नई दिल्ली : देश में इस साल आम चुनाव होने वाले हैं। चुनाव की तारीखों को ऐलान जल्द ही होने वाला है। ऐसे में मैसूर का नाम एक बार फिर चर्चा में है। इसकी वजह है चुनाव में मतदान के बाद वोटरों की तर्जनी उंगली पर लगने वाली खास स्याही। इस खास स्याही को देश में मैसूर की एकमात्र कंपनी मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड तैयार करती है। लोकतंत्र की निशानी इस स्याही का इतिहास देश में करीब 50 साल से भी पुराना है। इस स्याही के बिना देश में चुनाव पूरा नहीं होता है। बैंगनी रंग की इस स्याही का सबसे पहले प्रयोग 1962 में चुनाव में धांधली रोकने के लिए किया गया था।
अब तक सबसे बड़ा ऑर्डर
मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड (एमपीवीएल) में यह बेहद व्यस्त समय है। आगामी लोकसभा चुनावों के लिए अब तक का सबसे बड़ा ऑर्डर मिला है। हर चुनाव के साथ मतदाताओं की संख्या बढ़ने के साथ, अमिट स्याही की मांग भी बढ़ती जा रही है। इस बार आम चुनाव में इस स्याही की 26.6 लाख शीशी की जरूरत होगी। यूपी में सबसे अधिक चुनावी स्याही की जरूरत होती है। चुनाव के लिए स्याही के प्रोडक्शन पर 55 करोड़ रुपये की लागत आएगी। 10 मिलीग्राम की एक शीशी का उपयोग 700 मतदाताओं के लिए किया जा सकता है। इसके ऑर्डर के बाद एमपीवीएल का कहना है कि जरूरत का कम से कम 70% उत्पादन पूरा हो गया है। बाकी 15 मार्च तक पूरा हो जाएगा।
कैसे बनती है अमिट स्याही?
इस स्याही में सिल्वर नाइट्रेट होता है। इसे सीक्रेट रूप से तैयार किया जाता है। इंक को तैयार करने में पूरी सुरक्षा और गोपनीयता का ख्याल रखा जाता है। इंक का फॉर्मूला क्वालिटी मैनेजर के पास होता है। इसे किसी के साथ शेयर नहीं किया जाता है। यही वजह है कि कंपनी ने पिछले पांच दशक से अपनी साख बना रखी है। अमिट स्याही लगभग 10 दिनों तक चमकीली रहती है। उसके बाद वह फीकी पड़ने लगती है। प्रारंभ में, अमिट स्याही को कांच की बोतलों में भरकर सप्लाई की जाती थी। हालांकि, नई टेक्नोलॉजी आने के साथ, 1960 के दशक के अंत से एमपीवीएल ने एम्बर रंग के प्लास्टिक (एचडीपीई) कंटेनर का यूज करना शुरू कर दिया। 10 ग्राम वाली प्रत्येक शीशी की कीमत 174 रुपये है। यह पिछले चुनाव के 160 रुपये प्रति शीशी से अधिक है। ऐसा एक प्रमुख घटक सिल्वर नाइट्रेट की कीमत में उतार-चढ़ाव के कारण है। कंपनी स्याही वाली प्लास्टिक की शीशियों को बदलने के लिए मार्कर पेन बनाने का विकल्प भी तलाश रही है। इसका प्रोडक्शन अभी भी विकास चरण में है।
30 से अधिक देशों में सप्लाई
देश में बनने वाली लोकतंत्र वाली स्याही देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी सप्लाई होती है। इंग्लैंड, तुर्की, मलेशिया, नेपाल, घाना, दक्षिण अफ्रीका के साथ ही डेनमार्क जैसे देशों में मेड इन मैसूर इंक का यूज किया जाता है। वर्तमान में घरेलू डिमांड के अलावा, कंपनी के पास पूरा करने के लिए निर्यात ऑर्डरों की भी लाइन लगी है। इसकी वजह है कि इस साल चुनाव होने वाले 60 देशों में से कई को अपनी मतदान प्रक्रियाओं के लिए इस अमिट स्याही की आवश्यकता है। कंपनी को अन्य देशों से मार्कर शीशियों के लिए कई अनुरोध प्राप्त हुए हैं। उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में और ऑर्डर आएंगे। कंपनी के एमडी मोहम्मद इरफान का कहना है कि पिछले कुछ महीनों में, हमने कंबोडिया, फिजी द्वीप समूह, सिएरा लियोन और गिनी-बिसाऊ से छोटे निर्यात ऑर्डर पूरे किए हैं। अब हम मंगोलिया, फिजी द्वीप समूह, मलेशिया और कंबोडिया के लिए ऑर्डर में जुटे हैं।
मैसूर के राजा ने की थी स्थापना
मैसूर पेंट्स की स्थापना 1937 में महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने थी। 1962 में, चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय, भारत की राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला और राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के सहयोग से ऐसी स्याही बनाने के लिए मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के साथ एक समझौता किया। सेंटर फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ने इस स्याही का फॉर्मूला तैयार किया था। खास बात है कि इस स्याही को आसानी से मिटाया नहीं जा सकता था। वर्तमान में इस फैक्ट्री में करीब 100 लोगों की टीम काम करती है। फैक्ट्री में बाहरी लोगों की एंट्री प्रतिबंधित है। इसके अलावा फैक्ट्री में तीन चरण पर सिक्योरिटी चेक होता है।