मुगल बादशाह अकबर के नाम पर क्यों बना चर्च, पढ़िए ये रोचक किस्सा

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लेखक: अतनु सिंह –18 फरवरी 1580, यही वह तारीख थी जब बादशाह अकबर से मिलने तीन जेसुइट पादरी आगरा पहुंचे। दूसरे धर्मों के बारे में जानने की बादशाह अकबर की ललक को देखते हुए इन तीनों पुर्तगाली पादरियों ने गोवा से आगरा तक का लंबा रास्ता तय किया था। अकबर की उदारता को देखते हुए तीनों पादरी यह सोच बैठे थे कि शायद बादशाह अपना धर्म ही बदल लें।

अकबर चर्च

अकबर ने सम्मान के साथ इन पादरियों का स्वागत किया, लेकिन धर्म बदलने की बात नहीं मानी। इसके बजाय उन्होंने प्रस्ताव दिया कि क्यों न स्थानीय धार्मिक विद्वानों के साथ जेसुइट पादरियों की बहस कराई जाए। कहा जा सकता है कि इस तरह के वाकयात से ही आगरा में ईसाई धर्म और संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ। आगरा उस वक्त मुगल साम्राज्य की राजधानी था और अक्सर ही वहां फ्रांस, पुर्तगाल, इंग्लैंड, इटली जैसे देशों से व्यापारियों और दूसरे लोगों का आना-जाना लगा रहता था। उनके प्रभाव में कुछ स्थानीय लोग ईसाई धर्म अपनाने लगे। फिर एक चर्च की जरूरत महसूस हुई, तो अकबर ने इसके लिए एक आर्मीनियाई बस्ती के पास जमीन दान की। इस तरह 1598 में ‘अकबर चर्च’ की स्थापना हुई। यह चर्च दो अब्राहमिक धर्मों के बीच दोस्ती की बेहतरीन मिसाल है।

यीशु पर नाटक

इतिहासकार आरवी स्मिथ के मुताबिक, क्रिसमस की सुबह खुद बादशाह अकबर अपने दरबार के नवरत्नों के साथ इस चर्च में तशरीफ लाते थे। शाम को हरम की खवातीन और शहजादियां आतीं। यही वह दौर था जब भारत में यीशु जन्म के नाटकों के मंचन की शुरुआत हुई, जिसमें यूरोपीय लोग भूमिका निभाते थे। बादशाह अकबर एक दर्शक के तौर पर इन नाटकों का लुत्फ लिया करते। यह परंपरा अकबर के बाद बादशाह जहांगीर के शासनकाल में भी जारी रही। और, समय के साथ नाटक का आयोजन ज्यादा भव्य होता गया। इसके लिए फुलत्ती इलाके में जोरदार रिहर्सल की जाती। इन सबसे मुगल शाही परिवार गहरे तक जुड़ गया और उस पर इसका काफी असर भी पड़ा। बात यहां तक पहुंच गई कि सन 1610 में इसी चर्च में जहांगीर के तीन भतीजों का बपतिस्मा कराया गया।

अब्दाली का हमला

शाहजहां के शासनकाल में इस्लाम में यकीन रखने वाले मुगल दरबार और पश्चिमी ईसाइयों के बीच भाईचारे और दोस्ती की तस्वीर फीकी पड़ने लगी। पुर्तगालियों के साथ बादशाह शाहजहां की टकराहट की सजा जेसुइट पादरियों को भुगतनी पड़ी। उन्हें कैदखाने में डाल दिया गया। बाद में, 1635 में उन्हें रिहा किया गया। उसी साल चर्च को ढहा दिया गया। कुछ फेरबदल के साथ 1636 में इसे वहीं पर दोबारा बनाया गया। मुगल सल्तनत जब अपनी ढलान पर थी तो हिंदुस्तान पर अहमद शाह अब्दाली का हमला हुआ। उसकी फौजों ने अकबर चर्च को तहस-नहस कर दिया। एक यूरोपीय साहसी यात्री वॉल्टर रेनहार्ट ने इस चर्च को दोबारा खोज निकाला। उन्होंने इसके पुनर्निर्माण और विस्तार में बड़ी भूमिका निभाई। कई लोगों का कहना है कि वॉल्टर साहब की बीवी, बेगम समरू का बपतिस्मा इसी चर्च में हुआ था।

चर्च परिसर में मकबरा

प्रार्थना सभाओं के लिए ज्यादा जगह की जरूरत को देखते हुए 1848 में बगल में ही एक बड़ा चर्च बनवाया गया, जो अब एक कैथेड्रल है। उसी दौर में आगरा में कुछ प्रोटेस्टेंट चर्च बनने भी शुरू हुए। इनमें सिकंदरा स्थित सेंट जॉन चर्च सबसे अहम है। इसे ‘मिशन चर्च’ के नाम से भी जाना जाना जाता है। औपनिवेशिक काल में इस चर्च का परिसर काफी दूर तक फैला हुआ था। अकबर की एक बेगम, मरियम उज-जमानी का मकबरा इसी परिसर के भीतर था।

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