:
- 100 गीगावाट न्यूक्लियर एनर्जी
- देश की कुल ऊर्जा जरूरत का 10% हिस्सा न्यूक्लियर से
मौजूदा निर्भरता:
- 2024-25 में कोयले पर निर्भरता: 70%
विपक्ष का तीखा विरोध
कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने कहा: 2008 में जब भारत की परमाणु रंगभेद नीति तोड़ने की कोशिश हो रही थी, तब बीजेपी ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था।
डीएमके सांसद अरुण नेहरू ने कहा: परमाणु ऊर्जा बेहद शक्तिशाली और संवेदनशील क्षेत्र है। इसका नाम ‘शांति’ से जोड़ना ही गलत है। उन्होंने जापान के फुकुशिमा हादसे का जिक्र किया जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई थी।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा: “वी हैव मास्टर्ड न्यूक्लियर फ्यूजन एंड फिशन बट नॉट अपैरेंटली लेजिस्लेटिव प्रिसिजन। यह बिल बैक डोर खोलता है जिससे सरकार किसी भी प्लांट की निगरानी और जवाबदेही से बच सकती है।”
सत्ता पक्ष का पलटवार
भाजपा सांसद डॉ. रविंद्र नारायण बहेरा ने कहा कि आने वाले समय में बिजली की मांग बढ़ने वाली है, ऐसे में यह बिल बेहद अहम है।
एक सांसद ने कहा कि परमाणु ऊर्जा से थर्मल पावर को रिप्लेस करने से कोयले के परिवहन और प्रदूषण की समस्या कम होगी।
हालांकि विपक्ष ने 49% से 100% एफडीआई अलाउ करने पर सवाल उठाए और पूछा कि मेक इन इंडिया का क्या हुआ।
भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम का इतिहास
भारत का न्यूक्लियर प्रोग्राम दुनिया के सबसे पुराने और स्वदेशी प्रोग्राम्स में से एक है।
महत्वपूर्ण पड़ाव:
- 1945: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) बना
- 1948: एटॉमिक एनर्जी कमीशन स्थापित, होमी भाभा चेयरमैन बने
- 1950 का दशक: न्यूक्लियर पावर प्रोग्राम की नींव
- 1969: अमेरिका की मदद से महाराष्ट्र में दो रिएक्टर शुरू
- 1974: इंदिरा गांधी के समय पहला न्यूक्लियर टेस्ट (पीसफुल न्यूक्लियर एक्सप्लोजन)
- 1998: अटल बिहारी वाजपेयी के समय दूसरा न्यूक्लियर टेस्ट
- 2008: मनमोहन सिंह के समय अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील
2008 की न्यूक्लियर डील: मील का पत्थर
2008 में हुई यूएस-इंडिया न्यूक्लियर डील भारत के लिए गेम चेंजर साबित हुई:
- 38 साल से लगी अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां खत्म हुईं
- न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (NSG) में छूट मिली
- विदेशी यूरेनियम और न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी मिलने लगी
वाम दलों ने इस डील का विरोध किया था और सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। बीजेपी ने भी शुरू में विरोध किया था लेकिन 2014 में सत्ता में आने के बाद डील को इंप्लीमेंट किया।
नए बिल में क्या बदलाव होंगे?
शांति बिल 2025 दो पुराने कानूनों में संशोधन करेगा:
- सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010
- एटॉमिक एनर्जी एक्ट 1962
पुरानी व्यवस्था:
- हादसे में प्लांट चलाने वाली कंपनी मुआवजा देती है
- तीन मामलों में कंपनी सप्लायर से पैसे वापस मांग सकती है
- सप्लायर की परिभाषा बहुत ब्रॉड थी
नई व्यवस्था:
- सप्लायर की परिभाषा अंतरराष्ट्रीय मानकों के बराबर
- कॉन्ट्रैक्ट की वैल्यू और रिस्क के हिसाब से जिम्मेदारी
- ऑर्डर साइज के हिसाब से जिम्मेदारी की सीमा
चिंताएं और चुनौतियां
सुरक्षा संबंधी चिंताएं:
- न्यूक्लियर प्लांट काफी संवेदनशील होते हैं
- प्राइवेट कंपनियां प्रॉफिट के चक्कर में सेफ्टी से समझौता कर सकती हैं
- हादसे में ऑपरेटर सिर्फ 3000 करोड़ तक जिम्मेदार, बाकी सरकार भरेगी
- सप्लायर पर केस तभी होगा जब कॉन्ट्रैक्ट में लिखा हो या जानबूझकर गड़बड़ी हो
महत्वपूर्ण बात: न्यूक्लियर हादसे आम हादसों से कहीं ज्यादा खतरनाक होते हैं। इनका असर बरसों तक रहता है।
दिल्ली प्रदूषण: सुप्रीम कोर्ट की सख्ती
17 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस सूर्यकांत की बेंच ने दिल्ली प्रदूषण पर सुनवाई की।
CJI ने तंज कसा: “ऐसे मामलों में एक्सपर्ट से सलाह कम मिलती है और वकील ही एक्सपर्ट बन जाते हैं।”
वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा: जब भी स्कूल बंद होते हैं, गरीब बच्चों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है क्योंकि वे मिड-डे मील से वंचित हो जाते हैं।
कोर्ट के आदेश:
- स्कूलों की छुट्टियां जारी रहेंगी
- दिल्ली के 9 टोल प्लाजा कुछ समय के लिए फ्री करने पर विचार
- MCD को एक हफ्ते में फैसला लेने को कहा
- BS3 और उससे नीचे की गाड़ियों पर सख्ती
- अगली सुनवाई 6 जनवरी को
50% वर्क फ्रॉम होम: नया आदेश
दिल्ली के श्रम मंत्री कपिल मिश्रा ने घोषणा की कि 18 दिसंबर से सभी सरकारी और प्राइवेट ऑफिस में 50% कर्मचारियों के लिए वर्क फ्रॉम होम लागू होगा।
इमरजेंसी सर्विस देने वाले संस्थान जैसे हेल्थकेयर और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को छूट दी गई है।
आम आदमी पर क्या असर?
मनरेगा बिल से:
- ग्रामीण मजदूरों की मोलभाव की ताकत कम हो सकती है
- खेती के सीजन में वैकल्पिक रोजगार नहीं मिलेगा
- राज्यों पर बोझ बढ़ने से योजना का क्रियान्वयन प्रभावित हो सकता है
न्यूक्लियर बिल से:
- लंबी अवधि में बिजली सस्ती और स्वच्छ हो सकती है
- कोयले पर निर्भरता कम होने से प्रदूषण घटेगा
- लेकिन सुरक्षा चिंताएं बनी हुई हैं
‘क्या है पूरी पृष्ठभूमि’
मनरेगा 2005 में लागू हुआ था और इसने करोड़ों ग्रामीण परिवारों को रोजगार की गारंटी दी। लेकिन समय के साथ इसमें भ्रष्टाचार, फंडिंग में कमी और भुगतान में देरी जैसी समस्याएं आईं। अब सरकार इसे नए स्वरूप में ला रही है। वहीं भारत का न्यूक्लियर प्रोग्राम 1940 के दशक से चल रहा है और 2008 की अमेरिका-भारत डील के बाद इसमें तेजी आई। अब सरकार प्राइवेट सेक्टर को इसमें शामिल करना चाहती है ताकि 2047 तक 100 गीगावाट का लक्ष्य हासिल हो सके।
मुख्य बातें (Key Points)
- मनरेगा की जगह नया बिल: 100 दिन की जगह 125 दिन काम की गारंटी, लेकिन फंडिंग में राज्यों का बोझ बढ़ेगा
- महात्मा गांधी का नाम हटा: योजना से गांधी जी का नाम हटाने पर विपक्ष का कड़ा विरोध
- न्यूक्लियर में प्राइवेट एंट्री: शांति बिल 2025 से प्राइवेट कंपनियां परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में आ सकेंगी
- 2047 का लक्ष्य: 100 गीगावाट न्यूक्लियर एनर्जी, मौजूदा कैपेसिटी 8.8 गीगावाट
- दिल्ली में 50% WFH: 18 दिसंबर से सरकारी-प्राइवेट ऑफिस में वर्क फ्रॉम होम लागू






