नई दिल्ली (New Delhi), 08 जनवरी (The News Air): सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मंगलवार को केंद्र और राज्य सरकारों की वित्तीय प्राथमिकताओं पर कड़ी नाराजगी जताई। जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि सरकारों के पास मुफ्त योजनाओं (Freebies) के लिए धन है, लेकिन न्यायाधीशों के वेतन और पेंशन (Judges’ Salary and Pension) के लिए वित्तीय बाधाओं का हवाला दिया जाता है।
क्या है मामला? : मामला ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन बनाम भारत संघ (All India Judges Association vs Union of India) से जुड़ा हुआ था, जिसमें न्यायिक अधिकारियों के वेतन और सेवानिवृत्ति लाभ (Retirement Benefits) पर चर्चा हो रही थी। इस दौरान अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी (R. Venkataramani) ने सरकार की वित्तीय कठिनाइयों का जिक्र किया।
SC की सख्त टिप्पणी : खंडपीठ ने कहा, “सरकारें मुफ्त योजनाओं की घोषणा कर सकती हैं, 2100 रुपये या 2500 रुपये देने का वादा कर सकती हैं, लेकिन जजों को वेतन और पेंशन देने के लिए धन नहीं है।”
उन्होंने विशेष रूप से महाराष्ट्र (Maharashtra) की लाडली-बहना योजना (Ladli Behna Scheme) और दिल्ली (Delhi) में विधानसभा चुनावों से पहले किए गए वादों को लेकर सवाल उठाए।
वित्तीय प्राथमिकताओं पर फोकस : सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायिक तंत्र देश के लोकतंत्र की रीढ़ है, और अगर न्यायाधीशों को सम्मानजनक वेतन और पेंशन नहीं दी जाएगी, तो यह न्याय व्यवस्था के लिए हानिकारक हो सकता है। खंडपीठ ने यह भी जोड़ा कि सरकारों को अपने वित्तीय फैसलों में संतुलन बनाना चाहिए।
मुफ्त योजनाओं पर बहस तेज : फ्रीबीज (Freebies) पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद यह मुद्दा फिर से गरमा गया है। कई राजनीतिक दल इसे जनता का अधिकार बता रहे हैं, जबकि कोर्ट ने इसे वित्तीय असंतुलन का कारण बताया।
चुनावी वादे बनाम आर्थिक हकीकत : राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi Assembly Elections) में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले विभिन्न दलों द्वारा किए जा रहे वादों को लेकर भी कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की। कोर्ट ने कहा, “जनता के पैसे का इस्तेमाल सोच-समझकर किया जाना चाहिए।”
सरकार की दलील : अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी ने कोर्ट को बताया कि न्यायिक अधिकारियों के वेतन और पेंशन पर विचार करते समय सरकार को वित्तीय दबावों का सामना करना पड़ता है।
विशेषज्ञों की राय : विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सरकारों को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर सकती है।